हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 21 – महंगाई भगाओ अभियान ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना महंगाई भगाओ अभियान।)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 21 – महंगाई भगाओ अभियान ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

गजबपुरिया देश की सरकार महंगाई जैसी महामारी से त्रस्त थी। उन्होंने कटौती स्थली के मस्तकलाल देश की सरकार से मदद मांगी। मस्तकलाल देश का हाल तो वही है, जहाँ तोंद बाहर निकाले बाबाओं और पुजारियों की एक टीम हर काम की एक्सपर्ट होती है। गजबपुरिया सरकार ने लिखा, “हमने सुना है कि आपके यहाँ टोटके और तंत्र-मंत्र से महामारी भगाई जाती है। हमारे यहाँ मौत का आँकड़ा आपके देश की धार्मिक किताबों में दी गई कहानियों जितना बढ़ रहा है। हमारा धैर्य आपके देश की लोकतंत्र जितना कम हो गया है।”

मस्तकलाल देश की सरकार ने मदद देने की हामी भर दी। वहां के बाबा और तांत्रिकों की टीम ने अपनी ‘धार्मिक दवाइयों’ के बंडल तैयार करने का आदेश दिया। ये दवाइयाँ गंगा जल, गोबर, गोमूत्र और कुछ विशेष मंत्रों से बनाई गई थीं। जैसे ही इन दवाइयों को पता चला कि इन्हें गजबपुरिया भेजा जाना है, वे सारे बंडल से भागने लगे। एक नेत्री ने कहा, “हमें वहाँ क्यों भेजा जा रहा है? हम तो यहीं की जनता का मानसिक शोषण करने में व्यस्त थे।”

बाबा लोग तो पहले ही किसी घने जंगल में अपनी कुटिया बनाकर गायब हो गए थे। दवाइयों के थोक और फुटकर विक्रेताओं ने भी अपनी-अपनी दुकानें बंद कर ली और भूमिगत हो गए। आखिरकार, मस्तकलाल सरकार ने सख्ती से इन्हें पकड़ा और बंडल में पैक किया।

एक अधिकारी ने पूछा, “यहां क्या चल रहा है?” एक साधु ने उत्तर दिया, “हम देख रहे हैं कि हम अपनी दवाइयों से दूसरे देश में भी हमारा उल्लू सीधा कर सकते हैं या नहीं।” अधिकारी ने कहा, “यहाँ उल्लू नहीं बल्कि धर्म का कारोबार चल रहा है, समझे?”

मस्तकलाल देश की सरकार ने भारी मशक्कत से उन दवाइयों के बंडल बनाए और उन्हें एक विशेष विमान में लादकर गजबपुरिया भेजा। गजबपुरिया में, मेडिकल विशेषज्ञ और सुरक्षा एजेंसियां सतर्क थीं। विमान के लैंड करते ही, एक बंडल उतारते समय ही मजदूर आपस में लड़ने लगे। गालियों का आदान-प्रदान होने लगा, जाति-धर्म की बातों पर बवाल मच गया।

मेडिकल विशेषज्ञ ने तुरंत सबको सतर्क किया और दुग्गल साहब को फोन कर सारी स्थिति बताई। उन्होंने कहा, “देखो, ये दवाइयाँ हैं। इनका उपयोग महंगाई को मिटाने की जगह नफरत और अंधविश्वास का वायरस फैलाने में उपयोग में लाया जा सकता है। यदि यह फैल गया तो अगले पाँच साल तक आपका कोई कुछ नहीं उखाड़ सकता है। ये वायरस लोगों को मानसिक गुलाम बना देता है।”

दुग्गल साहब ने कहा, “इन्हें तुरंत हमारे गुर्गों के बीच भेजो और मस्तकलाल देश की इस अद्भुत सद्भावना को धन्यवाद कहना।” एक बड़ा सा स्टिकर “ये दवाई केवल धार्मिक मूर्खों के लिए है” लिखकर उस विमान की सारी दवाई अंधभक्तों के बीच बटवा दी गई।

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ झूठ बोले मीडिया काटे ☆ श्री नवेन्दु उन्मेष ☆

श्री नवेन्दु उन्मेष

☆ व्यंग्य  ☆ झूठ बोले मीडिया काटे ☆ श्री नवेन्दु उन्मेष

पहले झूठ बोलने पर कौआ काटता था। इसी लिए फिल्म में गीत भी लिखा गया कि झूठ बोले कौआ काटे, काले कौए से डरियो। लेकिन अब शहर से कौए गायब हो चुके हैं। कौआ अब विलुप्त प्राणी होता हुआ नजर आ रहा है। अब जो नया प्राणी पैदा हो गया है उसे कहते हैं मीडिया। पहले कहावत थी कि जहां न जाये रवि वहां जाये कवि। लेकिन अब ऐसी बात नहीं रही। अब जहां कवि, कौआ और रवि नही पहुंच पाते वहां मीडिया पहुंच जाता है। अब मीडिया की भी नयी-नयी जमात पैदा हो गयी है। पहले मीडिया का मतलब आकाशवाणी या अखबार हुआ करते थे। इसके बाद पीढ़ियां बदली तो न्यूज चैनल और मनोरंजन चैनलों का दौर आ गया। पहले चैनलों के पत्रकार माइक लेकर शहर में घूमा करते थे। अब तो घर-घर में यूटयूब चैनल के पत्रकार हो गये हैं जिन्हें अन्य मीडिया वाले मीडियाकर्मी मानने से इनकार करते हैं। कहीं-कहीं तो प्रशासन भी यूटयूबर्स को मीडियाकर्मी के रूप में स्वीकार करने से इनकार करता है। इन सबके बावजूद कई यूटयूबर्स के चैनल देखने वालों की संख्या लाखों-करोड़ों में हैं।

अब तो गोदी मीडिया की भी एक अलग जमात खड़ी हो गयी है। ऐसी मीडिया के बारे में कहा जाता है कि यह सत्ता की गोद में सोती और जागती है। इस मीडिया के लोग के झूठ को सच बताने का काम बखूबी करना जानते हैं। इसे चारण संस्कृति भी कहा जाता है। राजा-महाराजाओं के जमाने में दरबारी कवि-लेखक होते थे जो राजा की चारण में गीत लिखकर जनता के बीच उनके अच्छे या झूठे कार्यो को इसके माध्यम से पहुंचाते थे। इससे चारण कवियों को लाभ यह होता था कि उन्हें अच्छी तनख्वाह मिलती थी। कहा जा सकता है कि चारण संस्कृति का ही नया नाम गोदी मीडिया है।

पहले जब पत्नी पति से रूठ जाती थी तो गाना गाती थी कि मैं मैके चली जाउंगी तुम देखते रहियो। अब बीवियां धमकी दे रही हैं कि मैं पाकिस्तान चली जाउंगी और वहां के वादियों में नाच-नाचकर तुम्हें दिखाउंगी। तुम देखते रहियों। तब तुम्हारे पास मीडिया वाले माइक लेकर आयेंगे। तब तुम्हें पता चलेगा कि बीवी का महत्व क्या है।

तरह-तरह के मीडिया के आने से मियां बीवी के झगड़े भी बढ़े हैं। छोटे-मोटे झगड़ों पर भी बीवियां मीडिया को बुलाने की धमकी देने लगी हैं। मीडिया भी ऐसा है कि एक माइक और एक मोबाइल फोन लेकर घर पर आ धमकता है और पूछता है कि तुम्हारा पति से क्यों नहीं पटता है। पति से प्रश्न करता है कि तुम अपनी पत्नी से कितना प्यार करते हो। यह सब देखकर लगता है कि मीडिया अब पति-पत्नी को प्यार करना सिखा रहा है।

पहले तो भारी भरकम कैमरा लेकर मीडिया कर्मी आते थे तो लगता था कि मीडिया वाले आ गये हैं। लेकिन अब तो घर में पति के पास भी अलग तरह की मीडिया है तो पत्नी के पास भी अलग तरह की मीडिया है। पति पत्नी के कृत्यों को मोबाइल पर रिकार्ड करके उसका पोल खोल रहा है तो पत्नी पति के कृत्यों को उजागर कर रही है। मीडिया के विशेषज्ञों से पूछिये तो कहेंगे यह मीडिया की बढ़ती हुई ताकत है जो पति-पत्नी के संबंधों को भी लोगों के बीच ला रहा है। मेरी सलाह है कि ऐसे पति-पत्नी को संभल कर रहना चाहिए।

