हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ महिला दिवस और महिला सशक्तिकरण की दिशा में प्रयास ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें।  प्रस्तुत है  8 मार्च महिला दिवस पर विशेष आलेख  “महिला दिवस और महिला सशक्तिकरण की दिशा में प्रयास ”)

☆ आलेख ☆ महिला दिवस और महिला सशक्तिकरण की दिशा में प्रयास ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆

8 मार्च को महिला दिवस मनाया गया। ऐसे पर्व पर दो महिलाओं की याद आती है। एक तो बा, गांधीजी की पत्नी, जिन्हें उनके माता-पिता ने कस्तूर बाई नाम दिया और महात्मा गांधी ने पहले उन्हें इसी नाम से संबोधित किया, बाद में वे भी सभी लोगों की भांति ‘बा’ कहने लगे। बाद को दक्षिण अफ्रीका से भारत वापस आने के बाद, बा के लिए आयोजित सम्मान समारोह में किसी ने बा को महात्मा जी की मां कह दिया तो बापू भी बोल उठे कि चालीस साल हुए मैं बेमांबाप हो गया और तीस वर्षों से वह मेरी मां का काम कर रही है। वह मेरी मां, सेविका, रसोइया, बोतल धोने वाली सब कुछ रही है । अगर वह इतने सबेरे आपके दिए सम्मान में हिस्सा लेने आती तो मैं भूखा रह जाता और मेरे शारीरिक सुख की कोई परवाह नहीं करता। इसलिए हमने आपस में समझौता कर लिया है कि सभी सम्मान मुझे मिले और सारी मेहनत उसे करनी पड़े। यह संस्मरण पति पत्नी के आपसी प्रेम व समर्पण का प्रतीक है। बा तो अनपढ़ थी पर गांधीजी की प्रेरणा पाकर वह पढ़ना लिखना सीख गई, स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय रहीं और अपना जीवन महात्मागांधी के शिष्यों के लिए समर्पित कर दिया।

दूसरी महिला जिससे मैं प्रभावित हुआ वह है अमरकंटक निवासिनी गुलाबवती बैगा, अनपढ़ माता पिता की पुत्री और जिसका ब्याह दस वर्ष की उम्र में होने वाला था। मां, बाप गांव के मुखिया आदि उसके प्रतिरोध को अनसुना कर रहे थे। तब इस कन्या की नानी आगे आई, उसने विरोध किया विवाह का, डाक्टर प्रवीर सरकार के मां सारदा कन्या विद्यापीठ पौंडकी में पहुंचकर डाक्टर साहब के सुपुर्द इस अबोध बालिका को किया और फिर यह कन्या पढ़ती गई बढ़ती गई, आज दो नन्हे नटखट बच्चों की मां है और बैगा समुदाय की प्रथम महिला स्नातक भी। स्कूल में शिक्षिका गुलाबवती बैगा जब फटफटिया में फुर्र से स्कूल जाती है तो उसकी प्रौढा नानी भी खुशी से फूली नहीं समाती। सत्तर से अधिक वर्षों में महिला सशक्तिकरण की दिशा में ऐसे अनेक प्रयास ग्रामीणों ने किए हैं, उन प्रयासों को मेरा नमन।

? महिला दिवस पर ‘ बा’, ‘गुलाबवती बैगा’ और महिला सशक्तिकरण की दिशा में प्रयासों को नमन  ?

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – आलेख ☆ महिला स्वतंत्रता आंदोलन की प्रणेता – सिमोन द बुआ ☆ श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। 

हम ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए महिला दिवस के परिपेक्ष में  श्री सुरेश पटवा जी की सुप्रसिद्ध पुस्तक स्त्री – पुरुष  का एक महत्वपूर्ण अंश महिला स्वतंत्रता आंदोलन की प्रणेता – सिमोन द बुआ साझा कर रहे हैं। )

☆ आलेख ☆ महिला स्वतंत्रता आंदोलन की प्रणेता – सिमोन द बुआ 

दुनिया में महिला स्वतंत्रता आंदोलन की प्रणेता एक महिला दार्शनिक सिमोन को माना जाता है। सिमोन द बुआ (फ़्रांसीसी: Simone de Beauvoir) (जन्म: 9 जनवरी 1908 – मृत्यु : 14 अप्रैल 1986) एक फ़्रांसीसी लेखिका और दार्शनिक थीं। स्त्री उपेक्षिता (फ़्रांसीसी:Le Deuxième Sexe, जून 1949) अंग्रेज़ी में “Second Sex” जैसी महत्वपूर्ण पुस्तक लिखने वाली सिमोन का जन्म पैरिस में हुआ था। लड़कियों के लिए बने कैथलिक विद्यालय में उनकी आरंभिक शिक्षा हुई। उनका कहना था की स्त्री पैदा नहीं होती, उसे बनाया जाता है। समाज ने उसे गढ़ने का सामान चर्च, मंदिर और मस्जिद के रीति रिवाज के रूप मे तैयार कर रखा है।

सिमोन का मानना था कि स्त्रियोचित गुण दरअसल समाज व परिवार द्वारा लड़की में भरे जाते हैं, जबकि वह भी वैसे ही जन्म लेती है जैसे कि पुरुष और उसमें भी वे सभी क्षमताएं, इच्छाएं, गुण होते हैं जो कि किसी लड़के में हो सकते हैं। सिमोन का बचपन सुखपूर्वक बीता, लेकिन बाद के वर्षो में उन्होंने अभावग्रस्त जीवन भी जिया। 15 वर्ष की आयु में सिमोन ने निर्णय ले लिया था कि वह एक लेखिका बनेंगी। उनके क्रांतिकारी लेखन ने यूरोप अमेरिका में स्त्री स्वतंत्रता आंदोलन की दिशा बदल कर रख दी। दुनिया की संसद और सरकारों में महिला की आज़ादी के नए विचार उनकी किताब से छन कर आने और सत्ता के गलियारों में छाने लगे।

दर्शनशास्त्र, राजनीति और सामाजिक मुद्दे उनके पसंदीदा विषय थे। दर्शन की पढ़ाई करने के लिए उन्होंने पैरिस विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया, जहां उनकी भेंट बुद्धिजीवी ज्यां पॉल सा‌र्त्र से हुई। बाद में यह बौद्धिक संबंध आजीवन चला। डा. प्रभा खेतान द्वारा उनकी किताब “द सेकंड सेक्स” का हिंदी अनुवाद “स्त्री उपेक्षिता” भी बहुत लोकप्रिय हुआ। 1970 में फ्रांस के स्त्री मुक्ति आंदोलन में सिमोन ने भागीदारी की। स्त्री-अधिकारों सहित तमाम सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर सिमोन की भागीदारी समय-समय पर होती रही। 1973 का समय उनके लिए परेशानियों भरा था। सा‌र्त्र दृष्टिहीन हो गए थे। 1980 में सा‌र्त्र का देहांत हो गया। 1985-86 में सिमोन का स्वास्थ्य भी बहुत गिर गया था। निमोनिया या फिर पल्मोनरी एडोमा में खराबी के चलते उनका देहांत हो गया। सा‌र्त्र की कब्र के बगल में ही उन्हें भी दफनाया गया। दोनों विवाह के बिना साथ रहे वे दुनिया के पहले सहनिवासी (living together) जोड़े थे जिनके उदाहरण हमारे महानगरों मे हम अब देख रहे हैं।

