श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – युद्ध की विभीषिका और मानव अधिकार- भाग-1 ??

(आज गुरुवार 24 फरवरी को रूस-यूक्रेन युद्ध को एक वर्ष पूरा हो रहा है। इस संदर्भ में युद्ध और मानवाधिकार पर यह विशेष आलेख दो भागों में दिया जा रहा है। इस आलेख का अंतिम भाग आप कल के अंक में पढ़ सकते हैं।)

रूस-यूक्रेन युद्ध को आज एक वर्ष पूरा हो रहा है। दुखद है कि जान-माल की अपरिमित हानि के बाद भी यह लड़ाई अब तक जारी है। वस्तुत: युद्ध, मानव निर्मित सबसे बड़ी विभीषिका है। आपदा में व्यापक स्तर पर जनहानि होती है, युद्ध में जनसंहार होता है। आपदा आकस्मिक होती है जबकि युद्ध ठंडे मस्तिष्क से योजना बनाकर लड़ा जाता है। युद्ध के लक्ष्य और शत्रु के वध का प्रयास भी पूर्व निश्चित होता है। इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो युद्ध  अपराध है। विचारपूर्वक योजना बनाकर की गई हत्या के लिए मृत्युदंड अथवा आजीवन कारावास का प्रावधान लगभग पूरी दुनिया में है। तब भी युद्ध को जिस गंभीर स्तर का अपराध माना जाना चाहिए था, वैसा न करते हुए अनेक बार सिलेक्टिव तरीके से उसे अनिवार्य समझा गया है। समस्या के हल के लिए युद्ध को अंतिम विकल्प माना जाता है, जबकि सत्य यह है कि युद्ध आज तक किसी भी समस्या का हल नहीं बन सका। युद्ध स्वयं एक समस्या है। युद्ध के बाद भी दोनों पक्षों को अंततः वार्ता के लिए आमने सामने बैठना ही होता है। ‘टू टर्न द टेबल, यू हैव टू कम टू द टेबल।’  सत्य का एक आयाम यह भी है कि ‘वॉर इज़ वॉट हैपन्स व्हेन लैंग्वेज फेल्स।’ भाषा संवाद का माध्यम है। अत: कहा जा सकता है कि जब संवाद समाप्त हो जाता है तो युद्ध आरम्भ होता है। समय साक्षी है कि विवाद का हल सदैव संवाद से ही हुआ है।

युद्ध की परिभाषा-

  1. सामान्य तौर पर माना जाता है कि ‘वॉर इज़ अ कन्टेनशन/ वायलेंस बिटवीन द आर्म्ड फोर्सेस’ अर्थात युद्ध सशस्त्र सेनाओं के बीच होनेवाला हिंसक विवाद है।
  2. युद्ध दो या अधिक राज्यों के बीच सशस्त्र सेनाओं के माध्यम की एक ऐसी प्रतिद्वंद्विता है जिसका लक्ष्य एक दूसरे को परास्त करना और विजेता की इच्छा के अनुरूप शांति की शर्तों को लादना है।

– (एल. ओपेनहीम)

  1. युद्ध दो या अधिक राज्यों के बीच प्रधानतः सशस्त्र सेनाओं के माध्यम से एक प्रतिद्वंद्विता होती है। प्रत्येक प्रतिद्वंद्वी समूह का दूसरे को परास्त करना तथा अपनी शर्तों के अनुरूप शांति को लादना अंतिम उद्देश्य होता है।

– (जे. बी. स्ट्रेक )

  1. युद्ध मनुष्य के मानवीय संघर्ष का सबसे अधिक हिंसक रूप है।

– (किबालयंग)

  1. युद्ध एक सामाजिक समूह द्वारा दूसरे सामाजिक समूह पर किया संगठित आक्रमण है। इसमें आक्रांता समूह जानबूझकर अनाक्रांता की जान-माल की बरबादी करके अपने हितों की वृद्धि करता है।

– (हॉबेल)

  1. युद्ध उन संबंधों का औपचारिक तौर पर टूटना है जो शांतिकाल मे राष्ट्रों को परस्पर एक दूसरे से बाँधे रखते हैं।

– (इलियट-मैरिल)

  1. साधारणतया युद्ध शब्द का प्रयोग ऐसे शस्त्रात्मक संघर्ष के लिए किया जाता है जो कि चेतन इकाइयों, जैसे; प्रजातियों या जनजातियों, राज्य अथवा छोटी भौगोलिक इकाइयों, धार्मिक अथवा राजनीतिक दलों, आर्थिक वर्गों से निर्मित जनसंख्यात्मक समूहों के अन्तर्गत होता है।

– (सामाजिक-विज्ञान कोश)