नेताओं और दलों के बीच झगड़े बढ़ाने का काम भी मीडिया कर रहा है। अगर एक नेता ने दूसरे नेता के बारे में कुछ कह दिया तो तुरंत दूसरे नेता के घर पर मीडिया वाले पहुंच जायेंगे और पहले वाले नेता के कथन को उसके समक्ष रखकर पूछेंगे इसमें सच्चाई क्या है। अब पहले वाला नेता फंसा। मतलब साफ हैं झूठ बोले तो मीडिया काटे। मीडिया का काम है काटना। वह चाहे न्यूज की फसल काटे या गोदी मीडिया की तरह नेताओं या दलों की गोद में बैठे और इतराये कि यह देखो मुझे फलां नेता या दल का समर्थन प्राप्त है। तुम मेरा कुछ भी बिगाड़ नहीं सकते। इसे कहते हैं सैया भये कोतवाल तो अब डर काहे का।

© श्री नवेन्दु उन्मेष

संपर्क – शारदा सदन,  इन्द्रपुरी मार्ग-एक, रातू रोड, रांची-834005 (झारखंड) मो  -9334966328

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ शेष कुशल # 45 ☆ व्यंग्य – “स्मृति शेष : पत्रकारिता का यूँ गुजर जाना…” ☆ श्री शांतिलाल जैन ☆

श्री शांतिलाल जैन

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  स्थायी स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक अप्रतिम और विचारणीय व्यंग्य  स्मृति शेष : पत्रकारिता का यूँ गुजर जाना…” ।)

☆ शेष कुशल # 45 ☆

☆ व्यंग्य – “स्मृति शेष : पत्रकारिता का यूँ गुजर जाना…” – शांतिलाल जैन 

दुःखी मन से स्मृति शेष लिखने बैठा हूँ. पत्रकारिता के अवसान की घटना सामान्य नहीं है. अभी समाज को उसकी जरूरत थी, दुःखद है कि वह अब हमारे बीच नहीं रही.

यूँ तो आर्यावर्त में लगभग दो सौ साल का जीवन जिया था उसने लेकिन उसके असमय चले जाने से जो स्थान रिक्त हुआ है उसकी क्षतिपूर्ति कर पाना मुश्किल है. हालाँकि कुछ सिरफिरे और जिद्दी पत्रकार टाईप लोग यू ट्यूब और इन्टरनेट पर उसकी याद को जिलाए रखने की कोशिश कर रहे हैं मगर वे इन्फ्लुएंस नहीं कर पा रहे. और जो इन्फ्लुएंसर हैं उन्होंने उसका पुनर्जन्म नहीं होने देने की सुपारी ले रखी है. उसने आर्यावर्त में, कलकत्ता में, 1826 में जन्म लिया मगर दम तोड़ा नई दिल्ली के बहादुरशाह ज़फर मार्ग की प्रेसों में, मंडी हाउसों में, नॉएडा के स्टूडियोज़ में.

बीमार थी. दो तीन दशकों से. पिछले एक दशक में कुछ ज्यादा सीरियस हो गई थी. डॉक्टरों ने जवाब दे दिया था. रिपोर्टर्स विदाऊट बॉर्डर्स की पैथ लैब से जाँच करवाई. रिपोर्ट में फ्रीडम का लेवल 180 आया. ये जानलेवा मानक से काफी ऊपर था और बढ़ता ही जा रहा था. फॉरेन तक के डॉक्टरों ने जवाब दे दिया. पेशेंट के तौर पर वह बिलकुल कोऑपरेट नहीं कर रही थी. टॉक्सिक्स अन्दर ही अन्दर बढ़ते जा रहे थे. निज़ाम ने ईलाज के जो इंतज़ामात किए उससे दाल और पतली होती चली गई. समझ में नहीं आया कि निज़ाम तबीयत ठीक करने में लगा है कि बिगाड़ने में.

बहरहाल, सिम्पटम्स तो बहुत समय पहले से उभरने लगे थे. पाठकों की अखबारों में, समाचार चैनलों में घटती रूचि, छीजता भरोसा, समाचारों की शक्ल में परोसे गए विज्ञापन, खरीदे गए न्यूज स्पेस के गोल गोल लाल चकते पूरे शरीर पर उभर आए थे. लग रहा था कि अब ये बचेगी नहीं. शरीर अलग पीला पड़ता जा रहा था. यलो जर्नालिज्म डायग्नोस हुआ. दुलीचंद बैद से चूने के पानी में संपादकों के हाथ धुलवाए, संवाददाताओं को सलीम मियाँ से झड़वाया, फोटो जर्नलिस्ट को तेजाजी महाराज की पाँच जात्रा करवाई, मगर कोई फायदा नहीं हुआ. हेपेटाईटिस वायरस के पॉलिटिकल वेरियंट ने उसका लीवर इतना खराब कर दिया था कि होम्योपैथी, आयुर्वेदिक, यूनानी कोई पैथी काम नहीं आई. एडिटर्स गिल्ड के मंदिर में ले गए, मन्नत मानी, न्यूज ब्रॉडकास्टर एंड डिजिटल एसोसिएशन के दरबार में ले गए वहाँ भी कृपा नहीं बरसी. कोई मंदिर, ओटला, मज़ार, बाबाजी का दरबार नहीं छोड़ा जहाँ ले नहीं गए. बिगड़ती सेहत का असर उसके दिमाग पर भी आ गया था. फिर उसे हिस्टीरिया के दौरे पड़ने लगे. रात नौ बजते ही वो जोर जोर से चिल्लाने लगती. प्राईम टाईम में बेसिरपैर के सवाल पूछती, आधे सच्चे आधे झूठे फेक्ट्स रखने लगती. कभी कभी पैनलिस्टों से गाली गलौच पर उतर आती. लोगों का मानना था कि उस पर निज़ाम की प्रेत-छाया है. किसी ने बताया प्रेस परिषद् के ओटले पे ले जाओ. बाबाजी कोड़े मार कर ऊपरी हवा का ईलाज करते हैं. ले गए साहब, वहाँ भी कुछ नहीं हुआ. प्रेस परिषद् के पास कोड़ा था ही नहीं, ‘कंडेम’ करने का परचा लिख कर उनने घर भेज दिया.

एक बार उसको दिमाग के डॉक्टर को भी दिखाया. मनोचिकित्सक. उसने बताया कि वो डर गई है. जब निज़ाम ने कुछ को अन्दर किया, कुछ के विज्ञापन रोक दिए, कुछ के मोबाइल, लैपटॉप जब्त किए तो किसी किसी को जहन्नुम का रास्ता दिखाया तब फियर सायकोसिस का शिकार हो गई. इस कदर कि उसने ‘फेक्ट’ और ‘फेक’ में अपने विवेक का इस्तेमाल करना छोड़ दिया, पॉवरफुल का ‘फेक’ भी ‘फेक्ट’नुमा आने लगा और पॉवरलेस का ‘फेक्ट’ भी ‘फेक’ की शक्ल में.  मुझे याद है एक बार आईसीयू में थोड़ा सा एकांत पाकर उसने कहा था कि वह ईमानदार काम करना चाहती है मगर कर नहीं पा रही. थोड़ी ईमानदार कोशिश की, ‘गोंजो पत्रकारिता’ करने से इंकार कर दिया तो उसे हैक, प्रेस्टीट्यूट और न जाने क्या क्या कहा गया. बड़ा सदमा तब लगा जब उसे कंटेंट राइटर, कंटेंट मैनेजर कहा गया. शायद यही उसके डीप-डिप्रेशन में जाने की वजह रही होगी.