सार्त्र ऐसे महान दार्शनिक थे कि जिन्हें उनके महान दार्शनिक सिद्धांत अस्तित्ववाद के लिए नोबल पुरस्कार दिया गया था जिसे लेने से उन्होंने यह कहकर मना कर दिया था कि वे अपने व्यक्तित्व का संस्थाकरण नहीं करना चाहेंगे। तब नोबल समिति ने कहा था कि लोग यह पुरस्कार लेकर सम्मानित होते हैं परंतु वे यदि पुरस्कार ले लेते तो नोबल पुरस्कार पुरस्कृत होता।

द सेकेंड सेक्स (The Second Sex) सिमोन द बुआ द्वारा फ्रेंच में लिखी गई पुस्तक है जिसने स्त्री संबंधी धारणाओं और विमर्शों को गहरे तौर पर प्रभावित किया है। स्त्री समानता विचारधारा वाली सिमोन की यह पुस्तक नारी अस्तित्ववाद को प्रभावी तरीके से प्रस्तुत करती है। यह स्थापित करती है कि जो स्त्री जन्म लेती है उसका मौलिक रूप विकसित न होने देकर, उम्र बढ़ने के साथ भोग के लिए बनाई जाती है। उसके दिमाग़ को नैसर्गिक रूप से गढ़ते रहने के बजाय वह कई अवधारणा में बाँध दी जाती है। लड़की एक अनचाहे भ्रूण की तरह गर्भ में पलती है। उनकी यह व्याख्या हीगेल के सोच को ध्यान में रखकर स्वयं (self) से अलग “दूसरा” (the Other) की संकल्पना प्रदान करती है। जो बच्ची पैदा हुई वह “पहला” है उसके बाद उसे संस्कारों के नाम पर ज़ंजीरों में बांधा जाना “दूसरा” है।

उनकी इस संकल्पना के अनुसार, नारी को उसके जीवन में उसकी पसंद-नापसंद के अनुसार रहना और काम करने का हक़ होना चाहिए और वो पुरुष से समाज में आगे बढ़ सकती है। ऐसा करके वो स्थिरता से आगे बढ़कर श्रेष्ठता की ओर अपना जीवन आगे बढ़ा सकतीं हैं। ऐसा करने से नारी को उनके जीवन में कर्त्तव्य के चक्रव्यूह से निकल कर स्वतंत्र जीवन की ओर कदम बढ़ाने का हौसला मिलता हैं। यह एक ऐसी पुस्तक है, जो यूरोप के उन सामाजिक, राजनैतिक, व धार्मिक नियमो को चुनौती देती हैं, जिन्होंने नारी अस्तित्व एवं नारी प्रगति में हमेशा से बाधा डाली है और नारी जाति को पुरुषो से नीचे स्थान दिया हैं। अपनी इस पुस्तक में सिमोन ने पुरुषों के ढकोसलों से नारी जाति को पृथक कर उनके जीवन में नैसर्गिक सोच विकसित न करने की नीति के विषय में अपने विचार प्रदान किये हैं। इसका हिन्दी अनुवाद स्त्री उपेक्षिता नाम से राजपाल एंड संस से प्रकाशित हुआ है।

(श्री सुरेश पटवा जी की पुस्तक “स्त्री-पुरुष” से साभार)

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 98 ☆ भारतीय कार्पोरेट जगत की कुछ सुप्रसिद्ध महिलायें ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का महिला दिवस पर विशेष  आलेख  ‘भारतीय कार्पोरेट जगत की कुछ सुप्रसिद्ध महिलायें ’ इस सामयिकरचना के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 98☆

? भारतीय कार्पोरेट जगत की कुछ सुप्रसिद्ध महिलायें ?

क्या नही महिला करि सकै, क्या नहिं समुद्र समाय… सामान्यतः माना जाता है कि महिलाओ का कार्पोरेट जगत से भला क्या लेना देना. पर समय बदला है आज नई पीढ़ी की अनेक लड़कियां एम बी ए के सर्वोच्च संस्थानो में उच्च शिक्षा पा रही हैं. पिछली अधेड़ हो चली पीढ़ी में यद्यपि  पुरुषों का ही बोलबाला  है, किन्तु कुछ महिलाओ ने भी विभिन्न कंपनियो में शीर्ष स्थान अर्जित किया है. ऐसी ही कुछ महिलाओ के  में चंदा कोचर, “बायोकॉन” की संस्थापक, किरण मजूमदार शॉ, ब्रिटानिया की सीईओ विनीता बाली, पेप्सी की इंद्रा न्यूई आदि शामिल हैं। विनीता बाली को हाल में ईटी अवॉर्ड्स में बिजनेसवुमेन ऑफ द ईयर का खिताब मिला था। महिलाओ की शीर्ष कार्पोरेट पदो में भागीदारी के चलते, इस साल भारतीय उद्योग जगत की सर्वाधिक शक्तिशाली महिला सीईओ की सूची भी बनाई गई। इसमें शीर्ष तीन स्थानों पर चंदा कोचर, बायोकॉन किरण मजूमदार शॉ और एचएसबीसी की नैना लाल किदवई हैं। भारतीय कार्पोरेट जगत की  इन सुप्रसिद्ध  महिलाओ के विषय में जानना रोचक है.ये महिलायें  विभिन्न धर्म, भाषा भाषी, व देश के अलग अलग क्षेत्रो का प्रतिनिधित्व  करती ये महिलायें इस तथ्य की सूचक हैं कि आने वाले समय में समूचे भारत में कार्पोरेट जगत में महिलाओ की सशक्त भागीदारी सुनिश्चित है.यह तथ्य भी महत्वपूर्ण है कि इन महिलाओ ने कार्पोरेट जगत के अलग अलग सैक्टर जैसे बैंकिंग, मीडीया, बायोटेक्नालाजी,स्वास्थ्य  आदि विभिन्न क्षेत्रो में  अपनी योग्यता से सफलता के परचम लहराये हैं तथा नये कीर्तीमान बनाये हैं.  प्रेरणा हैं ये महिलायें नई पीढ़ी की लड़कियो और उनके माता पिता के लिये.

पेप्सी की अध्यक्ष इंद्रा कृष्णमूर्ति न्यूई 

पेप्सी मल्टीनेशनल सुप्रसिद्ध ब्रांड है जिसकी अध्यक्ष के रूप इंद्रा न्यूई ने विश्व स्तर पर ख्याति अर्जित की है. उन्हें फार्च्यून द्वारा घोषित ५० सशक्त महिलाओ की सूची में प्रथम  स्थान पर रखा गया है.इसी तरह फोर्ब्स द्वारा घोषित विश्व की १०० सशक्त महिलाओ की सूची में भी उन्हें ६ वें स्थान पर रखा गया है. वर्ष २००१ में उन्होने पेप्सी ज्वाइन की. उन्होंने कार्पोरेट जगत में पेप्सी के सुढ़ृड़  विकास  से अपनी पहचान बनाई. वे वर्ल्ड ईकानामिक फोरम, इंटरनेशनल रेस्क्यू फोरम, येल कार्पोरेशन आदि संस्थाओ से भी महत्वपूर्ण रूप में जुड़ी हुई हैं.

