ई-अभिव्यक्ति: संवाद-24 – हेमन्त बावनकर

ई-अभिव्यक्ति:  संवाद–24          

विश्व की प्रत्येक भाषा का समृद्ध साहित्य एवं इतिहास होता है, यह आलेखों में पढ़ा था। किन्तु, इसका वास्तविक अनुभव मुझे ई-अभिव्यक्ति  में सम्पादन के माध्यम से हुआ। हिन्दी, मराठी एवं अङ्ग्रेज़ी के विभिन्न लेखकों के मनोभावों की उड़ान उनकी लेखनी के माध्यम से कल्पना कर विस्मित हो जाता हूँ। प्रत्येक लेखक का अपना काल्पनिक-साहित्यिक संसार है। वह उसी में जीता है। अक्सर बतौर लेखक हम लिखते रहते हैं किन्तु, पढ़ने के लिए समय नहीं निकाल पाते। मैं स्वयं को सौभाग्यशाली मानता हूँ जो मुझे इतनी विभिन्न विचारधाराओं के प्रतिभावान साहित्यकारों की रचनाओं को आत्मसात करने का अवसर प्राप्त हुआ।

आज के अंक में सुश्री सुषमा भण्डारी जी की कविता “ये जीवन दुश्वार सखी री” अत्यंत भावप्रवण कविता है। इस कविता की भाव शैली एवं शब्द संयोजन आपको ना भाए यह कदापि संभव ही नहीं है।

सुश्री प्रभा सोनवणे जी  हमारी  पीढ़ी की एक वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं । स्कूल-कॉलेज के वैर-मित्रता के क्षण, सोशल मीडिया के माध्यम से सहेलियों का पुनर्मिलन और नम नेत्रों से विदाई। किन्तु, इन सबके मध्य स्वर्णिम संस्मरणों की अनुभूति। समय और पारिवारिक जिम्मेवारियों के साथ हम कितना बदल जाते हैं इसका हमें भी एहसास नहीं होता। हमें हमारे अस्तित्व से रूबरू कराती हुई वृत्ती -निवृत्ती  जैसी लघुकथा सुश्री प्रभा सोनवणे जी जैसी संवेदनशील लेखिका ही लिख सकती हैं।

अन्त में मराठी साहित्य से जुड़े मराठी कवियों के लिए एक सूचना राज्यस्तरीय आयोजन  *काव्य स्पंदन!!!*  (साभार – कविराज विजय यशवंत सातपुते) में सहभागिता के लिए।

 

आज बस इतना ही,

हेमन्त बवानकर 

18 अप्रैल 2019

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ई-अभिव्यक्ति: संवाद-23 – हेमन्त बावनकर

ई-अभिव्यक्ति:  संवाद–23          

आज के अंक में सौ. सुजाता काळे जी की कथा ‘वेळ’ इस भौतिकवादी एवं स्वार्थी संसार की झलक प्रस्तुत करती है। इस मार्मिक एवं भावुक कथा के एक-एक शब्द , एक-एक पंक्तियाँ एवं एक-एक पात्र हमें आज के मानवीय मूल्यों में हो रहे ह्रास का एहसास दिलाते हैं । ऐसा लगता है कि हम यह कथा नहीं पढ़ रहे अपितु, हम एक लघु चलचित्र देख रहे हैं। हिन्दी में ‘वेळ’ का अर्थ होता है ‘समय’। कोई भावनात्मक रूप से सारा जीवन, सारा समय आपकी राह देखने में गुजार देता है और आपके पास समय ही नहीं होता या कि आप स्वार्थ समय ही नहीं देना चाहते। स्वार्थ का स्वरूप कुछ भी हो सकता है। फिर एक समय ऐसा भी आता है जब आप अपना तथाकथित कीमती समय सामाजिक मजबूरी के चलते देना चाहते हैं किन्तु ,अगले के पास समय कम होता है या नहीं भी होता है ।  यह जीवन की सच्चाई है। मैं इस भावनात्मक सच्चाई को कथास्वरूप में रचने के लिए सौ. सुजाता काळे जी की लेखनी को नमन करता हूँ।