जितने मुँह उतनी बातें साहब. कोई कोई कहते कि रोज़मर्रा की खुराक की जिम्मेदारी बदलने से उसकी सेहत बिगड़ी. कभी उसे खाना-खुराक स्वतंत्र मिडिया हाऊस दिया करते थे, फिर यह जिम्मा कार्पोरेट्स से होते हुए कांग्लोमरेट्स तक आ गया. उसके बाद से उसकी सेहत तेज़ी से बिगड़ी. खाना-खुराक में कमी और प्रॉफिट लाने के दबाव में वह बीमार होती चली गई. गांधी, अंबेडकर, नेहरू के शुरू किए गए अखबारों से मिला खून कब का पानी हो चुका था. गणेश शंकर विद्यार्थी से लेकर राजेंद्र माथुर, प्रभाष जोशी तक बहुत कुछ ठीक चला. कष्ट तो उसने जीवनभर सहे मगर दम नहीं तोड़ा था. इमरजेंसी में मौत के मुँह में जाकर वापस आ गई. लेकिन इस बार बीमार पड़ी तो ऐसी कि संभली ही नहीं. एक समय वह इतनी तंदुरुस्त, हौंसलामंद और साहसी थी कि अकबर इलाहाबादी के बोल ने नारे की शक्ल अख्तियार कर ली – ‘जब तोप हो मुकबिल तो अख़बार निकालो.’ बीते दिनों दुर्बलता इतनी आ गई थी कि मामूली से नेता-प्रवक्ता ‘टॉय-गन’ की आवाज़ से डरा लेते. एक दो बार उसने पीठ में दर्द की शिकायत की तो आकाओं ने उसकी रीढ़ की हड्डी ही निकलवा दी. दरबार में रेंग-रेंग कर चलते चलते उसकी ठुड्डी, कोहनी, घुटनों, पर घाव पड़ गए थे, उसमें पेड-न्यूज का मवाद रिसने लगा था. एक बार वो रेंगने की मुद्रा में आई तो फिर खड़ी कभी नहीं हो पाई.

अन्दर की बात तो ये साहब कि उसको नशे लत लग गई थी. प्रॉफिट के नशे में रहने के लिए उसने टीआरपी नाम का ड्रग लेना शुरू कर दिया था. एडिक्ट हो गई थी. वो चौबीस घंटे टीआरपी की तलाश में रहती. थोड़ा भी नशा उतरा कि फिर जोर जोर से चिल्लाने लगती, वायलेंट हो जाती, हाथ पैर मारने लगती, पुड़िया खरीदने के लिए नैतिक अनैतिक कुछ नहीं देखती. नशा खरीदने के लिए उसने अपनी कलम तक गिरवी रख दी. पैथोलॉजिस्ट ने कहा कि टीआरपी के नशे की लत से उसका मस्तिष्क गल गया है. तो मरना तो था ही. मल्टीपल ऑर्गन फेल्योर हो चुकने के बाद भारी मन से उसे मृत घोषित करना पड़ा.

उसके अवसान की वजह एक रही हो या एक से ज्यादा, सच तो यह है कि वह अब हमारे बीच नहीं हैं. दो शताब्दी पूर्व आर्यावर्त के नभ पर जिस ‘उदंत मार्तण्ड’ का उदय हुआ था वह अब अस्त हो गया है. हमारी सेहत का दारोमदार उसके स्वास्थ्य पर टिका था. पता नहीं लोकतान्त्रिक समाज के तौर पर उसके बिना हम स्वस्थ कैसे रह पाएँगे? उसे विनम्र श्रद्धांजलि.

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© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 20 – भ्रष्टाचार की माया ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना भ्रष्टाचार की माया)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 20 – भ्रष्टाचार की माया ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

भ्रष्टाचार, एक ऐसा शब्द जिसे सुनते ही किसी भी सामान्य नागरिक के चेहरे पर ताज़गी से भरी मुस्कान आ जाती है। ये कोई साधारण गुनाह नहीं है, यह तो भारतीय राजनीति का सबसे प्रिय खेल है। जैसे चाय में बिना चीनी के मज़ा नहीं आता, वैसे ही राजनीति में बिना भ्रष्टाचार के चुनावी सरगर्मी अधूरी रहती है।

आप सोच सकते हैं कि भ्रष्टाचार का मतलब केवल चंद लोगों का पैसा उड़ाना है। लेकिन वास्तव में यह एक कला है, जिसमें हमारी सरकारें, बाबू और नेता एक साथ नृत्य करते हैं। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि भ्रष्टाचार और हमारी संस्कृति का घनिष्ठ संबंध है। यह एक ऐसा रिश्तेदार है, जिसका नाम लिए बिना शादी का कोई मुहूर्त ही नहीं पड़ता।

सुबह-सुबह जब कोई आम नागरिक अपने घर से बाहर निकलता है, तो उसे एहसास होता है कि उसके पास कई विकल्प हैं: भीड़ में धकेलना, ट्रैफिक में फंसना, और सबसे बढ़कर, एक भ्रष्ट अधिकारी से सामना करना। अब अधिकारीजी तो जैसे भगवान की असीम शक्ति के साथ यह बताते हैं कि उनकी दुआ से ही आपकी फाइल चल सकती है।

अधिकारी का चेहरा देखने में तो ऐसा लगता है जैसे उन्होंने हर मुसीबत की चाय पी रखी है। जब आप उनसे मुलाकात करते हैं, तो उनका पहला सवाल होता है, “भाई, थोड़ा सा मुझे दें, फिर देखो कैसे फाइल चलती है!” यह सुनकर आप सोचते हैं कि सच में, भ्रष्टाचार एक खेल है, और अधिकारीजी इसके सबसे बड़े खिलाड़ी हैं।

लेकिन भ्रष्टाचार केवल अधिकारीजनों तक ही सीमित नहीं है। नेताओं की महत्ता तो किसी कवि द्वारा लिखे गए स्तुति गीतों से भी अधिक है। चुनावों के समय, नेता जी अपने निर्वाचन क्षेत्र में जाते हैं और जनता के बीच या तो बम फेंकते हैं या फिर शुद्ध भ्रष्टाचार का लेबल चस्पा कर देते हैं। उनका मानना है कि चुनाव में जीतने के लिए दिमाग से काम लेना जरूरी है और यह दिमाग तभी चल सकता है जब जेब में कुछ ‘सुखद’ हो।

यहाँ तक कि हमारे समाज में रोटी, कपड़ा और मकान का उद्देश्य भी भ्रष्टाचार पर आधारित हो गया है। आप रोटी खरीदने जाते हैं, तो दुकानदार बताता है, “भाईये, यह रोटी तो हज़ार की है, पर अगर आप मुझे कुछ ‘खास’ दे दें, तो यह सस्ती हो जाएगी!” अब उस समय आपको समझ आता है कि भ्रष्टाचार तो पकवान बनाने का एक मुख्य ingredient है।

हमारी बिरदियाँ भी भ्रष्टाचार को लेकर बड़े चौकस हैं। हर साल जब गणतंत्र दिवस आता है, तो शहरों में तिरंगा फड़कता है और दफ्तरों में रिश्वत का एक नया रंग चढ़ता है। यह ऐसा लगता है जैसे हर एक सरकारी दफ्तर में तिरंगा लहराने के साथ-साथ ब्रश के साथ भ्रष्टाचार के नए रंग भी भूरे से नीले में बदलने लगते हैं।

भ्रष्टाचार के इस महासागर में, आम नागरिक तैराकी का कोई हुनर नहीं रखता। वे केवल एक ही काम करते हैं: एक अदृश्य रक्षक की प्रतीक्षा करना, जो भ्रष्टाचार को खत्म कर देने का आश्वासन देता है। लेकिन ध्यान दें, असली उपाय तो यही है कि स्थिति को स्वीकार करें और उसकी सराहना करें।

आखिरकार, भ्रष्टाचार केवल एक मुद्दा नहीं है; यह एक फीलिंग है, एक अनुभव है, जिसे हंसी में बदलकर जीना ही सबसे सही तरीका है। हमारी संस्कृति तो इसी पर आधारित है; इसलिए जब भी भ्रष्टाचार का जिक्र हो, सभी को हंसते-हंसते रुदन करना चाहिए। कारण साफ है: यह एक ऐसा शिल्प है, जिसमें हम सब, चाहे हामी भरें या न भरें, हर दिन नर्तकी की तरह झूमते हैं।

तो चलिए, इस वैभव की महफिल में शामिल होते हैं, और स्वच्छता की बातें करने वालों को हंसकर कहते हैं, “भ्रष्टाचार चलने दो, यह हैं तो अपने विकास का हिस्सा!”