वर्ड बिजनेस स्कूल से पढ़ी पहली भारतीय महिला नैना लाल किदवई 

नैना लाल किदवई ने अपने कैरियर का प्रारंभ ए एन जेड ग्रिंडले से किया था मार्गेन स्टेनली, इन्वेस्टमेंट बोर्ड आफ इंडिया, एच एस बी सी आदि बैंकिंग व वित्तीय संस्थानो में उच्च पदो पर कार्यरत सुश्री नैना लाल किदवई को उद्योग व व्यापार में महत्वपूर्ण योगदान के लिये भारत सरकार ने पद्मश्री के सम्मान से विभूषित किया है.

एक सफल महिला उद्यमी,”बायोकॉन” की संस्थापक, किरण मजूमदार शॉ 

बायोकॉन की संस्थापक अध्यक्ष एवं प्रबंध निदेशक किरण मजूमदार शॉ को भारत सरकार के द्वारा जैव प्रौद्योगिकी के योगदान के लिए पद्मभूषण से सम्मानित किया गया है, उनकी कंपनी बायोकान जैव प्रौद्योगिकी, जैव दवाओ हेतु समाधान देने वाली कंपनी है.किरण मजूमदार ने १९७८ में इस कंपनी की स्थापना की थी.  यह  अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त जैव दवा कंपनी है.  मधुमेह  रोग पर इस कंपनी ने विशद अनुसंधान कये हैं.

भारत के सबसे बड़े मीडिया ग्रुप टाइम्स आफ इण्डिया की अध्यक्ष इंदू जैन 

वर्ष २००० में यूनाइटेड नेशन में विश्व शांति सम्मेलन को संबोधित करने का गौरव भारत के सबसे बड़े मीडिया ग्रुप टाइम्स आफ इण्डिया की अध्यक्ष इंदू जैन को मिला था. इंदु जैन स्वयं एक इंटरप्रेनर,  एक अध्यात्मवादी, एक शिक्षाशास्त्री, कला और संस्कृति की बड़ी पोषक तथा  एक मानवतावादी  है.

डाक्टर स्वाति पीरामल 

मुम्बई विश्वविद्यालय से मेडिकल की पढ़ाई के बाद स्वाती पीरामल ने इंडस्ट्रियल मेडिसिन में अध्ययन किया, हावर्ड विश्वविद्यालय से पब्लिक हैल्थ में मास्टर्स की योग्यता प्राप्त की. वे पीरामल लाइफ साइंसेज की वाइस चेयर परसन तथा पीरामल हैल्थ केयर लिमिटेड की निदेशक हैं. जन स्वास्थ्य के क्षेत्र में उनका उल्लेखनीय योगदान है.

मल्लिका श्रीनिवासन, निदेशक, ट्रैक्टर एंड फार्म इक्विपमेंट लिमिटेड 

८५ करोड़ के टर्नओवर को २९०० करोड़ वार्षिक के टर्न ओवर में बदलने वाली मल्लिका श्रीनिवासन, निदेशक, ट्रैक्टर एंड फार्म इक्विपमेंट लिमिटेड के रूप में सुप्रतिष्ठित महिला हैं. उन्होंने मद्रास विश्वविद्यालय से एम ए की शिक्षा ग्रहण की, फिरउन्होने बिजनेस मैनेजमैंट की उच्च शिक्षा हेतु पेननसेल्वेनिया विश्वविद्यालय के वार्टस्न स्कूल में दाखिला लिया. शिक्षा के बाद से वे TAFE के अपने पारिवारिक व्यवसाय को सम्भाल रही हैं.

सुलज्जा मोटवानी

कायनेटिक  मोटर कम्पनी की  मैनेजिंग डायरेक्टर सुलज्जा मोटवानी कायनेटिक फाइनेंस व कायनेटिक मार्केटिंग सर्विसेज की भी देखरेख कर रही हैं. वर्ष २००२ में उन्हें यंग एचीवर अवार्ड से सम्मानित किया जा चुका है. प्रसिद्ध समाचार पत्रिका इंडिया टुडे ने उन्हें फेस आफ द मिलेनियम तथा वर्ल्ड इकानामिक फोरम ने ग्लोबल लीडर आफ तुमारो जैसे सम्मानो से नवाजा है. पुणे से बीकाम की पढ़ाई के बाद उन्होने पिट्सबर्ग से एमबीए की शिक्षा ग्रहण की है

अपोलो हास्पिटल्स की मैनेगिंग डायरेक्टर प्रीथा रेड्डी 

मद्रास विश्वविद्यालय से कैमिस्ट्री  की पढ़ाई के बाद पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन की शिक्षा पूर्ण कर, एशिया की सबसे सबल हास्पिटल चेन अपोलो हास्पिटल्स की मैनेगिंग डायरेक्टर प्रीथा रेड्डी ने अपोलो ग्रुप को नये पायदान पर ला खड़ा किया है. उनके मार्गदर्शन में बोन मैरो ट्रांस्प्लांटेशन, कार्ड ब्लड ट्रांस्प्लांटेशन आदि के क्षेत्र में अपोलो हास्पिटल नित नये कीर्तिमान बनाकर जन स्वस्थ्य के महत्वपूर्ण कार्य कर रहा है व एशिया में नई पहचान बना सका है.

पार्क होटल चेन की चेयर परसन प्रिया पाल  

22 वर्ष की कम उम्र में ही अपने पिता का होटल व्यवसाय सम्भालने वाली प्रिया पाल के पिता सुरेन्द्र पाल की हत्या उल्फा उग्रवादियो के द्वारा कर दी गई थी, किन्तु अपने कौशल से प्रिया ने पार्क होटल चेन का सारा वर्तमान साम्राज्य स्थापित किया है. उन्हें यंग एंटरप्रेनर, पावरफुल बिजनेस वुमन, आदि सम्मान मिल चुके हैं.

अब बतलाइये कि ऐसी बेटियो पर कौन नाज न करेगा ?

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – महिला दिवस विशेष – भोर भई ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि – महिला दिवस विशेष – भोर भई ☆

सृजन तुम्हारा नहीं होता। दूसरे का सृजन परोसते हो। किसीका रचा फॉरवर्ड करते हो और फिर अपने लिए ‘लाइक्स’ की प्रतीक्षा करते हो। सुबह, दोपहर, शाम अनवरत प्रतीक्षा ‘लाइक्स’ की।

सुबह, दोपहर, शाम अनवरत, आजीवन तुम्हारे लिए विविध प्रकार का भोजन, कई तरह के व्यंजन बनाती हैं माँ, बहन या पत्नी। सृजन भी उनका, परिश्रम भी उनका। कभी ‘लाइक’ देते हो उन्हें, कहते हो कभी धन्यवाद?

जैसे तुम्हें ‘लाइक’ अच्छा लगता है, उन्हें भी अच्छा लगता है।

….याद रहेगा न?

? महिला दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ ?

