श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “विदुर का साग।)  

? अभी अभी # 68 ⇒ विदुर का साग? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

ईश्वर के जितने भी अवतार होते हैं, वे दुष्टों को मारने और भक्तों को तारने के लिए होते हैं। जब से अवतार अवतरित नहीं हो रहे, दुष्टों को मारने और भक्तों को तारने की प्रक्रिया बंदप्राय ही हो चुकी है। भक्त और भगवान हैं तो सही, लेकिन लगता है मानो एक को दूसरे की तलाश है। मो को कहाँ ढूँढे रे बंदे, मैं तो तेरे पास रे ! जिस तरह हिरण अपने ही अंदर की कस्तूरी से अनभिज्ञ रहता है, लेकिन कस्तूरी की गंध के कारण इधर उधर भागा करता है, बस यही हाल एक भक्त का है। वह कभी भगवान को मंदिर में खोज रहा है, तो कभी कथा, कीर्तन, और तीर्थाटन में, तो कभी किसी कथित अवतारी पुरुष में।

जिस भगवान को हम छप्पन भोग लगाते हैं, जब वह अवतार लेता है, तो कभी शबरी के झूठे बेर खा लेता है, तो कभी सुदामा के मुट्ठी भर चावल। शास्त्रों में, कर्म-कांड में यह साफ साफ लिखा है, कि पहले भगवान को भोग लगाओ, फिर कुछ पाओ। शबरी कहाँ वेद-शास्त्र पुराण पढ़ी थी। जब मंदिर से उठकर भगवान साक्षात प्रकट हो जाता है, तो कर्मकांड वहीं छूट जाता है। भक्त और भगवान की सारी दूरियाँ खत्म हो जाती हैं, मर्यादाएँ टूट जाती हैं। भक्त और भगवान एक हो जाते हैं। विदुर का साग खाने के बाद विदुर, विदुर नहीं रह जाते, शबरी के झूठे बेर खाने के बाद शबरी नहीं रह जाती, सुदामा के चावल खाने के बाद सुदामा, सुदामा नहीं रह जाते। भक्त-भगवान की दूरियाँ मिट जाती हैं, सदा के लिए समाप्त हो जाती हैं। ।

जिस क्षण विदुर नीति के रचयिता धृतराष्ट्र के मंत्री, विदुर ने दंभी दुर्योधन का नमक त्याग, महल से कुटिया की ओर प्रस्थान किया, उसी पल से श्रीकृष्ण की दृष्टि दुर्योधन के मेवे-पकवान से हटकर, महात्मा विदुर के साग पर पड़ गई थी। गुरु द्रोणाचार्य, कृपाचार्य और भीष्म पितामह दुर्योधन का नमक नहीं छोड़ पाए। जिसका जैसा अन्न खाया, वैसा ही मन पाया और द्रौपदी का चीर-हरण उनकी आँखों के समक्ष होता रहा, वे कुछ न कर सके।

माँगी नाव, न केवट आना ! यह केवट प्रसंग भी अनूठा है। केवट जानता है, जो राम, लखन, सीता, मेरी नाव में पाँव रखने वाले हैं, उन्हीं श्रीराम के चरण रखते ही पत्थर की मूर्ति अहिल्या बन गई थी। कहीं मेरी नाव भी इनके चरण रखते ही स्त्री न बन जाए। ये सब भक्त बिना भेजे वाले होते हैं। एक धन्ना जाट लठ लेकर ठाकुर जी के मंदिर में खड़ा हो जाता है और भगवान को भोग लगाना ही पड़ता है तो एक राम भक्त हनुमान सीता माता के द्वारा उपहार-स्वरूप दिये मोतियों के हार को तोड़, उसमें अपने श्रीराम को ढूँढते नज़र आते हैं। जब सब दरबारी उनकी हँसी उड़ाते हैं, कि यह बंदर मोतियों में अपने आराध्य श्रीराम को ढूंढ रहा है, कैसा मूढ़ भक्त है, तब वानर श्रेष्ठ अपना हृदय चीरकर दिखाते हैं, और उनके आराध्य को वहाँ विराजमान होना ही पड़ता है। ।

इन कथाओं में निहित संदेश बस इतना ही है कि रूढ़ि, परंपरा, अंधविश्वास और कर्म-कांड किसी भक्त को बाँध नहीं सकते। मीरा ने उसे पति-परमेश्वर माना, तो सूरदास ने उनके बाल-स्वरूप को आराधा। हम इधर छप्पन भोग लगाते रह जाएँ, और वह शबरी के झूठे बेर में ही प्रसन्न हो जाएँ।

ऐश्वर्य लुटाने वाले उस परम पिता परमेश्वर के नाम पर कितने भी मंदिर बनाएं, उन्हें रत्न-जड़ित मुकुट पहनाएं, राजभोग कराएं, केवल भाव के भूखे भगवान, मात्र बिल्वपत्र से प्रसन्न हो जाते हैं। वह सुदामा के चावल और विदुर के साग पर अपना सारा ऐश्वर्य लुटाने को तैयार है। वहाँ कोई तीसरा नहीं होता, बस भक्त और भगवान होता है।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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