ध्यान देने वाली बात है कि विभिन्न परिभाषाओं में ‘शांति के लिए युद्ध’ कहा गया है। ‘पीस बाय फोर्स’ याने अंतिम लक्ष्य शांति है। संभवत: इसीलिए पीसकीपिंग फोर्स या शांतिसेना शब्द  प्रचलन में आया होगा। शांति, चर्चा द्वारा ही संभव है। चर्चा के लिए साथ आना होता है, एक-दूसरे को सुनना होता है।

साथ आना मनुष्यता का लक्षण है। एक दूसरे के अधिकारों की रक्षा मनुष्य से अपेक्षित भी है अन्यथा मनुष्य और मनुष्येतर प्राणियों में कोई अंतर नहीं रह जाएगा। यही कारण है कि समयानुसार युद्ध के लिए भी कुछ नियम बनाये गए। मानव के मूलभूत अधिकारों की रक्षा का प्रावधान हुआ। समय-समय पर  इन प्रावधानों में बेहतरी होती चली गई।

मानव अधिकार-

संयुक्त राष्ट्रसंघ  ने 10 दिसम्बर 1948 को मानवाधिकार की सार्वभौमिक घोषणा अंगीकार की थी। इसमें मनुष्य के मूलभूत अधिकारों की घोषणा है‌। ये अधिकार मानव की गरिमा हैं।  ये अधिकार स्त्री-पुरुष के लिए समान हैं। इनका हरण नहीं किया जा सकता।

इसके प्रमुख अनुच्छेद और उनमें वर्णित मानव अधिकारों की संक्षिप्त जानकारी इस प्रकार है-

अनुच्छेद 1–2 : गरिमा, स्वतंत्रता और समानता की मूलभूत अवधारणाओं की स्थापना।

अनुच्छेद 3-5 :  जीवन का अधिकार, साथ ही दासता तथा यातना का निषेध जैसे अन्य व्यक्तिगत अधिकारों की स्थापना।

अनुच्छेद 6-11 : मानवाधिकारों की मौलिक वैधता का उल्लेख। उल्लंघन होने पर उनकी रक्षा के लिए विशिष्ट उपायों की जानकारी।

अनुच्छेद 12-17 : समुदाय के प्रति व्यक्ति के अधिकारों का निर्धारण। इसके अंतर्गत प्रत्येक राज्य के भीतर आंदोलन और निवास की स्वतंत्रता, संपत्ति का अधिकार और राष्ट्रीयता के अधिकार का समावेशन।

अनुच्छेद 18-21 :  संवैधानिक स्वतंत्रता और आध्यात्मिक, सार्वजनिक और राजनीतिक स्वतंत्रता, जैसे विचार, धर्म, विवेक, व्यक्ति की शांतिपूर्ण संगति एवं जानकारी प्राप्त करने और प्रदान करने की स्वतंत्रता को अनुमति।  संचार के किसी भी माध्यम से विचाराभिव्यक्ति का अधिकार।

अनुच्छेद 22-27 :  व्यक्ति के आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों को अनुमति। स्वास्थ्य सम्बंधी सुश्रुषा, समुचित जीवन स्तर का अधिकार। प्रसूति काल एवं बाल्यावस्था में वांछनीय देखभाल।

अनुच्छेद 28-30 : पूर्व अनुच्छेदों में उल्लेखित अधिकारों का प्रयोग करने के साधनों की स्थापना। साथ ही अनुच्छेद 1 से 30 में उल्लेखित किसी भी बात का अपनी सुविधा से ऐसा अर्थ लगाना निषिद्ध करना, जिससे इन अनुच्छेदों में निर्दिष्ट अधिकारों और स्वतंत्रताओं में से किसी का भी हनन हो सकता हो।

युद्ध और मानवाधिकार-

संयुक्त राष्ट्रसंघ ने मानवाधिकारों को न केवल सार्वभौमिक कहा है अपितु हर स्थिति में इनकी रक्षा किये जाने पर बल दिया है। युद्ध भी इसका अपवाद नहीं है। फलत: कोई कारण नहीं बनता कि युद्ध में मानव के अधिकार निरस्त हो जाएँ।

नरसंहार, शांति के खिलाफ अपराध, युद्ध नियमों का उल्लंघन और मानवता के खिलाफ अपराध, युद्ध अपराधों की प्रमुख श्रेणियाँ हैं।

मानवाधिकार उल्लंघन के इन कृत्यों में नागरिकों पर हमला, असैनिक / निवासी इमारतों पर हमला, अस्पतालों और स्कूलों जैसे संरक्षित संस्थानों पर हमला, सैनिकों के शवों से छेड़छाड़ करना, आत्मसमर्पण करने का अवसर नहीं देना, नागरिकों के शवों से छेड़छाड़ करना, युद्धकालीन यौन हिंसा, लूट, यातना, बाल सैनिकों का उपयोग आदि शामिल हैं।