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 256 ☆ व्यंग्य – भाग्यवादी होने के फायदे ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम और विचारणीय  व्यंग्य – ‘भाग्यवादी होने के फायदे‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 256 ☆

☆ व्यंग्य ☆ भाग्यवादी होने के फायदे 

हमारे देश के ज़्यादातर लोग भाग्यवादी हैं— भाग्य, किस्मत, नसीब, नियति, मुकद्दर, फ़ेट या डेस्टिनी पर भरोसा करने वाले। सभी धर्म के सन्तों ने भी यही कहा है कि इंसान के जीवन में सब कुछ पूर्व-नियत है, प्री-डेस्टाइन्ड। इंसान के हाथ में कुछ भी नहीं है, सब कुछ पहले से लिख दिया गया है। ‘को करि तरक बढ़ावै साखा, हुइहै वहि जो  राम रचि राखा’, ‘विधि का लिखा को मेटनहारा’, ‘विधना ने जो लिख दिया छठी  रैन के अंक, राई घटै ना  तिल बढ़ै रहु रे जीव निश्शंक’, ‘अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम, दास मलूका कह गये सब  के दाता राम’, ‘राम भरोसे जो रहें, परबत पै हरियांयं’, ‘जिसने चोंच दी है, वही चुग्गा देगा’, ‘देख  परायी चूपड़ी मत ललचावै जीव, रूखा सूखा खायके ठंडा पानी पीव’, ‘जो आवे संतोष धन, सब धन धूरि समान।’

दरअसल भाग्यवादी होने के कई फायदे होते हैं। भाग्यवादी दुनिया में चल रहे बखेड़ों से परेशान नहीं होता क्योंकि उसके अनुसार सब कुछ वही हो रहा है जो पहले से लिख दिया गया है। उसे ब्लड-प्रेशर की बीमारी नहीं होती, दुनिया की हलचलों के बीच वह चैन की नींद सोता है। बड़ी से बड़ी घटना के बीच वह शान्त, स्थितप्रज्ञ बना रहता है। उसे न यूक्रेन की चिन्ता सताती है, न गज़ा की। जो मरे वे इतनी ही उम्र लेकर आये थे, जो बच गये उन्हें अभी और जीने का वरदान मिला है। रेल दुर्घटना में मरने वालों के हिस्से में भी इतनी ही उम्र आयी थी।

हमारे समाज में भाग्यवादिता बहुत उपयोगी रही है। जीवन में असफल होने पर असफलता को भाग्य के खाते में डालकर चैन से बैठा जा सकता है। कुछ समय पहले तक लड़कियों का भाग्य माता-पिता के हाथ में रहता था। पढ़ाया तो पढ़ाया, अन्यथा पराये धन पर कौन पैसा बरबाद करे? बड़े होने पर लड़की को, बिना उसकी सहमति लिये, किसी भी एंगे-भेंगे, जुआड़ी, शराबी लड़के से ब्याह दिया जाता था और लड़की इसे अपना भाग्य मानकर गऊ की तरह पतिगृह चली जाती थी। मतलब  यह कि भाग्य के हस्तक्षेप से गृहक्लेश की संभावना कम हो जाती थी।

हमारे देश में जाति-प्रथा है जिसमें आदमी जन्म लेते ही ‘ऑटोमेटिकली’ ऊंचा या नीचा हो जाता है। जो नीचे जन्म लेते हैं उनका सारा जीवन संघर्ष करते और अपमान झेलते ही बीतता है।

समाज में उनका कोई सम्मानजनक स्थान नहीं बनता। परसाई जी  ने अपनी रचना ‘जिसकी छोड़ भागी’ में लिखा, ‘सदियों से यह समाज लिखी पर चल रहा है। लिखा कर लाये हैं तो पीढ़ियां मैला ढो रही हैं और लिखा कर लाये हैं तो पीढ़ियां ऐशो आराम भोग रही हैं। लिखी को मिटाने की कभी कोशिश ही नहीं हुई।’ ऐसे में अपने जीवन को अपना भाग्य मानकर ही ढाढ़स मिल सकता है।

रियासतों के ज़माने में रियाया की स्थिति दयनीय होती थी। राजा साहब के तो दर्शन ही दुर्लभ होते थे, रियाया के लिए उनके दर्शन की इच्छा करना गुस्ताखी से काम नहीं होती थी। उनके मुसाहिब ही मनमाना शासन चलाते थे। रियाया पर हर तरह  के ज़ुल्म होते थे, सुनवाई कहीं नहीं। ऐसे में रियाया के लिए सब कुछ भाग्य के खाते में डाल देना ही एकमात्र उपाय बचता था। भाग्यवादिता ही दुर्दशा के बीच कुछ संबल देती थी।

राजाओं को निष्कंटक शासन करने योग्य बनाने के लिए पुनर्जन्म का सिद्धान्त आया जिसमें पुरोहितों और चर्च का सहयोग मिला। रियाया को बताया गया कि उनकी दुर्दशा उनके पूर्व जन्म के कर्मों के कारण है और उनका अगला जन्म तभी सुधरेगा जब वे अच्छे, आज्ञाकारी नागरिक बने रहें। इस स्थिति  ने रियाया को और भाग्यवादी बनाया।

मज़े की बात यह है कि भाग्य पर भरोसे के बाद भी आदमी अनिष्ट और ‘होनी’ को टालने के लिए दौड़ता रहता है। बाबाओं, ओझाओं, गुनियों, तांत्रिकों, ज्योतिषियों, वास्तु-शास्त्रियों के यहां भीड़ लगती है। भविष्य को जानने के लिए ताश के पत्तों, अंकों, मुखाकृति अध्ययन, कप या गिलास में छोड़ी हुई कॉफी-चाय या शराब की जांच-पड़ताल जैसे अनेक टोटकों को अपनाया जाता है। बहुत से लोग उंगलियों में नाना रत्नों से जड़ी अंगूठियां पहनते हैं। कुछ लोग बायें हाथ की उंगलियों में भी अंगूठियां पहनते हैं जिसे देखकर मुझे सिहरन होती है। शायद वे उन्हें टॉयलेट जाते समय उतार देते होंगे। कहने का मतलब यह है कि आदमी को भाग्य पर यकीन तो है, लेकिन वह दुर्भाग्य को टालने में दिन-रात लगा रहता है।

सत्य यह है कि दुनिया भाग्य के नहीं, श्रम और प्रयास के भरोसे चलती है। दुनिया के सारे अविष्कार प्रयास और मेहनत से हुए हैं। भाग्यवादिता शान्ति तो दे सकती है, लेकिन जीवन के कांटे दूर नहीं कर सकती। दशरथ  मांझी भाग्य के भरोसे बैठे रहते तो पत्नी के लिए पहाड़ काटकर रास्ता न बनाते। बकौल परसाई जी, ‘भाग्य कुछ नहीं है। यह झूठा विश्वास है। सार्थक श्रम पर विश्वास किया जा सकता है।’

अमेरिका के 16 वें राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने मार्के की बात लिखी है— ‘भविष्य को इंगित करने का सबसे अच्छा तरीका उसका निर्माण करना है।’ अर्थात, हमारा प्रयास भविष्य को खोजने के बजाय उसे निर्मित करने में होना चाहिए।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 460 ⇒ धर्मपत्नी पर व्यंग्य ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “धर्मपत्नी पर व्यंग्य।)

?अभी अभी # 460 ⇒ धर्मपत्नी पर व्यंग्य? श्री प्रदीप शर्मा ?