©  संजय भारद्वाज

(भोर 5.09 बजे,4.8.2019)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 88 ☆ अंतिम नींद ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 88 ☆ अंतिम नींद ☆ 

दूसरे के जागने-सोने, खाने-पीने, उठने-बैठने, हँसने-बोलने, यहाँ तक की चुप रहने में भी मीन-मेख निकालना, आदमी को एक तरह का विकृत सुख देता है।तुलनात्मक रूप से एक भयंकर प्रयोग बता रहा हूँ, विचार करना।

रात को बिस्तर पर हो, आँखों में नींद गहराने लगे तो कल्पना करना कि इस लोक की यह अंतिम नींद है। सुबह नींद नहीं खुलने वाली।…यह विचार मत करना कि तुम्हारे कंधे क्या-क्या काम हैं। तुम नहीं उठोगे तो जगत का क्रियाकलाप कैसे बाधित होगा। जगत के दृश्य-अदृश्य असंख्य सजीवों में से एक हो तुम। तुम्हारा होना, तुम्हारे लिए महत्वपूर्ण हो सकता है पर जगत में तुम्हारी हैसियत दही में न दिखाई देनेवाले बैक्टीरिया से अधिक नहीं है। तुम नहीं उठोगे तो तुम्हारे सिवा किसी पर कोई दीर्घकालिक असर नहीं पड़ेगा।

तुम तो यह विचार करना कि क्या तुम्हारे होने से तुम्हारे सगे-सम्बंधी, तुम्हारे परिजन-कुटुंबीय, मित्र-परिचित, लेनदार-देनदार आनंदी और संतुष्ट हैं या नहीं। बिस्तर पर आने तक के समय का मन-ही-मन हिसाब करना। अपने शब्दों से किसी का मन दुखाया क्या, आचरण में सम्यकता का पालन हुआ क्या, लोभवश दूसरे के अधिकार का अतिक्रमण हुआ क्या, अहंकारवश ऊँच-नीच का भाव पनपा क्या..?… आदि-आदि..। हाँ आत्मा के आगे मन और आचरण को अनावृत्त कर अपने प्रश्नों की सूची तुम स्वयं तैयार कर सकते हो।

प्रश्नों की सूची टास्क नहीं है। प्रश्न तुम्हारे, उत्तर भी तुम्हारे। असली टास्क तो निष्कर्ष है। अपने उत्तर अपने ढंग व अपनी सुविधा से प्राप्त कर क्या तुम मुदित भाव से शांत और गहरी नींद लेने के लिए प्रस्तुत हो?

यदि हाँ तो यकीन मानना कि तुम इहलोक को पार कर गए हो।

सच बताना उठकर बैठ गए हो या निद्रा माई के आँचल में बेखटके सो रहे हो?

निष्कर्ष से अपनी स्थिति की मीमांसा स्वयं ही करना।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 77 – उजालों का उपहार ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  श्री सूबेदार पाण्डेय जी की एक रोचक एवं भावपूर्ण रचना  “उजालों का उपहार। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 77 ☆ उजालों का उपहार ☆

आंखें मानव को दी गई ईश्वरीय उपहार हैं। इनमें ज्योति के बिना जीवन सूना हो जाता है  और मानव बाहरी दुनिया देखने वंचित रहता है। इन आंखों को अलग-अलग नामों से जाना जाता है, जैसे आंख, नयन, अम्बक, अक्षि, चक्षु, चश्म, दृग, दीदा, नेत्र, लोचन, इक्षण, विलोचन आदि और ना कितने नाम।  इन आंखों के विषय में बहुत सारी रोचक जानकारी हमें हिंदी साहित्य, फिल्मी दुनिया तथा अध्यात्म जगत में अध्ययन के समय दृष्टिगोचर होती है। आइए इन से कुछ रोचक जानकारी प्राप्त करें।

अनेक फिल्मों के गीत हमें आंखों की भाव भंगिमा उपयोग तथा सौंदर्य बोध कराते हैं जैसे —

तेरी ? आंखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है,

ये उठे सुबह चले, ये झुके शाम ढ़ले,

मेरा जीना मेरा मरना इन्हीं पलकों के तले।

तो वहीं दूसरा उदाहरण देखें। नायिका कहती हैं–

इन आंखों की मस्ती के मस्ताने हजारों हैं।

तो वहीं एक उदाहरण और प्रस्तुत है जब नायिका अंखियों के झरोखों से झांकने की बात करती है–

अंखियों के झरोखों से, तूने देखा जो झांक के, मुझे तूं नजर आये, बड़ी दूर नज़र आये।

वहीं कोई नायक गा उठता है — आंख मारे इक लड़की आंख मारें।

वहीं पर कोई नायक अपनी आंखों से नेत्रहीन नायिका के नैनों के दीप जलाने अर्थात् अपनी आंखों से दुनियां दिखाने का भरोसा दिलाने का उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करता है।

तेरे नैनों के मैं दीप जलाऊंगा,

अपनी आंखों से दुनियां दिखलाऊंगा।

तो इन्हीं भावों को समेटे बिहारी जी अपने दोहों में नेत्रकोणों की उपयोगिता दर्शाते हुए कहते हैं —

बतरस लालच लाल की, मुरली धरी लुकाय।

सौह कहै भौहनि हंसै, देन कहै नटि जाय।

में नायिका की शरारत भरी कुटिलता दर्शाती है तो उनका दूसरा उदाहरण जो आंखों में छुपे भावों को दर्शाता है जैसे —

अमिय हलाहल मद भरे,

श्वेत श्याम रतनार।

जियत मरत झुकि झुकि परत,

जेहि चितवत इक बार।।

तो वहीं पर आंखों के सौंदर्य बोध से प्रभावित तमाम साहित्यकारों ने पशु पक्षियों, पुष्पों की पंखुड़ियों से आंखों की उपमा दी है जैसे — मृगनयनी, मृगलोचनि, खंजनलोचनी, तो वहीं पर भगवान के नेत्रों के लिए कमलनयन, त्रिलोचन शब्दों की उपमा दी गई है। कमलवत नयन जहां आंखों का सौंदर्य बोध करता है वही शिव का तीसरा नेत्र क्रोध को प्रर्दशित करता है। जैसे —

तब शिव तीसर नेत्र उघारा,

चितवत काम भयउ जरि छारा।।

वहीं पर नेत्रहीनों का अंतर्नेत्र या अंतरचक्षु आत्मज्ञान  की महत्ता दर्शाता है।

वहीं कोई उर्दू भाषी उर्दू जुबान बोलने वाला आंखों की शान में चंद लब्ज बोलता है कि —

नजर ऊंची कर ली, दुआ बन गई,

नजर नीची कर ली, हया(शर्म) बन गई।

नजर तिरछी कर ली कज़ा बन गई।

तो वहीं हिंदी साहित्य में आंखों को संबोधित तमाम मुहावरों का भी खूब खुल कर प्रयोग हुआ हैं, जैसे आंखें मारना, इशारो में संकेत देना, आंखों से गिर जाना – मर्यादा खो देना, आंखों का तारा बनना – चहेता बन जाना, आंख कान खुला रखना – सतर्क रहना आदि।

वहीं पर भगवान की बाल लीलाओं में भी आंखों से देखने का प्रभाव उनके मानस पर उनकी भाव-भंगिमाओं मे दीखता है, जैसे –

कबहूं शशि मांगत रारि करैं,

कबहूं प्रतिबिंब निहारि डरैं।

कबहूं करतारि बजाई के नाचैं,

मातु सबै मन मोद भरैं।

कोई भक्त भी पुकारता दिख जाता है — अंखियां हरि दर्शन की प्यासी।

इस प्रकार हमारे जीवन में आंखें महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती रही है।

मृत्यु के पश्चात हम अपनी तथा परिजनों का नेत्रदान संपन्न करा कर किसी की जिंदगी को उजालों का उपहार दे सकते हैं।

#सर्वेभवन्तु सुखिन: के साथ #

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 85 ☆ अहं बनाम अहमियत ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय  आलेख अहं बनाम अहमियत।  यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 85 ☆