विख्यात साहित्यकार  श्री संजय भारद्वाज जी पुणे की सुप्रसिद्ध साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्था “हिन्दी आन्दोलन परिवार, पुणे” के अध्यक्ष भी हैं।  श्री संजय भारद्वाज जी का ‘जल’ तत्व पर रचित यह ललित लेख जल के महत्व पर व्यापक प्रकाश डालता है। जल से संबन्धित शायद ही ऐसा कोई तथ्य शेष हो जिसकी व्याख्या  श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा इस लेख में न की गई हो।

We presented the amazingly scripted poem by Ms. Neelam Saxena Chandra’ ji. This amazing poem on thoughts has an amazing control on thoughts too.  I tried to play with thoughts. I tried to keep them in my pocket.  Alas! they slipped and slipped away.  Finally, I concluded that there is no switch in the human brain so that one  can switch off the thinking process. I salute Ms. Neelam ji  to pen down such a beautiful poem for which sky is the limit.

भविष्य में  भी ऐसी ही और अधिक उत्कृष्ट, स्तरीय, सार्थक एवं सकारात्मक साहित्यिक अभिव्यक्तियों  के लिए मैं सदैव तत्पर एवं कटिबद्ध हूँ।

आज बस इतना ही,

हेमन्त बवानकर 

17 अप्रैल 2019

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ई-अभिव्यक्ति: संवाद-22 – हेमन्त बावनकर

ई-अभिव्यक्ति:  संवाद–22         

साहित्यकार की किसी भी रचना रचने के पीछे अवश्य ही उसका अपना कोई ना कोई इतिहास, घटना/दुर्घटना अथवा ऐसा कोई तो तथ्य अवश्य रहता होगा जो साहित्यकार को नेपथ्य में प्रोत्साहित अथवा उद्वेलित करता होगा जिसकी परिणति उस रचना को कलमबद्ध कर आप तक पहुंचाने की प्रक्रिया का अंश होता है । जब तक साहित्यकार, चाहे किसी भी विधा में क्यों न हो, अपने हृदय में दबे हुए उद्गार कलमबद्ध न कर दे कितना छटपटाता होगा इसकी कल्पना कतिपय पाठक की परिकल्पना से परे है।

विगत दो तीन दिनों के अंतराल में सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी की अङ्ग्रेज़ी कविताओं  “Tearful adieu” एवं “Fear of Future” और आज डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव जी की कविता “यद्यपि नवदुर्गा का स्वरूप है” ने काफी उद्वेलित किया।

मुझे अनायास ही लगा कि गर्भ में पल रहे बच्चे की मनोभावनाओं की परिकल्पना क्या इतनी सहज एवं आसान है? क्या स्त्री कवियित्रि  उन मनोभावों को किसी पुरुष कवि की परिकल्पना से अधिक सहज स्वरूप दे सकती है। एक पाठक के रूप में यह मेरी भी परिकल्पना से परे है। इन्हीं तथ्यों पर आधारित मेरी एक कविता आपसे साझा करना चाहता हूँ। अब यह आप ही तय करें।

 

स्वागत!

जब से आहट दी है तुमने,

मुझमे यह एहसास जगाया है।

मानो किसी दूसरी दुनिया से

कोई शांति दूत सा आया है।

जब गर्भ में हलचल देकर

अपना एहसास दिलाते हो।

ऐसा लगता है जैसे मुझको

तुम अन्तर्मन से बुलाते हो।

सारी रात तुम्हारे भविष्य के

हम सपने रोज सँजोते हैं।

मैं सुनाती हूँ प्यारी लोरी

पिता कहानी रोज सुनाते हैं।

यह मेरा सौभाग्य है जो तुम

मेरी ही कोख में आए हो।

दादा-दादी कहते नहीं थकते

तुम पिछली पीढ़ी के साये हो।

स्वप्न देखकर पिछली पीढ़ी ने

हमको आज यहाँ पहुंचाया है।

अब आसमान छूना है तुमको

यही स्वप्न हमें दिखलाया है।

ना जाने तुम अपने संसार में

कैसे यह एकांत बिताते हो ?

क्या खाते हो? क्या पीते हो?

कुछ भी तो नहीं बताते हो?