वैधानिक चेतावनी – पति पत्नी के बीच हँसी मजाक और नोक झोंक आम है, लेकिन पत्नी की हँसी अथवा उसका मजाक उड़ाना गलत है। अपनी धर्मपत्नी पर व्यंग्य लिखने के गंभीर परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं।

हंसना सेहत के लिए अच्छा है। कोई एक हास्य कवि पद्मश्री सुरेंद्र शर्मा हैं, जो खुद गंभीर होकर अपनी ही घराड़ी, यानी घर वाली की हंसी उड़ाते हैं, और श्रोताओं से दाद बटोरते हैं। काका हाथरसी ने भी अधिकतर हास्य के कारतूस काकी पर ही छोड़े हैं। इन दोनों की पत्नियों को आपने कार्टून के रूप में ही देखा होगा, कभी पत्नी के रूप में नहीं। हम इसे हास्य बोध नहीं मानते। हां, कभी एक डा.सरोजनी प्रीतम हुआ करती थी, जिनकी हंसिकाएं भी अधिकतर महिलाओं पर ही केंद्रित होती थी और पुरुषों पर कम।

व्यंग्य एक गंभीर विधा है और इसका उपयोग पति पत्नी के नाजुक संबंधों पर नहीं किया जा सकता। विसंगति पर तो व्यंग्य लिखा जा सकता है, लेकिन जो धर्मपत्नी अथवा जीवन संगिनी है, उस पर व्यंग्य लिखना, ना केवल टेढ़ी खीर है, अपितु बड़ी हिम्मत का काम है।।

जिस तरह डायन भी एक घर छोड़ देती है, हर व्यंग्यकार अपनी धर्मपत्नी को छोड़ आन गांव पर व्यंग्य लिख सकता है। उसकी व्यंग्य दृष्टि राजनीति, धर्म, भ्रष्टाचार, लाल फीताशाही और समाज और विश्व में होने वाली सभी घटनाओं पर पड़ सकती है, लेकिन उसकी पास की दृष्टि जवाब दे जाती है, जब उसकी धर्मपत्नी पास होती है।

और तो और कुछ ऐसे व्यंग्यकार जिन्होंने गृहस्थी का स्वाद ही नहीं चखा, वे भी इस मामले में फूंक फूंक कर कदम रखते हैं।

उनकी तर्क की खान और उनके व्यंग्य बाणों में इतनी ताकत कहां, जो अपनी कलम की धार किसी के घरेलू मामले की ओर भी कर दे।।

अव्वल तो पति की मात्रा ही छोटी होती है, और पत्नी की बड़ी। वजन में भी अक्सर पत्नियां, पति की तुलना में भारी ही होती है।

पति अगर हॉफ तो पत्नी बैटर हॉफ। वैसे आम तौर पर तो हास्य कवि ही मोटे देखे गए हैं, व्यंग्यकार तो बस, किसी तरह ठीकठाक ही होते हैं। अगर कहीं गलती से पत्नी दुबली और वे मोटे निकल गए, तो व्यंग्य की सुई भी पति की ओर ही घूम जाती है।

वैसे हम अगर शब्द बाण और व्यंग्य बाणों की चर्चा करें, तो पत्नी के शब्द अचूक रामबाण होते हैं, जिसके आगे कोई भी धुरंधर धनुर्धर, व्यंग्यकार, धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में अपने शस्त्र त्याग शरणागत हो जाता है। पत्नी द्वारा निष्काम व्यंग्य की गीता का श्रवण पाठ सुनने के बाद ही, पति कलम उठाता है। धर्मपत्नी पर केवल प्रेम वर्षा ही संभव है, व्यंग्य बाण के लिए पूरा जगत पड़ा है।।

धर्मपत्नी पर व्यंग्य लिखना अंगारों पर फूंक फूंक कर कदम रखने से भी अधिक जोखम भरा काम है। जब घर में चूल्हा नहीं जलता तब धर्मपत्नी अपने व्यंग्यकार पति की छपी रचनाएं जला जलाकर चाय गर्म करती है। बड़ी अलबेली होती है, व्यंग्यकार के घर की सरकार। यह एक ऐसी सरकार होती है, जो सिर्फ तारीफ और प्रशंसा के बल पर ही चलती है। यहां व्यंग्य सिर्फ चूल्हा जलाने के ही काम आता है।

कभी कभी गंगा उल्टी भी बहने लगती है, जब ऊंट पहाड़ के नीचे आता है, और घर की पत्नी ही व्यंग्य में डूबी कलम उठा लेती है। तब पतिदेव को घर गृहस्थी के सभी काम दफ्तर के काम की तरह ही करने पड़ते हैं। क्योंकि सैंया कोतवाल नहीं, यहां सजनी व्यंग्यकार जो हो जाती है। पत्नी तो रूठकर मायके जा सकती है, पति तो बेचारा सिर्फ दफ्तर ही जा सकता है।।

व्यंग्यकार की कलम और धर्मपत्नी की जुबां के बीच जब भी युद्ध हुआ है, कलम हमेशा नतमस्तक हुई है। वास्तव में कुछ ना कहने की छटपटाहट ही तो व्यंग्य को जन्म देती है। कालिदास हो अथवा तुलसीदास, सबकी महानता के पीछे उनकी पत्नी का ही तो हाथ है।

आदमी संत, सन्यासी अथवा एक अच्छा व्यंग्यकार यूं ही नहीं बन जाता। जब हर सफल व्यक्ति के पीछे एक महिला का हाथ होता है, तो क्या एक व्यंग्यकार की सफलता का श्रेय उसकी पत्नी नहीं ले सकती। पत्नी की जली कटी सुनने के बाद जो व्यंग्य में पैनापन आता है, वह देखते ही बनता है। धर्मपत्नी की तारीफ से बड़ा कोई व्यंग्य नहीं। जो व्यंग्यकार अपनी बीवी से करे प्यार, वह उसकी तारीफ से कब करे इंकार।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिंदी साहित्य – व्यंग्य ☆ तोहफा दो तो ऐसा दो… ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

सुश्री इन्दिरा किसलय

☆ व्यंग्य ☆ तोहफा दो तो ऐसा दो… ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

तोहफा दो तो ऐसा दो

… कि दिल गार्डन गार्डन हो जाये।किसी भी “पालतू तोते” से पूछेंगे तो यही जवाब मिलेगा।अगर पूछें कि किताब का तोहफा कैसा रहेगा, तो वह “हरी मिर्च” खाने लगेगा।किताबें पढ़ने के लिये होती हैं कहेंगे तो वह तोतापंती पर उतर आयेगा–नादां!किताबें देखने के लिये होती हैं जैसे अखबार।

सब कुछ उल्टा पुल्टा होते देखकर तोते ने बरबस “जसपाल भट्टी” की याद दिला दी।

साहित्यकार होने के नाते साहित्य जगत में किताबों के ओहदे की छानबीन जरूरी है। “सौजन्य प्रतियों” का हश्र किसी से छिपा नहीं है। पाने वाला भुरभुरी नज़र से छूकर शेल्फ में अनंतकाल के लिये “नज़रबंद” कर देता है। न वो “प्रेयसी “होती है न “पत्नी”। या फिर भड़कीली पैकिंग के साथ अगले की ओर सरका दी जाती है। वह भी यही करता है। महाजनो येन गतः स पंथाः।

सवाल इसलिए भी मौजूं है, क्योंकि सुनते हैं एक उपमुख्य मंत्री ने कहा है कि जनता जनार्दन, मंत्रियों को तोहफे में सिर्फ किताबें और कलम ही प्रदान करें। वे “फिलाॅसफर किंग “की धारणा को बल दे रहे हैं। फूलों का क्या है- वे क्षणजीवी हैं। श्रीफल की चटनी कब तक खायेंगे। ठंडी में गर्मी का एहसास दिलानेवाली शालें  बदन पर लादे कब तक घूमेंगे।

लगता है लेखक पाठक बिरादरी में विचरण करनेवाला विचार मंत्रीजी ने “हाइजैक” कर लिया। समस्त भाषाओं में रचित किताबों के कान खड़े हो गये। उनकी चिन्ता वाजिब थी। क्या पता मंत्री कलंत्री, किताबों के साथ जाने कैसा सलूक करें। लिहाजा उन्होंने विमर्श के लिये एक आपातकालीन गोष्ठी आयोजित की।