☆ अहं बनाम अहमियत ☆

अहं जिनमें कम होता है, अहमियत उनकी ज़्यादा होती है… यह उक्ति कोटिशः सत्य है। जहां अहं है, वहां स्वीकार्यता नहीं; केवल स्वयं का गुणगान होता है; जिसके वश में होकर इंसान केवल बोलता है; अपनी-अपनी हाँकता है; सुनने का प्रयास ही नहीं करता, क्योंकि उसमें सर्वश्रेष्ठता का भाव हावी रहता है। सो! वह अपने सम्मुख किसी के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करता। इसका मुख्य उदाहरण हैं… भारतीय समाज के पुरुष, जो पति रूप में पत्नी को स्वयं से हेय व दोयम दर्जे का समझते हैं और वे केवल फुंफकारना जानते हैं। बात-बात पर टीका-टिप्पणी करना तथा दूसरे को नीचा दिखाने का एक भी अवसर हाथ से न जाने देना… उनके जीवन का मक़सद होता है। चंद रटे-रटाये वाक्य उनकी विद्वता का आधार होते हैं; जिनका वे किसी भी अवसर पर नि:संकोच प्रयोग कर सकते हैं। वैसे अवसरानुकूलता का उनकी दृष्टि में महत्व होता ही नहीं, क्योंकि वे केवल बोलने के लिए बोलते हैं और निष्प्रयोजन व ऊलज़लूल बोलना उनकी फ़ितरत होती है। उनके सम्मुख छोटे-बड़े का कोई मापदंड नहीं होता, क्योंकि वे अपने से बड़ा किसी को समझते ही नहीं।

हां! अपने अहं के कारण वे घर-परिवार व समाज में अपनी अहमियत खो बैठते हैं। वास्तव में वाक्-पटुता व्यक्ति-विशेष का गुण होती है। परंतु आवश्यकता से अधिक किसी भी वस्तु का सेवन हानिकारक होता है। अधिक नमक के प्रयोग से उच्च रक्तचाप व चीनी के प्रयोग से मधुमेह का रोग हो जाता है। वैसे दोनों ला-इलाज रोग हैं। एक बार इनके चंगुल में फंसने के पश्चात् मानव इनसे आजीवन मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकता। उसे तमाम उम्र दवाओं का सेवन करना पड़ता है और वे अदृश्य शत्रु कभी भी उस पर किसी भी रूप में घातक प्रहार कर जानलेवा साबित हो सकते हैं। इसलिए मानव को सदैव अपनी जड़ों से जुड़ाव रखना चाहिए और कभी भी बढ़-चढ़ कर नहीं बोलना चाहिए। यदि मानव में विनम्रता का भाव होगा, तो वे बे-सिर-पैर की बातों में नहीं उलझेंगे और मौन को अपना साथी बना यथासमय, यथास्थिति कम से कम शब्दों में अपने मनोभावों की अभिव्यक्ति करेंगे। बाज़ारवाद का भी यही सिद्धांत है कि जिस वस्तु का अभाव होता है, उसकी मांग अधिक होती है। लोग उसके पीछे बेतहाशा भागते हैं और उसकी उपलब्धि को मान-सम्मान का प्रतीक स्वीकार लेते हैं। इसलिए उसे प्राप्त करना उनके लिए स्टेट्स-सिंबल ही नहीं; उनके जीवन का मक़सद बन जाता है।

आइए! मौन का अभ्यास करें, क्योंकि वह नव- निधियों की खान है। सो! मानव को अपना मुंह तभी खोलना चाहिए, जब उसे लगे कि उसके शब्द मौन से बेहतर हैं, सर्वहितकारी हैं, अन्यथा मौन रहना ही श्रेयस्कर है। मुझे स्मरण हो रहा है रहीम जी का दोहा ‘ऐसी वाणी बोलिए, मनवा शीतल होय/ औरन को शीतल करे, खुद भी शीतल होय’ में वे शब्दों की महत्ता व सार्थकता पर दृष्टिपात करते हुए, उनके उचित समय पर प्रयोग करने का सुझाव देते हैं। यह कहावत भी प्रसिद्ध है ‘एक चुप, सौ सुख’ अर्थात् जब तक मूर्ख चुप रहता है, उसकी मूर्खता प्रकट नहीं होती और लोग उसे बुद्धिमान समझते हैं। सो! हमारी वाणी व हमारे शब्द हमारे व्यक्तित्व का आईना होते हैं। इसलिए केवल शब्द ही नहीं, उनकी अभिव्यक्ति की शैली भी उतनी ही अहमियत रखती है। हमारे बोलने का अंदाज़ इसमें महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। परंतु यदि आप मौन रहते हैं, तो समस्त सांसारिक बंधनों से मुक्त रहते हैं। इसलिए संवाद जहां हमारी जीवन-रेखा है; विवाद संबंधों में विराम अर्थात् विवाद शाश्वत संबंधों में सेंध लगाता है तथा उस स्थिति में मानव को उचित-अनुचित का लेशमात्र भी ध्यान नहीं रहता। अहंनिष्ठ मानव केवल प्रत्युत्तर व ऊल-ज़लूल बोलने में विश्वास करता है। इसलिए विवाद उत्पन्न होने की स्थिति में मानव के लिए चुप रहना ही कारग़र होता है। इन विषम परिस्थितियों में जो मौन रहता है, उसकी अहमियत बनी रहती है, क्योंकि गुणी व्यक्ति मौन रहने में ही बार-बार गौरवानुभूति करता है। अज्ञानी तो वृथा बोलने में अपनी महत्ता स्वीकार फूला नहीं समाता । परंतु विद्वान व्यक्ति मूर्खों के बीच बोलने का अर्थ समझता है; जो भैंस के सामने बीन बजाने के समान होती है। ऐसे मूर्ख लोगों का अहं उन्हें मौन नहीं रहने देता और वे प्रतिपक्ष को नीचा दिखाने के लिए बढ़-चढ़ कर शेखी बखानते हैं।

सो! जीवन में अहमियत के महत्व को जानना अत्यंत आवश्यक है। अहमियत से तात्पर्य है, दूसरे लोगों द्वारा आपके प्रति स्वीकार्यता भाव अर्थात् जहां आपको अपना परिचय न देना पड़े तथा आप के पहुंचने से पहले लोग आपके व्यक्तित्व व कार्य-व्यवहार से परिचित हो जाएं। कुछ लोग किस्मत में दुआ की तरह होते हैं, जो तक़दीर से मिलते हैं। ऐसे लोगों की संगति से ज़िंदगी बदल जाती है। कुछ लोग किस्मत की तरह होते हैं, जो हमें दुआ के रूप में मिलते हैं। ऐसे लोगों की संगति प्राप्त होने से मानव की तक़दीर बदल जाती है और लोग उनकी संगति पाकर स्वयं को धन्य समझते हैं।