तन आकुल है, मन आकुल है

तुम्हारी एक झलक पाने को।

बाहें आकुल हैं, हृदय आकुल है

अपने हृदय से तुम्हें लगाने को।

शरद, ग्रीष्म और वर्षा ऋतु से

प्रकृति ने ही तुमको बचाया है।

शांत सुरम्य बर्फ की चादर ने

स्वागत में आँचल फैलाया है।

सह सकती हूँ कैसी भी पीड़ा

तुम्हें इस संसार में लाने को।

नौ माह लगते हैं नौ युग से

तुम्हें इस संसार में लाने को।

सभी धार्मिक स्थलों के दर पर

हमने अपना माथा टिकाया है।

सांसारिक शक्तियों ने तुम्हारा

अस्तित्व मुझमें मिलाया है ।

यह जीवन अत्यंत कठिन है

यह कैसे तुमको समझाउंगी?

मैंने भी मन में यह ठानी है

तुम्हें अच्छा इंसान बनाऊँगी।

 

आज बस इतना ही।

हेमन्त बावनकर 

16 अप्रैल 2019

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ई-अभिव्यक्ति: संवाद-21 – हेमन्त बावनकर

ई-अभिव्यक्ति:  संवाद–21        

आपसे संवाद करना और आपकी प्रतिक्रियाएँ जानना फिर उन पर अमल करना मुझे इस क्षेत्र में कुछ करने हेतु सकारात्मक ऊर्जा देता है।

सम्मानित लेखक मित्रों की रचनाएँ अधिक से अधिक पाठकों द्वारा पढ़ी और सराही जाती है तो लगता है कि लेखक मित्र का लेखन सफल हो गया है और मेरा प्रयोग/ प्रयास सार्थक हो रहा है।

इस सम्पूर्ण प्रक्रिया में लेखक/पाठक मित्रों का योगदान सराहनीय है। आज प्रातः इन पंक्तियों के लिखे जाने तक  जब e-abhivyakti के डेशबोर्ड पर दृष्टि डाली तो हृदय प्रफुल्लित हो उठा। लेखक पाठक मित्रों द्वारा पोर्टल पर विजिटर्स की बढ़ती हुई संख्या (12,600+) का बढ़ता हुआ ग्राफ कुछ और नया प्रयोग करने हेतु प्रोत्साहित करता है।

आज के दौर में जब स्तरीय पत्रिकाएँ बाजार से गुम होती जा रहीं हैं ऐसे में डिजिटल मंच पर ई-अभिव्यक्ति जैसे प्रयोग आशा की किरण हैं।

कुछ लेखक मित्रों ने उत्सुकता वश जानना चाहा कि उनकी रचनाएँ कितने पाठकों द्वारा पढ़ी गई?

यदि आप इसे तुलनात्मक दृष्टि से न लें और स्वस्थ प्रतियोगिता की दृष्टि से लें तो मैं गत एक माह में पाठकों द्वारा दस सर्वाधिक पढ़ी गई रचनाएँ एवं उनका लिंक आपसे शेयर करना चाहूँगा। इन्हें आप सांकेतिक रूप से ले सकते हैं क्योंकि इनमें वे संख्याएं सम्मिलित हैं जो पाठकों द्वारा शॉर्ट लिंक का उपयोग करते हुए पढ़ी गईं हैं। इनमें वे संख्याएँ  सम्मिलित नहीं हैं जो पाठकों द्वारा सीधे पोर्टल पर जाकर पढ़ी गईं हैं। अतः वास्तविक पाठकों की संख्या इससे अधिक हो सकती है। 