“अंग्रेजी-किताब” ने कहा– हमें, पठनीयता का संकट नहीं है। लगभग दो तिहाई दुनिया अंग्रेजी जानती है।और फिर विक्रम सेठ, शशि थरूर,अरुंधति, रस्किन बांड, रूश्दी, नायपाॅल, और चेतन भगत की किताबें हाथों हाथ बिक जाती हैं। सभी पाना चाहते हैं। जनता टनों के हिसाब से खैरात में हमें नहीं बाँटती।

“हिन्दी-किताब”  लाल पीली होकर बोली- तुमने तो ऐसा हमला किया कि सवाल ही गायब हो गये। ऑफेन्स इज़ द बेस्ट डिफेंस। यहां पठनीयता के संकट पर नहीं मंत्रीजी के विचार पर मंथन हो रहा है। महान मंत्रीजी अपनी भाषा में शपथ तक नहीं पढ़ पाते वो अंग्रेजी किताबें पढ़ेंगे। उनपर नज़र डालने की जहमत तक न उठायेंगे।

—-वे चाहे जो करें। पोस्टमार्टम करें या बेच दें। उनकी मर्जी।

—–कैसी मर्जी। किताबों का घोर अपमान। किताबों के लिये जंगल कटते हैं। स्याही खर्च होती है। लेखक दिल की ढिबरी जलाकर उजाला करता है फिर लिखता है।मंत्रियों को पढ़ना होगा।

—-उन्हें रिबन काटने, लंबी लंबी फेंकने और घूमा घूमी से फुर्सत मिले तब ना।

—-“प्रादेशिक भाषा की किताबें “अब तक “साइलेंट मोड” में पड़ी थीं। अकस्मात उनमें हलचल होने लगी। वे बोलीं–हमारी हालत तो तुम सबसे ज्यादा खस्ता है।

अंग्रेजी ने उन्हें तुच्छ नज़र से देखा।

हिन्दी- किताब ने चर्चा को पटरी पर लाने के लिये कहा–भैंस के आगे बीन बजाना, साँप को दूध पिलाना, जैसे मुहावरे हमने इसी दिन के लिये सहेजे हैं।

प्रादेशिक किताब बोली– हम क्यों चिन्ता में घुलकर सींक हुये जा रहे हैं। हमने सुना– वो कहते हैं “न पढ़ेंगे न पढ़ने देंगे।” जनता भारी मात्रा में किताबें भेंट करेगी तो हो सकता है उन्हें “साइलोज” बनाने पड़ें। न बना पाये तो दीमकें खा खाकर बुद्धिजीवी बन जायेंगी।

हिन्दी किताब ने कहा– अरे कुछ कलम पर भी तो बोलो।मंत्रियों को चवन्नी छाप कलम तो कोई देगा नहीं। सोने की होगी या हीरे जड़े होंगे। मंत्री इन्हें बाँटने से रहे।

——गोष्ठी की अध्यक्षता करते हुये “कोरी किताब” ने  ध्यानपूर्वक सारे प्वाइंट्स नोट किये और इस नतीजे पर पहुंची कि– मंत्रीजी को” टेलीप्राॅम्प्टर” भेंट किये जायें। और पेनों (कलम) को राष्ट्र हित में बेच देना चाहिए।

सभी की सहमति पाकर कोरी -किताब ने अपनी सिफारिशें उप मुख्य मंत्रीजी तक पहुंचा दीं।

©  सुश्री इंदिरा किसलय 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 19 – चोरों की फैक्ट्री: उज्ज्वल भविष्य की गारंटी ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना चोरों की फैक्ट्री: उज्ज्वल भविष्य की गारंटी)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 19 – चोरों की फैक्ट्री: उज्ज्वल भविष्य की गारंटी ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

एक छोटे से कस्बे में, रात के अंधेरे में, एक अजीबोगरीब स्कूल का उद्घाटन हुआ। कोई शासकीय स्कूल नहीं, कोई अंग्रेजी माध्यम स्कूल नहीं, बल्कि यह था ‘चोरों की पाठशाला’। यहां का नारा था, “प्लेसमेंट गारंटी, परमानेंट जॉब्स!” फीस सिर्फ 2 से 3 लाख रुपए, और उम्र की सीमा? बस 12 से 13 साल। यह वह स्कूल था जहां ‘चोर बनने का सपना’ देखा जाता था, और उसे हर कीमत पर पूरा किया जाता था।

पाठशाला के दरवाजे पर कदम रखते ही छात्रों के चेहरे पर एक अलग चमक दिखाई देती है। कोई कक्षा के भीतर कुर्सी तोड़ रहा है, तो कोई दरवाजा। शिक्षक भी कम नहीं, उन्हें 20 साल का अनुभव था, लेकिन वह किसी विद्यालय में नहीं, बल्कि पुलिस के हवालात में। उनकी एक ही सीख थी, “शादी-ब्याह के मौके पर चुराना है तो हाथ में चूड़ी पहनना जरूरी है, ताकि ध्वनि सुनकर पता चल सके कि कंगन की आवाज कितनी मीठी है।”

पहली कक्षा में दाखिल होते ही विद्यार्थी सीखते हैं, “सिल्क की साड़ी कैसे पहचानें और कैसे उसे तेजी से गायब करें।” दूसरी कक्षा में उन्हें यह सिखाया जाता है कि “जेवर कैसे पहचानें और कैसे उसे जेब में डालें।” यहां किताबें नहीं, बल्कि तिजोरियों की नकली चाबियां और ताले होते हैं। बच्चों को सिखाया जाता है कि, “सफल चोर वही है जो खुद चोरी करता है और चोरी का इल्जाम दूसरों पर डालता है।”

शिक्षा का स्तर ऐसा था कि पाठशाला के विद्यार्थियों के लिए कोई भी शास्त्र अपरिचित नहीं था। संस्कृत के ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ को उन्होंने ‘सर्वे भवन्तु चोरीनः’ में बदल दिया था। शिक्षक अपने विद्यार्थियों को सिखाते, “किसी भी शादी में दूल्हे की बहन का हार सबसे महंगा होता है, इसलिए पहले उसी पर हाथ साफ करो।”

कक्षा के अंत में एक वरिष्ठ विद्यार्थी ने उठकर कहा, “गुरुजी, अगर किसी शादी में हमारे अपने रिश्तेदार हों तो क्या करना चाहिए?” गुरुजी ने हंसते हुए जवाब दिया, “बेटा, रिश्तेदारों से ही शुरुआत करो, ताकि तुम सीख सको कि धोखा क्या होता है।”

फिर आया प्लेसमेंट का समय। यह वह क्षण था जब हर विद्यार्थी का सपना साकार होने जा रहा था। हर विद्यार्थी के चेहरे पर गर्व की भावना थी, क्योंकि 100 प्रतिशत प्लेसमेंट गारंटी के साथ वह अब एक प्रोफेशनल चोर बनने जा रहे थे। नौकरी की पहली पेशकश नामी गिरामी शहर में थी। पहला वेतन पैकेज? रुपए 5 लाख। गुरुजी ने कहा, “बेटा, अब तुम उड़ने के लिए तैयार हो। याद रखना, जीवन में ईमानदारी सिर्फ पुलिस की डायरी में ही अच्छी लगती है।”

एक दिन, पाठशाला के एक शिक्षक ने एक नया अध्याय शुरू किया, “किसी भी विवाह में मौजूद लोगों का ध्यान कैसे बांटना है?” उन्होंने बताया, “बेटा, जब दूल्हा और दुल्हन फेरे ले रहे हों, तो तुम चुपके से दूल्हे की जेब से उसका पर्स निकालो। अगर तुम यह कर सके, तो समझो तुम्हारी डिग्री पूरी हो गई।”

एक और विद्यार्थी ने पूछा, “गुरुजी, अगर पकड़े गए तो क्या करें?” गुरुजी ने अपनी मुठ्ठी बांधते हुए कहा, “बेटा, अगर तुम पकड़े गए तो यही तुम्हारा फाइनल एग्जाम होगा। याद रखना, जमानत पर बाहर आना कोई बड़ी बात नहीं, बड़ी बात यह है कि जेल से बाहर आकर अगले दिन फिर से शादी में चुराने जाना।”

दिन ब दिन, यह पाठशाला पूरे प्रदेश में मशहूर हो गई। लोग दूर-दूर से अपने बच्चों को यहां भेजने लगे। वैसे भी किस माता-पिता का सपना नहीं होता कि उनका बच्चा भी ‘सफल’ हो?

