(पुकारा है ज़िन्दगी को कई बार -Dear CANCER … ये पुस्तक है कैंसर से संघर्ष और जीजिविषा की श्रीमति लतिका बत्रा जी की आत्मकथात्मक दास्तान। श्रीमति लतिका बत्रा जी के ही शब्दों में – “ये पुस्तक पढ़ कर यदि एक भी व्यक्ति का जीवन के प्रति दृष्टिकोण सकरात्मकता से रौशन हो जाये तो अपना लिखा सफल मानूँगी।”
आज प्रस्तुत है उनकी ही कविता – “कैंसर हॉस्पिटल”। कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी ने इस कविता का अंग्रेजी भावानुवाद Oncology Sanatorium” शीर्षक से किया है।)
आप इस कविता का भावानुवाद इस लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं। 👉 Oncology Sanatorium – Captain Pravin Raghuvanshi, NM  

? कविता – कैंसर हॉस्पिटल – श्रीमति लतिका बत्रा ? ?

?

जीवन को लेकर दौड़ती – भागती सड़क

उस पार–                                                           

गदराये गुलमोहर और गेरुए पलाश

और

एक भव्य इमारत।

पसरी है एक अभिशप्त सृष्टि

और मृत्यु की वर्तनी

काँच के विशालकाय स्वचालित द्वारों की

कोई देहरी है ही नहीं

फिर भी,

लाँघ कर चले आये हैं भीतर

क्षोभ और ग्लानियों से भरे

सैंकड़ों संतप्त चेहरे

देहें कैद हैं युद्धबंदियों सी

ढो़ रहे हैं सभी  –

अभिशापित कीटों से भरे बंद बोरे

अतीत और वर्तमान के सारे

कलुषित कर्मों की व्यथा भरे ।

चिपके हैं आत्म वंचनाओं के कफ़न

जीवन की हर आस को कुतर कर ।

रोगी हैं सब ।

कुछ सद्यः परिव्राजकों से

घुटे सिर

परिनिर्वाणाभिमुख नहीं ,

अवस्थित है — उपालम्भ

पीड़ाओं से संतप्त।

भोग कर आये हैं जो

संघाती व्यथाओं का विस्तार

उसी में लौटने को विकल हैं

प्रकांड अभिलिप्साएँ ।

 *

कुछ योद्धा — दृढ़ – संकल्पी

भीमाकार विचित्र अद्भुत मशीनों को

साधते —

नील वस्त्र धारी ,

वीतरागी निर्लिप्त कर्मठ

यांत्रिक मानव

आदतन कर्मरत

निर्वस्त्र मांसल रोगी देहें

बाँध कर उन मशीनों में,

जाँचते-

टटोलते रोग

कामुकता – जुगुप्सा —

हर भाव है निषिद्ध यहाँ —

हर द्वार पर उकेरी गई है पट्टिका

 “प्रवेश  प्रतिबंधित “

 *

गले में स्टेथस्कोप डाले

धवल कोट धारी

शपथ बद्ध हैं—

नहीं होते द्रवित विचलित कंपित

विशिष्ट योग्यताओं का ठप्पा लगा है

 वेदना संवेदना पर

जिस की परिधि में हर देह  है बस एक

” ऑब्जेक्ट “

 *

ठसाठस भरे हैं लोग पर —

कोई भी वेदना – संयुक्त नहीं है

संवेदना से ।

अनुभूतियों के फफूँद लगे बीजों से

उपजती नहीं सहानुभूतियाँ

 *

अपनी संपूर्ण विचित्रता समेटे

औचक ही कहीं, कभी दिख जाती है

संभ्रमित जीवन वृत्तियाँ

जब

गुलाबी कोट पहने एक स्वप्नद्रष्टा

स्वयंमुग्धा नर्स दिख जाती है

कोहनियों भर

सुनहरा लाल चूड़ा पहने ….

जिजीविषा का आभा मंडल

बुहारता चलता है

उसके कदमों के नीचे

मृत्यु के इस शहर का हर काला साया ।

 *

बाकी…

वृत्तियाँ तो सभी कर्मरत हैं यहाँ

छटपटाता हुआ पीड़ाओं से

युद्धरत है हर कोई – द्रवित – विगलित

दर्द  —

सधन मृत्यु का

चश्मदीद गवाह बना बैठा है हर चेहरा

प्रतीक्षारत —

आशाओं के दरदरे हाथों में थाम कर

एक चुटकी ज़िन्दगी।

 *

कैंसर हॉस्पिटल है ये ।

?

© श्रीमति लतिका बत्रा   

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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