  • APRIL 4 मराठी कविता – ☆ असीम बलिदान ‘पोलीस’ ☆ – श्री संतोष ज्ञानेश्वर भुमकर – 263 पाठक – ly/2CWKVcW
  • APRIL 11 हिन्दी कविता – ? सुनहरे पल……… ? – सुश्री बलजीत कौर ‘अमहर्ष’ – 242 पाठक – ly/2GdvHlD
  • APRIL 6 – मराठी आलेख – ? आनंदाचं फुलपाखरू ?- श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे – 150 पाठक – ly/2G2Evuy
  • APRIL 3 – हिन्दी कविता ☆ दोहे ☆ – सुश्री शारदा मित्तल – 116 पाठक -ly/2WCzTRi
  • MAR 18 – मराठी आलेख – * विषवल्ली.. . ! * – डॉ. रवींद्र वेदपाठक – 77 पाठक – ly/2TGFglD
  • APRIL 5 – हिन्दी कविता – ☆ मैं तेरा प्रणय तपस्वी आया हूँ ☆ – डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव – 68 पाठक – bit.ly/2UiieBV
  • MAR 26 – रंगमंच स्मृतियाँ – “कोर्ट मार्शल” – श्री समर सेनगुप्ता एवं श्री अनिमेष श्रीवास्तव – 66 पाठक -ly/2HHXQU8
  • APRIL 4 – हिन्दी – लघुकथा – ☆ फर्ज़ ☆ – सुश्री ऋतु गुप्ता – 59 पाठक -ly/2OMbTZv
  • APRIL 3 – मराठी कविता – ☆ अळवाचं पाणी ☆ – श्रीमति सुजाता काले – 59 पाठक – ly/2OG4VFm
  • APRIL 12 – हिन्दी कविता ☆ मुक्ता जी के मुक्तक ☆ –डा. मुक्ता – 57 पाठक -ly/2KxhX9F

आज पत्रिकाएं खरीद कर और साझा कर पढ़ने वाले पाठकों की संख्या में निरंतर गिरावट आ रही है। पुस्तकालय बंद होने की कगार पर हैं। ऐसे में यदि मित्र लेखक / पाठक विभिन्न सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर, व्हाट्सएप्प या फेसबुक पर लिंक शेयर कर अधिकतम लेखकों /पाठकों तक रचनाओं को उपलब्ध कराने में सफल होते हैं तो निश्चित ही यह प्रयोग सफल होगा।

आज बस इतना ही।

हेमन्त बावनकर 

 

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ई-अभिव्यक्ति: संवाद-20 – हेमन्त बावनकर

ई-अभिव्यक्ति:  संवाद–20       

 

आज सुश्री निशा नंदिनी जी की कविता नेत्रदान ने मुझे मेरी एक पुरानी कविता ये नेत्रदान नहीं – नेत्रार्पण हैं की याद दिला दी जो मैं आपसे साझा करना चाहूँगा:

(यह कविता दहेज के कारण आग से झुलसी युवती द्वारा मृत्युपूर्व नेत्रदान के एक समाचार से प्रेरित है )

 

ये नेत्रदान नहीं – नेत्रार्पण हैं

सुनो!

ये नेत्र

मात्र नेत्र नहीं

अपितु

जीवन यज्ञ वेदी में

तपे हुये कुन्दन हैं।

 

मैंने देखा है,

नहीं-नहीं

मेरे इन नेत्रों ने देखा है

आग का एक दरिया

माँ के आँचल की शीतलता

और

यौवन का दाह।

 

विवाह मण्डप

यज्ञ वेदी

और सात फेरे।

नर्म सेज के गर्म फूल

और ……. और

अग्नि के विभिन्न स्वरुप।

 

कंचन काया

जिस पर कभी गर्व था

मुझे

आज झुलस चुकी है

दहेज की आग में।

 

कहाँ हैं – ’वे’?

कहाँ हैं?

जिन्होंने अग्नि को साक्षी मान

हाथ थामा था

फिर

दहेज की अग्नि दी

और …. अब

अन्तिम संस्कार की अग्नि देंगे।

 

बस

एक गम है।

साँस आस से कम है।

जा रही हूँ

अजन्में बच्चे के साथ

पता नहीं

जन्मता तो कैसा होता/होती ?

हँसता/हँसती  ….. खेलता/खेलती

खिलखिलाता/खिलखिलाती या रोता/रोती?

 

किन्तु, माँ!

तुम क्यों रोती हो?

और भैया तुम भी?

दहेज जुटाते

कर्ज में डूब गये हो

कितने टूट गये हो?

काश!

…. आज पिताजी होते

तो तुम्हारी जगह

तुम्हारे साथ रोते!

मेरी विदा के आँसू तो

अब तक थमे नहीं

और

डोली फिर सज रही है।

 

नहीं …. नहीं

माँ !