‘रिश्ते वे होते हैं/ जिनमें शब्द कम, समझ ज़्यादा हो/ तकरार कम, प्यार ज़्यादा हो/ आशा कम, विश्वास ज़्यादा हो’…यह केवल बुद्धिमान लोगों की संगति से प्राप्त हो सकता है, क्योंकि वहां शब्दों का बाहुल्य नहीं होता है, सार्थकता होती है। तकरार व उम्मीद नहीं, प्यार व विश्वास होता है। ऐसे लोग जीवन में वरदान की तरह होते हैं; जो सबके लिए शुभ व कल्याणकारी होते हैं। इसी संदर्भ में मैं कहना चाहूंगी कि ‘मित्र, पुस्तक, रास्ता व विचार यदि ग़लत हों, तो जीवन को गुमराह कर देते हैं और सही हों, तो जीवन बना देते हैं।’ वैसे सफल जीवन के चार सूत्र हैं… ‘मेहनत करें, तो धन बने/ मीठा बोलें, तो पहचान/ इज़्ज़त करें, तो नाम/ सब्र करें, तो काम।’ दूसरे शब्दों में अच्छे मित्र, सत्-साहित्य, उचित मार्ग व अच्छी सोच हमें उन्नति के शिखर पर पहुंचा देती है, वहीं इसके विपरीत हमें सदैव पराजय का मुख देखना पड़ता है। इसलिए कहा जाता है कि परिश्रम, मधुर वाणी, पर-सम्मान व सब्र अर्थात् धैर्य रखने से मानव अपनी मंज़िल पर पहुंच जाता है। इसलिए सकारात्मक बने रहिए, अहंनिष्ठता का त्याग कीजिए, मधुर वाणी बोलिए व सबका सम्मान कीजिए। ये वे श्रेष्ठ साधन हैं, जो हमें अपनी मंज़िल तक पहुंचाने में सोपान का कार्य करते हैं। सो! सुख अहं की परीक्षा लेता है और दु:ख धैर्य की… दोनों स्थितियों में उत्तीर्ण होने वाले का जीवन सफल होता है। इसलिए सुख में अहं को अपने निकट न आने दें और दु:ख में धैर्य बनाए रखें… यह ही है आपके जीवन की पराकाष्ठा।

परंतु घर-परिवार में यदि पुरुष अर्थात् पति, पिता व पुत्र अहंनिष्ठ हों, अपने-अपने राग अलापते हों और एक-दूसरे के अस्तित्व को नकारना, अपमानित व प्रताड़ित करना, उनके जीवन का एकमात्र उद्देश्य हो, तो सामंजस्यता स्थापित करना कठिन हो जाता है। जहां पति हर-पल यही राग अलापता रहे कि ‘मैं पति हूं, तुम मेरी इज़्ज़त नहीं करती, अपनी-अपनी हांकती रहती हो। इतना ही नहीं, जहां हर पल उसे नीचा दिखाने का उपक्रम अर्थात् हर संभव प्रयास किया जाए; वहां शांति कैसे निवास कर सकती है? पति-पत्नी का संबंध समानता के आधार पर आश्रित है। यदि वे दोनों एक-दूसरे की अहमियत को स्वीकारेंगे, तो ही जीवन रूपी गाड़ी सुचारू रूप से आगे बढ़ सकेगी, वरना तलाक़ व अलगाव की गणना में निरंतर इज़ाफा होता रहेगा। हमें संविधान की मान्यताओं को स्वीकारना होगा, क्योंकि कर्त्तव्य व अधिकार अन्योन्याश्रित हैं। यदि अहमियत की दरक़ार है, तो अहं का त्याग करना होगा; दूसरे के महत्व को स्वीकारना होगा, अन्यथा प्रतिदिन ज्वालामुखी फूटते रहेंगे और इन असामान्य परिस्थितियों में मानव का सर्वांगीण विकास संभव नहीं होगा। जीवन में जितना आप देते हैं, वही लौटकर आपके पास आता है। सो! देना सीखिए तथा प्रतिदान की अपेक्षा मत रखिए। ‘जो तोको कांटा बुवै, तू बुवै ताहि फूल’ के सिद्धांत को जीवन में धारण करें। यदि आप किसी के लिए फूल बोएंगे, तो आपको फूल मिलेंगे, अन्यथा कांटे ही प्राप्त होंगे। जीवन में यदि ‘अपने लिए जिए, तो क्या जिए/ ऐ दिल तू जी ज़माने में, किसी के लिए’ अर्थात् ‘स्वार्थ का त्याग कर, सबका मंगल होय’ की कामना से जीना प्रारंभ कीजिए। अहं रूपी शत्रु को जीवन में पदार्पण न करने दीजिए ताकि अहमियत अथवा सर्व-स्वीकार्यता बनी रहे। ‘रिश्ते कभी कमज़ोर नहीं होने चाहिएं। यदि एक खामोश है, तो दूसरे को आवाज़ देनी चाहिए।’ दूसरे शब्दों में संवाद की स्थिति सदैव बनी रहे, क्योंकि इसके अभाव में रिश्तों की असामयिक मौत हो जाती है। इसलिए हमें अहंनिष्ठ व्यक्ति के साये से भी दूर रहना चाहिए, क्योंकि विनम्रता मानव का सर्वश्रेष्ठ आभूषण तथा अनमोल पूंजी है। इसे जीवन में धारण कीजिए ताकि जीवन रूपी गाड़ी सामान्य गति से निरंतर आगे बढ़ती रहे।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 37 ☆ कोरोना काल की बेवकूफियों भरे जुमले ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख  “कोरोना काल की बेवकूफियों भरे जुमले ”.)

