श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “गुणगान।)

?अभी अभी # 705 ⇒ गुणगान ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

भक्ति और देशभक्ति का अर्थ ही मेरे देश की धरती और मेरे आराध्य इष्ट, मातृ शक्ति, सदगुरु एवं परम पिता परमेश्वर का गुणगान है। तेरा तुझको अर्पण, क्या लागे मेरा।

सबसे निराली महिमा है भाई, दो अक्षर के राम की, जय बोलो सियावर राम की। राम का गुणगान करिये। राम प्रभु की भद्रता का, सभ्यता का ध्यान धरिये। नमन करना, वंदना करना, नाम लेना, मंत्र का जाप करना, अथवा प्रार्थना करना, सभी उसी ईश्वरीय शक्ति का गुणगान ही तो है।।

जो गुणवान है, सर्व शक्तिमान है, ज्ञान दाता और मोक्ष दाता है, उससे हमारा एक जन्म का नहीं, कई जन्मों का नाता है। उसका रूप भी हो सकता है, कोई आकार भी हो सकता है, और वह निर्गुण निराकार भी हो सकता है। रिश्ते में वह आपकी मां भी हो सकती है, और आपका बाप भी हो सकता है।

गुण के गाहक सहस नर !

हमारे दैनिक उपयोग के उत्पादों का विज्ञापन क्या उनका गुणगान नहीं है।

हमारे नेताओं की, अमर शहीदों की, और धार्मिक उत्सवों और जुलूसों में जो जय जयकार होती है, क्या वह गुणगान नहीं है। स्तुति का अर्थ भी गुणगान ही होता है। हमारे वेदों की ऋचाओं और संस्कृत के सुभाषितों में जहां जहां नमः का प्रयोग हुआ है, वह भी गुणगान ही है।।

निंदा स्तुति मनुष्य का स्वभाव है। अपने हित और आत्म कल्याण की भावना अगर उसे किसी के गुणगान की ओर प्रवृत्त करती है तो लालच, खुदगर्जी और स्वार्थ उसे किसी की निंदा के लिए मजबूर करता है।

कहीं किसी की सात्विक प्रवृत्ति है तो किसी की तामसिक। हमारे अंदर ही देवासुर संग्राम चल रहा है और हमें उसका पता ही नहीं है।

किसी की तारीफ करना, प्रशंसा करना अथवा बधाई करना हमें बचपन से ही घुट्टी की तरह पिलाया जाता है। बड़ों का आदर, सदा सच बोलना, चोरी नहीं करना, किसी की निंदा नहीं करना और सदा ईश्वर का ध्यान करना। यानी सदाचार का तावीज आपको पहना दिया जाता है।।

जहां प्रेम है, वहां प्रशंसा है। गोरी तेरा गांव बड़ा प्यारा, मैं तो गया मारा, आके यहां रे ! आप इसे फिल्मी गीत कहें अथवा कविता, आखिर यह भी तो गुणगान ही है। गीत, संगीत, भजन, आरती, सत्संग और प्रवचन, कहां नहीं गुणगान।

फूलों का खिलना, पक्षियों का कलरव, बच्चों का खिलखिलाना, नदी का कलकल बहना और झरनों का गिरना क्या हमें यह सोचने और गुणगान करने पर मजबूर नहीं करता, ये कौन चित्रकार है। सिर पर लाखों तारों वाला नीला आसमान छतरी की तरह तना हुआ है, पृथ्वी घूम रही है, फिर भी हम कभी स्थिर और स्थितप्रज्ञ हैं, तो कभी चंचल और चलायमान। तो क्यों न करें, सिर्फ उस सर्वशक्तिमान का गुणगान।।

आप स्वतंत्र हैं गुणगान के लिए, जिसका चाहे करें।

अपने माता पिता, बंधु सखा अथवा गुरुजन का।

इस वसुंधरा का करें, मातृभूमि का करें, अपने सदगुरु का करें, अथवा अपने प्रिय नेता का। आपका विवेक सदा आपका साथ दे। बस निंदा किसी की ना करें।

बड़ा आसान है किसी का गुणगान करना, लेकिन उससे भी मुश्किल है किसी की निंदा नहीं करना। जहां निंदा का अभाव है, वहां गुणगान ही गुणगान है।

वैसे तो आप आप स्वयं भी गुणों की खान हैं। होते हैं कुछ ऐसे गुणीजन, जो स्वयं के गुणों को पहचान जाते हैं, और उनका गुणगान अपने मुंह से करते नहीं अघाते। जीवन से उदासी, निराशा, अवसाद और नकारात्मकता को दूर करने का सबसे अच्छा उपाय यही है, सकारात्मक सोच। खुद को किसी से कम नहीं आंकना। यहां आपको अपने दोष नहीं, गुण ही गुण नजर आते हैं। आत्मप्रशंसा उनका स्वभाव बन जाता है। आप स्वयं तो अपना गुणगान करते ही हैं, आप चाहते हैं, लोग भी आपकी तारीफ करें। वैसे भी तारीफ का भूखा कौन नहीं। लेकिन जब ईश्वर के समक्ष प्रार्थना करते हैं, तो यह भी कहना नहीं भूलते,

प्रभु मोरे अवगुन

चित ना धरो।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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