बस अब और नहीं

अब

ये नेत्र किसी को दे दो।

दानस्वरुप नहीं

दान तो वह करता है

जिसके पास कुछ होता है।

 

अतः

यह नेत्रदान नहीं

नेत्रार्पण हैं

सफर जारी रखने के लिये।

 

सुनो!

ये नेत्र

मात्र नेत्र नहीं

अपितु,

जीवन यज्ञ वेदी में

तपे हुये कुन्दन हैं।

रचना  – 2 दिसम्बर 1987

आज बस इतना ही।

हेमन्त बावनकर

7  अप्रैल 2019

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ई-अभिव्यक्ति: संवाद-18 – हेमन्त बावनकर

ई-अभिव्यक्ति:  संवाद–18      

कल चाहकर भी आपसे संवाद न कर सका।  उम्र के साथ कई बार समय तो कई बार शरीर भी साथ नहीं दे पाता। किन्तु आपके व्हाट्सएप्प एवं फोन पर व्यक्तिगत संदेश मुझे  संबल प्रदान करते रहते हैं। कुछ और नवीन रचनाएँ साझा करने हेतु प्रोत्साहित करते रहते हैं।

किसी भी दिन के लिए रचनाएँ चुन कर आपको प्रस्तुत करना किसी जादुई बक्से में से विभिन्न विधाओं और जीवन के विभिन्न रंगो से भरी रचनाएँ प्रस्तुत करने जैसा होता है।

इस संदर्भ में मुझे मेरी कविता “मकबूल फिदा हुसैन – हाशिये में” की निम्न पंक्तियाँ याद आती हैं:

मै दुनिया को देखता हूँ

एक मासूम बच्चे की आँखों से।

मेरे लिये

प्रत्येक दिन आता है

एक जादू के बक्से में बन्द

अद्भुत

नजारो और रंगों से भरपूर

रंगों के प्रयोगों से भरपूर।”

और वास्तव में स्थायी स्तम्भ श्रीमद्भगवत गीता एवं श्री जगत सिंह बिष्ट जी की योग साधना के साथ ही आज की रचनाएँ किसी जादू के बक्से में बंद रचनाओं से कम नहीं है।

श्री संतोष ज्ञानेश्वर भुमकर जी की मराठी कविता “असीम बलिदान ‘पोलीस’” हमें सोचने के लिए मजबूर करती है कि पुलिस अथवा सेना में कार्यरत जवानों का हृदय भी हमारी तरह ही धड़कता है।  वे भी हमारी तरह सोच रखते हैं। वे भी हमारी तरह जीवन के गीत गाते हैं साहित्य रचते  हैं। सैनिक यदि राष्ट्र की सीमाओं पर हमारे राष्ट्र की रक्षा करते हैं तो पुलिस राष्ट्र की आंतरिक सुरक्षा कर समाज एवं राष्ट्र की रक्षा करते हैं जिसके कारण आप और हम चैन की नींद सोते हैं।  एक भूतपूर्व सैनिक होने के कारण मैं पुलिस/सैन्य जीवन के इस तथ्य की महत्ता को सशक्त रूप से आपके समक्ष रख सकता हूँ।

सुश्री ऋतु गुप्ता जी की लघु कथा हमें अपने व्यवसाय/कर्मभूमि के अतिरिक्त परिवार एवं समाज के प्रति फर्ज़ (कर्तव्य) का पाठ सिखाती है। डॉ प्रदीप शशांक जी की लघुकथा “सर्जिकल स्ट्राइक” धर्म सम्प्रदाय की कट्टरपंथी सोच पर तमाचा है। शशांक जी की लघुकथा हमें यह सोचने पर मजबूर करटी है कि क्या सर्जिकल स्ट्राइक जैसे शब्दों का प्रयोग सामाजिक परिवेश के सुधार/उत्थान के लिए भी किया जा सकता है?