☆ किसलय की कलम से # 37 ☆

☆ कोरोना काल की बेवकूफियों भरे जुमले ☆

कोविड के चलते फेसबुक एवं व्हाट्सएप पर जितने चुटकुले व्यंग्य अथवा कार्टून सामने आ रहे हैं उन्हें देख-देख कर भारतीय लोगों की बेवकूफी पर जितना आश्चर्य होता है, उससे कहीं अधिक अब रोना आता है कि इतनी गंभीर और संक्रामक बीमारी में जहां संयमित व्यवहार करना चाहिए, हम इसके ठीक विपरीत कोरोना को एक मजाक बना कर रख दिया है। हम देख भी रहे हैं कि जिस तरह बिजली का करंट किसी के साथ कोई भेदभाव नहीं करता, ठीक उसी तरह वर्तमान में कोरोना भी अपने सामने पड़ने वाले किसी भी इंसान को नहीं छोड़ रहा है। अच्छा हो बुरा हो, मोटा हो पतला हो, धनी हो गरीब हो छोटा हो बड़ा हो अथवा स्त्री-पुरुष कोई भी हो, किसी पर रहम नहीं कर रहा। बेचारे सिक्सटी प्लस एवं एट्टी प्लस वाले तो ‘घर-घुसे’ लोग बन गए हैं। डायबिटीज, हृदयरोग अथवा फेफड़ों की बीमारी वालों के लिए तो दुबले और दो आषाढ़ वाली कहावत फिट बैठ रही है। जब कोई इन दिनों मुझे योग की सलाह देता है तो मुझे वह …. रामदेव बाबा बरबस याद हो उठता है, जो कहा करता है कि योग से सभी रोग दूर भाग जाते हैं। यदि ऐसा होता तो वह दवाईयों का अरबों-खरबों का व्यापार शुरू कर लोगों को क्यों ठगता। वैसे अब सभी बाबाओं की पोलें खुल चुकी हैं। जिनके नाम सामने आए हों अथवा ना आए हों । अब तो सभी एक ही थैली के चट्टे बट्टे लगने लगे हैं। एक-एक करके डॉक्टर्स, नीम हकीम, शासन, सेलिब्रिटीज और मीडिया पर अपने संस्मरण, सलाह और सतर्क करने वाले विशेषज्ञों के तथाकथित इतने बाप पैदा हो गए हैं, और होते जा रहे हैं, जैसे पतझड़ में पेड़ों से झड़कर गिरे पत्तों की बहुलता होती है। मुझे तो लगता है कि इन्हें भी उन्हीं पत्तों के समान इकट्ठा कर आग के हवाले कर दिया जाए। ये रोग विशेषज्ञों के बाप ऐसा ऐसा ज्ञान बघारते हैं जैसे कि ये किसी दूसरी दुनिया से कोरोना विषय पर पीएचडी कर के आए हों। कोई कहता है पेट के बल बिस्तर पर लेटने से ऑक्सीजन फेफड़ों में ज्यादा पहुँचती है, क्योंकि फेफड़े पीछे की ओर होते हैं। तब दूसरा डॉक्टर कहता है कि पेट के बल लेटने से हृदयाघात की संभावना ज्यादा बढ़ जाती है। किसी ने कहा हर 20-25 मिनट में हाथ धोते रहें। तो इन सलाहकारों को कौन समझाए कि भाई बार-बार हाथ धोने से उपयोग में लाए जा रहे केमिकल हाथों में फफोलों के साथ साथ अन्य बीमारी भी पैदा कर सकते हैं। इस तरह लोगों में इतना भय भर दिया गया है कि अधिकतर लोग बीमारी से कम घबराहट से ज्यादा मर रहे हैं। कोई बिल्डिंग से छलांग लगा देता है और कोई कोरोना के डर से किसी और तरह अपनी जान गवाँ रहा है। हम तो कहते हैं कि अब समय आ गया है जब लॉकडाउन के स्थान पर फेसबुक, व्हाट्सएप तथा भय और भ्रम फैलाने वाले टी वी चैनलों को कुछ समय के लिए प्रतिबंधित कर दिया जाए, तो लोगों का आधे से ज्यादा भय भाग जाएगा और यह सब रोज पढ़ सुनकर चिंतित होने का मामला ही खत्म हो जाएगा। आज भी देखा गया है कि हमें सुबह शाम तफरी करने जाना ही है। हफ्ते भर के बजाए रोज सब्जी लेने भीड़ में घुसना ही है। इसी तरह आवश्यक न होने पर भी दोस्तों के साथ बैठना, किसी की शव यात्रा में जाना, विवाह और अन्य समारोहों में जाने में फर्ज को बीच में ले आते रहना, साथ ही स्वयं को अमरत्व प्राप्त इंसान मान लेना बेवकूफी से कम नजर नहीं आता। ऐसे लोग खुद तो संक्रमित होते ही हैं अपने घर और पास-पड़ोस वालों की भी मृत्यु का कारण बन जाते हैं। हमारे एक मित्र कहा करते हैं कि अब कलयुग में पाप ज्यादा बढ़ गए हैं, इसलिए पापियों को मृत्यु लोक से ले जाने के लिए कोरोना वायरस के रूप में स्वयं यमराज पृथ्वी पर आ गए हैं। दूसरे मित्र ने तो यहाँ तक कह दिया है कि-

यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।

अर्थात जब वर्तमान में धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि दिखाई देने लगी तब ईश्वर को किसी न किसी रूप में तो आना ही था। अब आप ही बताएँ हम किस-किस का मुँह बंद करें। यदि कुछ ज्यादा बोल दिया तो उल्टा वह हमारा ही सदा सदा के लिए मुँह बंद कर देगा। कोरोना तो बाद में आएगा।

इस महामारी के चलते यदि गंभीरता, सक्रियता, संवेदनशीलता और संकल्पित होना सीखना है तो हमें चीन से सीखना चाहिए जहाँ के वोहान से करोना विश्व में फैला है इस देश में अब तक 5000 लोगों की जानें गई हैं। वहीं भारत में अब तक डेढ़ लाख से ज्यादा लोग मर चुके हैं। मुझे लगता है कि हम यदि ऐसी ऊपर कही गई कोरी बकवास और चुटकुले बाजी से बचते। अपने साथ साथ दूसरों को सुरक्षित रखने में योगदान देते तो शायद भारत की यह भयावह स्थिति न होती, लेकिन भारतीय हैं कि किसी की मानते कहाँ है। मास्क पहनना शान के खिलाफ होता है। मंदिरों में हाथों पर अल्कोहल (सैनिटाइजर) लगाकर भला कैसे जा सकते हैं, हमारे प्रभु हमें श्राप दे देंगे। अपनों से बड़ों के पास जाकर उनके पैर छूना ही है। 4 दिन दवाईयाँ खा कर खुद डॉक्टर बन जाते हैं और सर्टिफिकेट समझ लेते हैं कि अब हमें कुछ होगा ही नहीं।

लो भैया ऐसे ही सर्टिफिकेट जारी करते रहो और पहले एक लाख, फिर दो लाख और फिर न जाने कितने लोगों की जानें गवाँ के हम होश में आएँगे या फिर खुद भी अपनी जान गवाँ के चिता पर चैन पाएँगे।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ कोरोना का टीकाकरण अब वरिष्ठ नागरिकों के लिए ☆ श्री अजीत सिंह, पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन

श्री अजीत सिंह


(हमारे आग्रह पर श्री अजीत सिंह जी (पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन) हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए विचारणीय आलेख, वार्ताएं, संस्मरण साझा करते रहते हैं।  इसके लिए हम उनके हृदय से आभारी हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक  प्रेरक संस्मरण  ‘कोरोना का टीकाकरण अब वरिष्ठ नागरिकों के लिए’। हम आपसे आपके अनुभवी कलम से ऐसे ही आलेख समय समय पर साझा करते रहेंगे।)

कोरोना टीकाकरण – ‘लग भी गया, पता भी नहीं चला’

☆ आलेख ☆ कोरोना का टीकाकरण अब वरिष्ठ नागरिकों के लिए ☆ श्री अजीत सिंह, पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन ☆

सोमवार पहली मार्च को दिन में एक बजकर नौ मिनट पर मुझे व मेरी पत्नी सुमित्रा जी के नाम फोन पर दो एसएमएस मेसेज आए जिनमें हमें कोरोना का टीका लगवाने के लिए मुबारकबाद दी गई थी। टीका लगाने वाली सिस्टर नर्स मंजीत का फोन नंबर दिया गया था कि अगर  दवा का कोई दुष्प्रभाव हो तो उनसे संपर्क किया जा सकता है।

कोई आधा घंटे पहले ही हमने टीका लगवाया था। टीका लग गया तो पता भी नहीं चला कि लग चुका है। इसके बाद आधा घंटा वहीं पर बिठाया गया और फिर दो गोलियां दे कर हमारी छुट्टी कर दी गई। कहा, बुखार वगैरा हो तो इन्हे ले लेना।

वहीं बैठे एक दंपति से हमारी बात हुई तो उन्होंने बताया कि पहले टीके के बाद उन्हे दो दिन हल्का बुखार हुआ था, फिर सब कुछ ठीक रहा। हमें अगले 24 घंटे बाद भी ये गोलियां लेने की ज़रूरत ही महसूस नहीं हुई।

साफ सुथरे एक कमरे में तीन नर्स , एक डॉक्टर व कई युवा हाथ में स्मार्ट फोन लिए फुर्ती से काम कर रहे हैं। बड़ी समस्या रजिस्ट्रेशन की है। अस्पताल के गेट के पास दाईं तरफ जहां आयुष्मान भारत के मरीजों के लिए काउंटर बना है, वहीं पर कोरोना टीके का रजिस्ट्रेशन होता है। सब सलीके से हो रहा है।

