डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  “गुएक गीत। )

 

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – # 7 ☆

 

☆ एक गीत   ☆  

 

देह का भटकाव मन के गाँव में

दिग्भ्रमित परछाईयों में खो गए

प्रीत के पगचिह्न धुँधले हो गए।

 

शाख पर बैठे, उसी को

काटने पर हैं तुले

क्लांत है, मन भ्रांत फिर भी

उम्मीदें झूला झुले

विषभरी बेलें हरित सी

झूमती झकझोरती

बीज, वासुकी वासना के बो गए

प्रीत के पगचिह्न धुँधले हो गए।।

 

ढाई आखर के भरम में

बस उलझते ही रहे

नहर को नदिया समझ

संकुचित भावों में बहे

राह में पग-पग हुए टुकड़े

अपाहिज से हुए

देहरी पर मीत पंछी रो गए

प्रीत के पगचिह्न धुँधले हो गए।।

 

समझकर एहसान यूँ

मेहमान बन सहते गए

छोर अंतिम जिंदगी का

स्वप्न फिर भी हैं नए

खेल स्वांस-प्रश्वांस का

निर्णय घड़ी है आ गई

समय प्रहरी उम्मीदों को धो गए

प्रीत के पगचिह्न धुँधले हो गए।।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

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