आज बस इतना ही।

हेमन्त बावनकर

4 अप्रैल 2019

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ई-अभिव्यक्ति: संवाद-16 – हेमन्त बावनकर

ई-अभिव्यक्ति:  संवाद–16    

मैं अक्सर आपसे अपनी एक प्रिय नज्म की पंक्तियाँ टुकड़ों में साझा करता रहता हूँ।

यदि आप गौर करेंगे तो पाएंगे यह मेरी ही नहीं तकरीबन मेरे हर एक समवयस्क मित्रों की भी अभिव्यक्ति है।

आज मैं अपनी वही नज़्म आपसे संवाद स्वरूप साझा करना चाहता हूँ।

एहसास 
जब कभी  गुजरता हूँ  तेरी  गली  से  तो क्यूँ ये एहसास होता है 
जरूर   तुम्हारी निगाहें भी कहीं न कहीं खोजती होंगी मुझको।
बाग के दरख्त जो कभी गवाह रहे हैं हमारे उन हसीन लम्हों के  
जरूर उस वक्त वो भी जवां रहे होंगे इसका एहसास है मुझको। 
बाग के फूल पौधों से छुपकर लरज़ती उंगलियों पर पहला बोसा 
उस पर वो  झुकी निगाहें सुर्ख गाल लरज़ते लब याद हैं मुझको।  
कितना  डर  था हमें उस जमाने में सारी दुनिया की नज़रों का 
अब बदली फिजा में बस अपनी नज़रें घुमाना पड़ता है मुझको। 
वो  छुप छुप कर मिलना वो चोरी  छुपे  भाग कर फिल्में देखना 
जरूर समाज के बंधनों को तोड़ने का जज्बा याद होगा तुमको।  
सुरीली धुन और खूबसूरत नगमों  के हर लफ्ज के मायने होते थे
आज क्यूँ नई धुन में नगमों के लफ्ज  तक  छू  नहीं पाते मुझको।   
  
वो शानोशौकत की निशानी साइकिल के पुर्जे भी जाने कहाँ होंगे 
यादों की मानिंद कहीं दफन हो गए हैं इसका एहसास है मुझको।  
इक दिन उस वीरान कस्बे में काफी कोशिश की तलाशने जिंदगी 
खो गये कई दोस्त जिंदगी की दौड़ में जो दुबारा  न  मिले मुझको। 
दुनिया के शहरों से रूबरू हुआ जिन्हें पढ़ा था  कभी किताबों में 
उनकी खूबसूरती के पीछे छिपी तारीख ने दहला दिया मुझको।  
अब ना किताबघर  रहे  ना किताबें ना ही उनको पढ़ने वाला कोई
सोशल साइट्स पर कॉपी पेस्ट कर सब ज्ञान बाँट  रहे हैं मुझको।  
अब तक का सफर तय किया एक तयशुदा राहगीर की मानिंद 
आगे का सफर पहेली है इसका एहसास न तुम्हें  है  न  मुझको।  
आज बस इतना ही

हेमन्त बावनकर

1 अप्रैल 2019

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ई-अभिव्यक्ति: संवाद-15 – हेमन्त बावनकर

ई-अभिव्यक्ति:  संवाद–15   

मैं ईश्वर का अत्यंत आभारी हूँ जिन्होने मुझे e-abhivyakti के माध्यम कई वरिष्ठ, समवयस्क एवं नवोदित साहित्यकार मित्रों से जोड़ दिया है। कई मित्रों से व्यक्तिगत तौर से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। अधिकतर  मित्रों से फोन पर बात हुई और कई मित्रों से ईमेल पर।

जीवन भी अजीब पहेली है, अजीब खेल खेलता है। वह हमें जीवन में कई मित्रों से मिलाता है। कई मित्र जिनके नाम से हम परिचित होते हैं किन्तु कभी मिल नहीं पाते। कई मित्र जीवन के किसी भी मोड पर मिल जाते हैं। कई तो अंजाने ही मिल जाते हैं जिसकी हमने कभी कल्पना ही नहीं की थी।  कई मित्र तो हमारे जीवन से इतने जुड़ जाते हैं कि हम यह जान ही नहीं पाते कि वे कब मित्र से परिवार के सदस्य बन गए। कई मित्र तो किसी गलतफहमी का शिकार होकर रूठ भी जाते हैं। कई बहकावे में भी आ जाते हैं। फिर शक का तो कोई इलाज ही नहीं होता।कुछ मित्र चालाकी से अपना काम निकाल कर अपनी राह चल देते हैं। कई मित्र तो ऐसे भी होते हैं जिनसे हम जीवन में कभी भी नहीं मिले किन्तु, वे मित्र धर्म निभाना नहीं भूलते। कई मित्रों की संवेदना देखते ही बनती है। फिर संवेदनशील मित्र ही मित्र की भावना को परख लेता है। अधिकतर साहित्यकार मित्र संवेदनशील हैं अन्यथा वे अपनी कविता, कहानी, आलेखों में अनदेखे स्वप्नों को साहित्यिक स्वरूप नहीं दे पाते।