टीकाकरण केंद्र में उपस्थित डॉ सुनील सोखल व अन्य से हमने यह जानने को कौशिश की कि लोग टीका लगवाने से क्यूं झिझकते हैं, पर किसी के पास कोई सही उत्तर न था। एक ग्रामीण दंपति ने आकर हमसे पूछा कि आंखों का डॉक्टर कहां बैठता है। जब हमने कहा कि यहां तो कोरोना का टीका लगता है, तो वे एक दम जल्दी से पीछे मुड़ गए। कोरोना का ज़िक्र हो तो आदमी को करंट से लगता है। इतना डरते हैं कि टीका लगवाने के लिए किसी भीड़ वाली जगह भी जाना नहीं चाहते।

मैंने फोन कर गांव में जब 72 वर्षीय छोटे भाई जगबीर को टीका लगवाने की सलाह दी तो कहने लगे, गांव में किसी को कोरोना नहीं हुआ। यह नरम लोगों की बीमारी है। देखो, यह न तो किसानों को होती है, न मजदूरों को। ये अमरीका वाले भी नरम आदमी हैं, पसीने का काम नहीं करते। इसलिए ज़्यादा मर रहे हैं। भाई जगबीर की बातों में तर्क तो लगता है, पर मामले तो गावों में भी होने लगे हैं। सावधानी बेहतर रहेगी। टीका लगवाना चाहिए। हिसार अग्रसेन कॉलोनी के हमारे पड़ोस में तीन व्यक्ति कोरोना से मरे। दस बारह बीमार हुए पर ठीक हो गए। परेशानी उन्हें भी खूब हुई।

न लगवाने से बेहतर है, लगवा लिया जाए। सावधानी में ही सुरक्षा है।

वेक्सिन के तीसरे चरण में 60 साल से ऊपर आयु के वरिष्ठ नागरिकों  को टीके लगाए जाने का अभियान पहली मार्च सोमवार को शुरू हुआ। हमने सुबह नौ बजे रजिस्ट्रेशन खुलते ही ऑनलाइन अपना व पत्नी सुमित्राजी का नाम लिखवा दिया। साढ़े 11 बजे सिविल अस्पताल पहुंचे तो वहां कुछ ही व्यक्ति टीका लगवाने पहुंचे थे। इनमें अधिकतर पहले व दूसरे चरण में पहला टीका लगवा चुके स्वास्थ्य व पुलिस विभाग के  कर्मी थे जो दूसरा टीका लगवाने आए थे।

हम डेढ़ बजे घर लौट आए।

बेहतर है एक दिन पहले ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन करवा कर जाएं। वैसे अस्पताल में जाकर भी रजिस्ट्रेशन करा सकते हैं। आधार कार्ड साथ अवश्य ले जाएं।

पहला दिन, पहला शो’, साठ के दशक में स्कूल व कॉलेज के जवानी के दिनों में यह कहावत किसी नई फिल्म के देखने को लेकर कही जाती थी। अब 75 साल की उम्र में हमने ऐसा ही कुछ कोरोना की वैक्सीन को लेकर किया।

बुजुर्गों को टीका अवश्य लगवाएं। उन्हे कोरोना का सबसे ज़्यादा खतरा है। अच्छी व्यवस्था है। कोई परेशानी नहीं होगी।

©  श्री अजीत सिंह

पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन

संपर्क: 9466647037

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 97 ☆ व्यंग्य – अपनी अपनी सुरंगो में कैद ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  समसामयिक विषय पर आधारित एक  बेहद सार्थक रचना   ‘अपनी अपनी सुरंगो में कैद ’ इस सार्थक सामयिक एवं विचारणीय  रचना के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 97☆

? अपनी अपनी सुरंगो में कैद ?

उत्तराखंड त्रासदी में बिजलीघर की सुरंगों में ग्लेशियर टूटने से हुए अनायास जलप्लावन से अनेक मजदूर फंस गए ।

थाईलैंड में थाम लुआंग गुफा की सुरंगों में फंसे बच्चे और उनका कोच सकुशल निकाल लिये गये थे. सारी दुनिया ने राहत की सांस ली.हम एक बार फिर अपनी विरासत पर गर्व कर सकते हैं क्योकि थाइलैंड ने विपदा की इस घड़ी में न केवल भारत के नैतिक समर्थन के लिये आभार व्यक्त किया है वरन कहा है कि बच्चो के कोच का आध्यात्मिक ज्ञान और ध्यान लगाने की क्षमता जिससे उसने अंधेरी गुफा में बच्चो को हिम्मत बधाई , भारत की ही देन है.अब तो योग को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता मिल चुकी है और हम अपने पुरखो की साख का इनकैशमेंट जारी रख सकते हैं.  इस तरह की दुर्घटना से यह भी समझ आता है कि जब तक मानवता जिंदा है कट्टर दुश्मन देश भी विपदा के पलो में एक साथ आ जाते हैं. ठीक वैसे ही जैसे बचपन में माँ की डांट के डर से हम बच्चों में एका हो जाता था या वर्तमान परिदृश्य में सारे विपक्षी एक साथ चुनाव लड़ने के मनसूबे बनाते दिखते हैं.

वैसे किशोर बच्चो की थाईलैंड की फुटबाल टीम बहुत भाग्यशाली थी, जिसे बचाने के लिये सारी दुनिया के समग्र प्रयास सफल रहे.वरना हम आप सभी तो किसी न किसी गुफा में भटके हुये कैद हैं. कोई धर्म की गुफा में गुमशुदा है.सार्वजनिक धार्मिक प्रतीको और महानायको का अपहरण हो रहा है.छोटी छोटी गुफाओ में भटकती अंधी भीड़ व्यंग्य के इशारे तक समझने को तैयार नही हैं.  कोई स्वार्थ की राजनीति की सुरंग में भटका हुआ है. कोई रुपयो के जंगल में उलझा बटोरने में लगा है तो कोई नाम सम्मान के पहाड़ो में खुदाई करके पता नही क्या पा लेना चाहता है ? महानगरो में हमने अपने चारो ओर झूठी व्यस्तता का एक आवरण बना लिया है और स्वनिर्मित इस कृत्रिम गुफा में खुद को कैद कर लिया है. भारत के मौलिक ग्राम्य अंचल में भी संतोष की जगह हर ओर प्रतिस्पर्धा , और कुछ और पाने की होड़ सी लगी दिखती है , जिसके लिये मजदूरो , किसानो ने स्वयं को राजनेताओ के वादो ,आश्वासनो, वोट की राजनीति के तंबू में समेट कर अपने स्व को गुमा दिया है. बच्चो को हम इतना प्रतिस्पर्धी प्रतियोगी वातावरण दे रहे हैं कि वे कथित नालेज वर्ल्ड में ऐसे गुम हैं कि माता पिता तक से बहुत दूर चले गये हैं. हम प्राकृतिक गुफाओ में विचरण का आनंद ही भूल चुके हैं.

मेरी तो यही कामना है कि हम सब को प्रकाश पुंज की ओर जाता स्पष्ट मार्ग मिले, कोई गोताखोर हमारा भी मार्ग प्रशस्त कर हमें हमारी अंधेरी सुरंगो से बाहर खींच कर निकाल ले

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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