इस पाठशाला की एक छात्रा ने अपने अनुभव साझा करते हुए कहा, “यहां आकर मुझे एहसास हुआ कि जीवन में सफल होने के लिए सिर्फ मेहनत की जरूरत नहीं होती, बल्कि सही मौके की भी। शादी में जाने के लिए अब मैं तैयार हूं, और मुझे यकीन है कि मैं वहां से खाली हाथ नहीं लौटूंगी।”

इस पाठशाला के शिक्षकों की यही सीख थी, “सफलता का कोई शॉर्टकट नहीं होता, लेकिन चोरी करना एक बेहतरीन शॉर्टकट है।”

पाठशाला के हर छात्र ने अपनी कड़ी मेहनत और लगन से साबित कर दिया कि वह यहाँ सिर्फ चोर बनने नहीं, बल्कि ‘मास्टर चोर’ बनने आए थे। आखिरकार, जब शादी में सैकड़ों लोग मौजूद हों, तो कौन सोचता है कि उनमें से एक-दो चोर भी होंगे?

यह कहानी यहीं खत्म नहीं होती। पाठशाला के एक विद्यार्थी ने, जिसने हाल ही में अपनी डिग्री प्राप्त की थी, किसी बड़ी शादी में चोरी की। उसने अपने शिक्षक की बताई हुई हर बात को ध्यान में रखा। जैसे ही वह शादी के समापन पर जा रहा था, उसने अपनी जेब से एक चूड़ी निकाली, और मुस्कुराते हुए बोला, “गुरुजी सही कहते थे, जीवन में असली मजा चुराने में है, पकड़े जाने में नहीं।”

इस कहानी का अंत क्या होगा? यह तो समय ही बताएगा, लेकिन एक बात तो तय है, इस पाठशाला के हर छात्र ने साबित कर दिया कि वह असली चोर है, और किसी भी शादी में जाने से पहले उन्हें याद रखना चाहिए, “सावधान! चोरों की पाठशाला के छात्र आ रहे हैं।”

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ शेष कुशल # 44 ☆ व्यंग्य – “मोमबत्ती से मोमबत्ती का संवाद…” ☆ श्री शांतिलाल जैन ☆

श्री शांतिलाल जैन

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  स्थायी स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक अप्रतिम और विचारणीय व्यंग्य  मोमबत्ती से मोमबत्ती का संवाद…” ।)

☆ शेष कुशल # 44 ☆

☆ व्यंग्य – “मोमबत्ती से मोमबत्ती का संवाद…” – शांतिलाल जैन 

सड़क पर निकले एक केंडल मार्च में कुछ देर पहले ही जलाई गई एक मोमबत्ती ने दूसरी से कहा – “थोड़ी-थोड़ी बची रहना.”

“वो किसलिए?” – जलती पिघलती मोमबत्ती ने प्रतिप्रश्न किया.

“ये आखिरी रेप नहीं है बहन, न ही आखिरी मार्च. जो मार डाली गई है वो आखिरी स्त्री नहीं है. आगे भी जलना है, जलते जलते सड़कों पर निकलना है. हमें लेकर निकलनेवाले हाथ बदल जाएँगे मगर जलनेवाला हमारा नसीब और रौंद दी जानेवाली स्त्री की नियति बदलनेवाली नहीं है.”

“डोंट वरी, हमें दोबारा तुरंत निकलने की नौबत नहीं आएगी. ये सदमे,  ये संवेदनाएँ,  ये आक्रोश,  ये बहस मुबाहिसे,  ये प्रदर्शन,  ये मेरा-तुम्हारा जलना, जलते हुए सड़कों पर निकलना तब तक ही है जब तक अभया खबरों में है. मिडिया में हेडलाईन जिस दिन बदली उस दिन मोमबत्तियाँ और मुद्दे दोनों किसी कोने-कुचाले में पटक दिए जाएँगे. हादसे उसके बाद भी रोज़ ही होंगे मगर जब तक न पड़े मेन स्ट्रीम मीडिया की नज़र धरना-प्रदर्शन अधूरा रहता है. तब वो लोग निकलेंगे जो उस समय विपक्ष में होंगे, वे ही मार्च करेंगे. स्त्री के पक्ष में सत्ता का प्रतिपक्ष ही क्यों खड़ा होता है हर बार ?” 

“सत्ता तक पहुँचने का रास्ता उसे प्रदर्शन की केंडल-लाईट में एकदम क्लियर दिखाई पड़ता है. शहर मेट्रोपॉलिटन हो, मुख्यधारा के मिडिया की उपस्थिति सुलभ हो और रेप हो जाए, बांछें खिल आती है प्रतिपक्ष की. उसे अपने तले का अँधेरा दिखलाई नहीं पड़ता. बहरहाल, जितना कवरेज उतना जोश. हमने जलने से कभी मना नहीं किया मगर दूर गाँव में,  झुग्गी बस्ती में,  ऑनर किलिंग में,  दलित स्त्री, छोटी बच्ची के लिए कब वे सड़कों पर उतरे हैं ?  अंकल, कज़िन,  पड़ोसी के विरूद्ध कौन उतर पाता है सड़कों पर. पुलिस के रोजनामचे में स्त्री, बच्चों के विरूद्ध सौ से ज्यादा यौन अपराध हर दिन दर्ज होते हैं. रोज़ाना कौन निकलता है सड़कों पर ? एक राह चलती अनाम-अदृश स्त्री के मारे जाने पर हम नहीं निकले हैं,  मज़बूत इरादों वाली सशक्त डॉक्टर स्त्री के लिए निकले हैं. वो भीड़ भरे अस्पताल के अन्दर निपट अकेली पड़ गई थी.” 

“गरिमा और जान दोनों से हाथ धोना पड़ा है उसे. छत्तीस घंटे काम करने के बाद ऐसी दो गज जमीन उसके पास नहीं थी जहाँ वह महफूज़ महसूस करती हुई आराम कर पाती. उस रात वो पूज्यंते नहीं थी इसीलिए देवता भी कहीं और रमंते रहे. सवेरे फिर तीमारदारी में जुटना था मगर वो सवेरा आया ही नहीं. सुलभ ऑन-कॉल रूम की कमी ने अभया की जान ली है.” 

“एक बार अस्पताल की लाईट जाने पर वहाँ ऑपरेशन तुम्हारी रोशनी में करना पड़ा था. तुमने तो देखा है अन्दर का मंज़र. क्या देखा तुमने बहन ?”

“जितनी जगह में एक ऑन-कॉल रूम बनता है उतनी जगह में तो एक ट्विन शेयरिंग वाला प्रायवेट वार्ड निकल आता है. करोड़ों के इन्वेस्टमेंट से बने हॉस्पिटल में महिलाकर्मी की आबरू और जान की क्या कीमत है!! सरकारी अस्पताल तो और भी भीड़ भरे, मरीज के लिए ठीक से बेड मयस्सर नहीं स्टाफ की कौन कहे. दड़बेनुमा नर्सिंग स्टेशन में सिकुड़कर सोई रहती हैं सुदूर केरल से आईं चेचियाँ. साफ शौचालय और चेंजिंग रूम किस चिड़िया का नाम है ? अभया डॉक्टर थी,  मेट्रो के सरकारी अस्पताल में थी,  मिडिया की नज़र पड़ गई तो मार्च निकाल लिया गया है. सफाईकर्मी,  आया,  दाई,  मेनियल वुमन स्टाफ के बारे तो न कोई सोचता है न उनके प्रति अपराध रिपोर्ट ही हो पाते हैं.”

