श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “एक और अश्वत्थामा”।)  

?अभी अभी # 131 ⇒ एक और अश्वत्थामा? श्री प्रदीप शर्मा  ?

 

आज मुझे दर्द है, फिर भी लिख रहा हूं। दर्द नहीं होता, तब भी लिखना तो था ही। कहीं पढ़ा है, दर्द का अहसास हो, तो लेखन अच्छा होता है। अब सुबह सुबह दर्द ढूंढने कहां जाऊँ, जब घर बैठे कमर में दर्द उठा, सोचा क्यों न गंगा नहाऊं।

दर्द जिस्मानी भी होता है, और रूमानी भी ! यूं तो दर्द रूहानी भी होता है, लेकिन उसका कॉपीराइट मीरा और सूर जैसे भक्तों के पास होता है। जिस्मानी दर्द लिखने से नहीं, उपचार से ठीक होता है। उसके लिए दर्द को छुपाना नहीं पड़ता, किसी हमदर्द को बताना पड़ता है। बात दवा दारू तक पहुंच जाती है। ।

मैंने मांडू देखा, कई बार देखा ! लेकिन वह मांडू नहीं देखा, जिसका जिक्र स्वदेश दीपक ने “मैंने मांडू नहीं देखा” में किया है। साफ साफ शब्दों में कहूं तो मैंने अभी खंडित जीवन का कोलाज नहीं देखा। क्या जीवन में सुख ही सुख है, दुख नहीं, अथवा दुख ही दुख है, सुख नहीं ! सृजन स्वांतः सुखाय किया जाता है तो क्या यही सृजन सुख कभी कभी स्वांतः दुखाय भी हो सकता है।

एक लेखक खयाली घोड़े दौड़ाता है, लेकिन वे घोड़े खयाली नहीं होते, कभी कभी असली भी होते हैं। यथार्थ और कल्पनाशीलता का मिश्रण गल्प कहलाता है, फिर आप चाहे आप इसे कथा कहें या कहानी। लेखक यथार्थ से पात्र उठाता है, उसे अपना नाम और रूप देकर भूल जाता है। जब ये ही पात्र सजीव बनकर कथा कहानियों में उतर जाते हैं, तो एक कहानी अथवा उपन्यास बन जाता है। ।

बस यहीं से ये काल्पनिक पात्र, जिन्हें लेखक ने मूर्त रूप दिया है, उसके पीछे पड़ जाते हैं। परमात्मा को जिस तरह यह जीव घेरे रहता है, उसके पात्र रात दिन उसके पीछे पड़े रहते हैं। क्या तुमने मेरे साथ न्याय किया। क्या तुम मुझे एक कठपुतली की तरह नहीं नचाते रहे। जब कोई लेखक, लेखन में डूब जाता है, तब ऐसा ही होता है।

एक कवि की कल्पना को ही ले लीजिए, जहां न पहुंचे रवि ! यानी जहां तक रवि का प्रकाश न पहुंचे, कवि पहुंच जाता है। तो फिर वहां तो अंधकार ही हुआ न ! तो कहीं सूर, सूर्य बन जाते हैं, और तुलसी शशि, केशव अगर तारे हैं तो शेष जुगनू। कहने को आचार्य रामचंद्र शुक्ल कह गए, लेकिन फिर भी एक लेखक तमस, संत्रास, कुंठा और अवसाद के अंध कूप में जब जा बैठता है, तब उस स्वदेश का दीपक भी बुझ जाता है। ।

बिना डूबे भी कोई लेखक बना है, कवि बना है। कलम तो स्याही में डूबकर अपनी प्यास बुझा लेती है, कवि को अपनी कविता के लिए किसी प्रेरणा की जरूरत होती है तो लेखक को डूबने के लिए शराब का सहारा लेना पड़ता है। बहुत दुखी करते हैं, उसके ही बनाए हुए पात्र उसे। वह क्या करे। होते हैं कुछ नील कंठी, जो अपने पात्रों का गरल, कंठ में ही धारण कर लेते हैं, लेकिन शेष को तो उसमें डूबना ही पड़ता है।

दुख का अहसास इतना ही काफी है मेरे लिए। मैं अपने पात्रों का दुख दर्द सहन नहीं कर सकता। मैं स्वदेश दीपक नहीं बन सकता। मैंने मांडू नहीं देखा। मैने मांडू नहीं देखा। मैं एक और अश्वत्थामा नहीं बनना चाहता जो सृजन के संसार में तो अमर है, लेकिन उसका शरीर कहीं तो आत्मा कहीं। हे सुदर्शन चक्रधारी, उसे तार दे। उसका दर्द मेरा है। हर लेखक का है, जो लेखन का दर्द जानता है।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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