तथापि कटु सत्य यह है कि नियम बनते ही तोड़े जाने के लिए हैं। युद्ध एक ऐसी विशेष परिस्थिति है जहाँ हर ओर मृत्यु का तांडव हो रहा होता है। ऐसे में युद्ध को मॉनिटर करना या संतुलित ढंग से निरीक्षण कर पाना संभव नहीं होता। यही कारण है मानव इतिहास के विभिन्न युद्धों में मानवाधिकारों का निरंतर हनन हुआ है। मानवी बर्बरता और मनुष्य के भीतर का विद्रूप और वीभत्स चेहरा अनेक बार सामने आया है।

विचार करें तो युद्ध अपने आप में मनुष्यता का उल्लंघन है। संयुक्त राष्ट्रसंघ का इस सम्बंध में स्पष्ट दिशा निर्देश है- “सभी सदस्य राष्ट्रों को अपने अंतरराष्ट्रीय संबंधों में किसी भी राज्य की क्षेत्रीय अखंडता या राजनीतिक स्वतंत्रता के खिलाफ या संयुक्त राष्ट्र के उद्देश्यों से असंगत किसी अन्य तरीके से बल के खतरे या प्रयोग से बचना चाहिए।” (अनुच्छेद 2/4) तथ्य यह है कि इन दिशा-निर्देशों के बाद भी विश्व में अनेक बार युद्ध हुए हैं। इन युद्धों में न्यूनाधिक मात्रा में मानवाधिकारों के उल्लंघन की घटनाएँ हुई हैं।

प्रथम विश्वयुद्ध, द्वितीय विश्वयुद्ध सहित अन्य अनेक युद्धों / युद्ध सदृश्य संघर्षों में मानवाधिकारों का सरेआम और खुलकर उल्लंघन हुआ है।

द्वितीय विश्वयुद्ध में नाज़ियों द्वारा बंदी बनाये गए सोवियत सैनिकों के साथ जो दुर्व्यवहार किया गया, वह रोंगटे खड़े कर देता है। एक अध्ययन के अनुसार लगभग 3.3 मिलियन सोवियत सैनिकों का संहार किया गया। इनमें से अनेक को गोली मार दी गई। गोली का खर्च बचाने के लिए जानबूझकर खतरनाक स्थितियाँ और भुखमरी पैदा की गई। बड़ी संख्या में सोवियत सैनिक भूख के चलते मृत्यु को प्राप्त हुए। यहाँ तक कि विवशता में कुछ सोवियत सैनिकों के नरभक्षी हो जाने की रिपोर्टें भी मिलीं।

विश्व के सबसे बड़े जनसंहार होलोकास्ट में लगभग 60 लाख यहूदियों की हत्या कर दी गई थी। यह यहूदियों की कुल आबादी का लगभग दो-तिहाई आँकड़ा माना जाता है। इनमें गैस चेंबर में डालकर मार देना, मारपीट,  सरेआम गोली मारना, ठंड में निर्वस्त्र छोड़ देना जैसे क्रूर तौर तरीके सम्मिलित थे।

1864 के सेरासियन जनसंहार में लगभग 25 लाख नागरिकों को अत्यंत वीभत्स और जघन्य तरीके से मृत्यु के हवाले कर दिया गया था। रशियन सेना ने इनमें महिलाओं और बच्चों को भी नहीं बख्शा था। माना जाता है कि इसके चलते सेरासियन की 90% आबादी समाप्त हो गई थी।

1915 में तुर्की की ऑटोमन सेना ने आर्मेनिया में जबरदस्त नरसंहार किया था। इसमें लगभग 15 लाख नागरिकों को अपनी जान गंवानी पड़ी थी।

फिलीपींस और वियतनाम में अमेरिकी सेना द्वारा स्थानीय सैनिकों और नागरिकों के साथ दुर्व्यवहार की सारी हदें पार कर दी गईं। 1968 में वियतनाम के माई लाई गाँव में रात के समय बड़ी संख्या में महिलाओं और बच्चों सहित नागरिकों की सामूहिक हत्या कर दी गई थी।

70 के दशक में कंबोडिया में खमेर रूज के शासन में लगभग 20 लाग लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा था। इसके कारणों में निरंतर कठोर काम करवाना, भुखमरी, मृत्युदंड शामिल थे।

90 के दशक में रवांडा के गृहयुद्ध में हुतू जनजाति द्वारा तुत्सी जनजाति के 5 लाख नागरिकों की हत्या करने का अंदेशा है। इसी दशक में बोस्निया में हुआ नरसंहार भी मानवता के चेहरे पर कालिख पोतने वाला है।

क्रमशः… 

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603 ईमेलसंजयउवाच@डाटामेल.भारत; [email protected]

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