आज कविराज विजय यशवंत सातपुते जी की मराठी कविता *उन्हाळी सुट्टी* ने तो अनायास ही बचपन के कई मित्रों की याद दिला दी जिनके साथ गर्मियों छुट्टियों बिताया करते थे।

उनकी निम्न पंक्तियाँ अनायास ही हमारा गुजरा बचपन याद दिला देता है ।

आला उन्हाळा, घरी बसा रे , दटावती सारे
बैठे खेळ ते बुद्धीबळाचे ,देऊ गेमला सुट्टी.
अशी ऊन्हाळी सुट्टी आमच्या होती बालपणात
सोडून गेले  शाळू सोबती, आता नाही बट्टी. . . !

इस संदर्भ में मुझे अपनी कविता की दो पंक्तियाँ याद आ रही हैं:

 

इक दिन उस वीरान कस्बे में काफी कोशिश की तलाशने जिंदगी

खो गए कई दोस्त जिंदगी की दौड़ में जो दुबारा ना मिले मुझको। 

आज बस इतना ही

हेमन्त बावनकर

31 मार्च 2019

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ई-अभिव्यक्ति: संवाद-14 – हेमन्त बावनकर

ई-अभिव्यक्ति:  संवाद–14  

साहित्य में नित नए प्रयोग करने के लिए हम कृतसंकल्प हैं।

विगत जबलपुर प्रवास के दौरान संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ व्यंग्यकार मित्र श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी से चर्चा के दौरान पता चला कि उन्होने  साहित्य में  एक  प्रयोग करने का प्रयास किया जो कि वास्तव में सफल सिद्ध हुआ।

हमें सम्पूर्ण राष्ट्र से विभिन्न वरिष्ठ लेखकों से साहित्य के विभिन्न स्वरूपों एवं विभिन्न विधाओं में 30 से अधिक उत्तर प्राप्त हुए हैं जो अपने आप में मिसाल हैं। जिन्हें हम क्रमानुसार आपसे साझा कर रहे हैं।

इस संदर्भ में आप ई-अभिव्यक्ति संवाद-2 का अवलोकन करें। 

हम लोग बड़े सौभाग्यशाली हैं की हमारी पीढ़ी के कई साहित्यकारों का  हरीशंकर परसाईं जी से प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष सरोकार रहा है। उनमें मेरे एक वरिष्ठ साहित्यकार मित्र  श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी भी हैं।  हाल ही में मुझे उनका एक संदेश मिला जो निश्चित ही मेरे मित्रों को भी मिला होगा यह संदेश मैं आपसे साझा करना चाहता हूँ ताकि आप भी उस खेल में सहभागी बन सकें।

इस खेल में आप अपना उत्तर हिन्दी, मराठी या अङ्ग्रेज़ी में प्रेषित कर सकते हैं।  

महोदय जी,

कृपया इस सवाल का जवाब कम से कम 100 शब्दों में और अधिक से अधिक 800 शब्दों में देने का कष्ट करें 

प्रश्न –  आज के संदर्भ में लेखक क्या समाज के घोड़े की आँख है या लगाम?

उत्तर –  (उत्तर के साथ अपना चित्र भी भेजें) 

 

 (उत्तर आप  [email protected] पर प्रेषित कर सकते हैं।)

फिर देर किस बात की उठाइये अपनी कलम और दौड़ा दीजिये दिमाग के घोड़े, समाज के घोड़े के लिए।

 

आज बस इतना ही

 

हेमन्त बावनकर

30 मार्च 2019

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ई-अभिव्यक्ति: संवाद-13 – हेमन्त बावनकर