“जानती हो बहन – हम जल तो सकती हैं चल नहीं सकती. जब तक जलाकर ले जाते हैं देर हो जाती है.”

“कभी कभी इतनी देर भी कि एक स्त्री बेंडिट क्वीन बन जाती है. वो मोमबत्ती जलाकर निकलनेवालों का इंतज़ार नहीं करती, मशाल फूंकती है और पूरा गाँव जलाकर खाक कर देती है, बहरहाल..”

“अभया की उम्र तीस-इकत्तीस रही होगी ?”

“रेपिस्ट उम्र-निरपेक्ष होते हैं,  वे तीन साल की लड़की से भी उतनी ही     नृशंसता से पेश आते हैं जितनी कि सत्तर साल की प्रौढ़ा से. अपराधबोध नहीं होता उन्हें. वे संसद में भी मर्दानगी का वही तमगा सीने पर लगाए विराजते हैं जिसे लगाए हुए गली-कूचे से गुजरते हैं.” 

प्रदर्शनकारी गंतव्य तक पहुँच गए थे, मंजिल न मिलना थी, न मिली. मोमबत्तियाँ जल कर पूरी तरह पिघल जाने के कगार पर थीं. पहली ने कहा – “चाहकर भी अगले जुलूस तक के लिए बच नहीं पाए हम, तब भी कोई गम नहीं, एक नोबल कॉज़ के लिए जलकर मरे हैं.” 

“अपनी अगली पीढ़ी को कहूँगी मैं – तैयार रहना, आर्यावर्त की सड़कों पर निकलनेवाले ऐसे मार्च अभी ख़त्म नहीं होनेवाले, अलविदा”, दम तोड़तीं मोमबत्तियाँ वहीं प्रस्थान कर गईं हैं जहाँ अभया चली गई है. 

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© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 255 ☆ व्यंग्य – मालदारों का दु:ख ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम व्यंग्य नाटिका – ‘मलदारों के दुःख‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 255 ☆

☆ व्यंग्य ☆ मालदारों का दु:ख

देश के मालदारों के बीच कुछ दिनों से इस मामले को लेकर सुगबुगाहट थी। जब भी कहीं मालदारों का जमावड़ा होता, वह बात उछल कर सामने आ जाती। मुद्दा यह था कि देश के मालदार शिद्दत से यह महसूस कर रहे थे कि वे अपना माल इकट्ठा करने के चक्कर में ज़िन्दगी भर जिल्लतें झेलते हैं, ई.डी., सी. बी. आई., इनकम टैक्स के छापों का सामना करते हैं, सांप की तरह अपनी संपत्ति की रक्षा करते हैं, लेकिन एक दिन सबको सिकन्दर की तरह हाथ पसारे दुनिया  से रुखसत होना पड़ता है। अरबों की संपत्ति में से एक धेला भी साथ नहीं जाता। ऊपर वाले की भी ऐसी नाइंसाफी है कि बिना कोई नोटिस दिये आदमी को अचानक पलक झपकते उठा लिया जाता है।

जमावड़ों में यह बात भी सामने आयी कि अक्सर मालदार के स्वर्गवासी या नरकवासी होने के बाद उसकी सन्तानें बाप की संपत्ति को विलासिता में उड़ा देती हैं या खुर्द-बुर्द  कर देती हैं, जिससे निश्चय ही मरहूम की आत्मा को घोर कष्ट का अनुभव होता होगा।

नतीजतन एक जमावड़े में यह निर्णय लिया गया कि सरकार से दरख्वास्त की जाए कि नई टेक्नोलॉजी का उपयोग करके ऐसा इन्तज़ाम करे  कि मालदारों की मौत के बाद उनकी संपत्ति उनकी इच्छानुसार स्वर्ग या नरक ट्रांसफर की जा सके। कहा गया कि लगता है अभी तक सरकार ने स्वर्ग और नरक को खोजने की कोई ईमानदार कोशिश नहीं की। जब वैज्ञानिक चांद और दूसरे ग्रहों तक पहुंच सकते हैं तो स्वर्ग और नरक का पता क्यों नहीं लगा सकते? हर धर्म की किताबें स्वर्ग और नरक के बयानों से पटी हैं। बताया जाता है कि नरक में आत्मा को उबाला या गोदा जाता है और स्वर्ग में उसकी खिदमत के लिए सुन्दरियां या हूरें उपलब्ध रहती हैं। वैसे हमारे अज़ीम शायर ‘दाग़’ देहलवी इस बाबत फरमा गये हैं— ‘जिसमें लाखों बरस की हूरें हों, ऐसी जन्नत का क्या करे कोई?’ फिर भी बहुत से लोग इन हूरों से मुलाकात की उम्मीद में उम्र भर ऊपर की तरफ टकटकी लगाये रहते हैं। यह समझना मुश्किल है कि शरीर-विहीन आत्मा को कैसे उबाला और गोदा जाता है। कोई ‘वहां’ से लौट कर आता भी नहीं है कि कुछ पुख्ता जानकारी मिले। बता दें कि भगवद्गीता ने आत्मा को अदाह्य, अक्लेद्य और अशोष्य कहा है।

ऐसा लगता है कि ऊपर कोई सुपर कंप्यूटर है जिसमें आदमी के ज़मीन पर उतरते ही उसकी ज़िन्दगी का लेखा-जोखा अंकित हो जाता है। फिर आदमी को ‘राई घटै,न तिल बढ़ै’ के हिसाब से चलना पड़ेगा। यह प्रश्न उठता है कि पूरी दुनिया के आदमियों के लिए एक ही सुपर कंप्यूटर है या अलग-अलग धर्म के अलग कंप्यूटर हैं? इस भारी-भरकम काम को अकेले चित्रगुप्त संभालते हैं या अलग-अलग धर्म के अलग-अलग चित्रगुप्त हैं? यह सवाल भी पैदा होता है कि क्या हर धर्म के अपने अलग स्वर्ग और नरक हैं?

जमावड़े के निर्णय के लीक होते ही मालदारों के परिवारों और रिश्तेदारों के बीच हड़कंप मच गया। मालदारों की अनेक संतानें  मायूस होकर ‘डिप्रेशन’ में चली गयीं। बहुत सी बहुओं ने सुबह-शाम ससुर जी के पांव छूना और उनकी आरती उतारना शुरू कर दिया। कुछ बेटों से पिताजी को धमकी मिलने लगी कि अगर उनको अपनी संपत्ति अपने साथ ही ले जाना है तो वे अपना अलग इंतजाम कर लें और उनसे सेवा- ख़िदमत की उम्मीद न रखें। कई परिवारों में बुज़ुर्गों पर नज़र रखी जाने लगी कि वे कहां जाते हैं और किससे मिलते हैं।

उधर सरकार के पास बात पहुंची तो उसकी तरफ से मालदारों को समझाया गया कि इस मांग को छोड़ दें क्योंकि यहां की मुद्रा वहां चलती नहीं है। वहां ‘बार्टर’ या वस्तु-विनिमय चलता है या स्वर्ण का आदान-प्रदान होता है। इस पर मालदारों का जवाब था कि यहां की मुद्रा वहां चले न चले, उनका इरादा उसे बरबादी से बचाना था।

दबाव ज़्यादा बढ़ा तो सरकार की तरफ से निर्णय लिया गया कि तत्काल एक ताकतवर अंतरिक्ष-यान पर काम शुरू किया जाए जो स्वर्ग और नरक तक पहुंच सके और फिर वहां कुछ बैंकों की शाखाएं खोली जाएं जहां मालदारों का माल ट्रांसफर किया जा सके। इसके लिए ऊपर पहुंचे हुए बैंक कर्मचारियों, अधिकारियों की मदद ली जा सकती है।

सरकार से निर्देश पाकर वैज्ञानिक एक पावरफुल अंतरिक्ष-यान के निर्माण में जुट गये हैं जो स्वर्ग और नरक को ढूंढ़ निकालेगा। दूसरी तरफ मालदारों के परिवार-रिश्तेदार ऊपर वाले से प्रार्थना करने में जुट गये हैं कि वैज्ञानिकों की कोशिश कारगर न हो।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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