ई-अभिव्यक्ति:  संवाद–13   

कल ई-अभिव्यक्ति-संवाद में हमने मुख्यतया दो विषयों पर चर्चा की थी उस आधार पर एक व्हाट्सएप्प ग्रुप www.e-abhivyakti.com बनाया गया है जिसके माध्यम से आपको प्रतिदिन प्रकाशित रचनाओं की जानकारी मिल सकेगी। हाँ, आप इस ग्रुप में कुछ पोस्ट नहीं कर पाएंगे। इसके लिए आपको अपनी रचनाएँ एवं संवाद मेरे व्यक्तिगत व्हाट्सएप्प नंबर पर ही पोस्ट करना होगा अन्यथा आपकी पोस्ट तो लोग व्हाट्सएप्प पर ही पढ़ लेंगे और प्रकाशित रचनाओं का आनंद लेने से सभी वंचित रह जाएंगे। और मुझे प्रत्येक सम्माननीय लेखकों को उनकी प्रकाशित रचनाओं की सूचना अलग से देने की आवश्यकता नहीं होगी। मुझे खुशी है कि कई लेखकगण मेरी बात से सहमत हो गए हैं। मुझे पूर्ण आशा है कि आप भी मुझसे सहमत होंगे।

इसके अतिरिक्त हमने स्व-प्रकाशन (Self-Publication) के बारे में चर्चा की थी। इस प्रक्रिया से आज अधिकतर लेखक मित्र अवगत हैं। इस प्रक्रिया के कारण प्रिंट ऑन डिमांड (POD) की मांग अचानक ही बढ़ गई है। लेखक अपने पसीने की कमाई और अपने कठोर परिश्रम से पुस्तकें तो प्रकाशित कर लेते हैं किन्तु, वे अपनी पुस्तकों का बाजार नहीं बना पाते हैं। साहित्य की रचना करना एक बात है और उसका विक्रय करना दूसरी बात है।

मेरे अधिकतर मित्र मुद्रित संस्करणों के बारे में जानते हैं। यदि नवीन पीढ़ी की बात छोड़ दी जाए तो मेरी समवयस्क एवं वरिष्ठ पीढ़ी ई-बुक्स की तकनीकी जानकारी से अनभिज्ञ हैं। ई-बुक्स में अमेज़न, फ्लिपकार्ट, बुकबेबी जैसी ऑनलाइन प्रणालियाँ  ई-बुक्स के व्यापार में क्रांतिकारी साबित हुए हैं। हम ई-बुक्स को अपने मोबाइल, टेबलेट, लेपटोप, डेस्कटॉप आदि में डाउनलोड कर आसानी पुस्तक जैसे पढ़ सकते हैं।

लेखक गण अपनी पुस्तकों को आसानी से ई-बुक्स में परिवर्तित कर ऑनलाइन स्टोर्स में अपलोड कर बेच सकते हैं। अमेज़न की किंडल डाइरेक्ट पब्लिशिंग प्रक्रिया एक आसान प्रणाली है। संभवतः हमारे युवा लेखक इस प्रक्रिया को जानते हैं। यदि आप इस बारे में और ज्यादा जानकारी चाहते हैं तो प्रथम लिंक पर लॉग-इन कर विस्तृत जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। द्वितीय लिंक के माध्यम से आप विस्तार से ई-बुक प्रकाशन की तकनीक सीख सकते हैं।

https://kdp.amazon.com/en_US/

https://kdp.amazon.com/en_US/help/topic/G200635650

मैं आशा करता हूँ कि मित्र लेखकों के लिए उपरोक्त जानकारी उपयोगी साबित होगी। इसके माध्यम से आप अङ्ग्रेज़ी के अतिरिक्त कई भारतीय भाषाओं में ई-बुक्स तैयार कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त भारत में भी नोशन प्रेस , पोथी डॉट कॉम आदि कई अन्य कंपनियाँ भी ई-बुक्स तैयार करने में मदद करते हैं। जिसके बारे में आप उनकी साइट पर जाकर जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।

आज बस इतना ही ।

हेमन्त बावनकर

29 मार्च 2019

(ई-बुक्स से संबन्धित उपरोक्त जानकारी  उपलब्ध कराने का उद्देश्य मात्र आपको इस प्रक्रिया से अवगत करना है एवं किसी भी प्रकार की मार्केटिंग कतिपय नहीं है। )

 

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