डॉ. सदानंद पॉल

परिचय

तीन विषयों में एम.ए., नेट उत्तीर्ण, जे.आर.एफ. (MoC), मानद डॉक्टरेट.

‘वर्ल्ड रिकॉर्ड्स’ लिए गिनीज़ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स होल्डर, लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्स होल्डर, इंडिया बुक ऑफ रिकॉर्ड्स, RHR-UK, तेलुगु बुक ऑफ रिकार्ड्स, बिहार बुक ऑफ रिकार्ड्स होल्डर सहित सर्वाधिक 300+ रिकॉर्ड्स हेतु नाम दर्ज. राष्ट्रपति के प्रसंगश: ‘नेशनल अवार्ड’ प्राप्तकर्त्ता.

पुस्तक- गणित डायरी, पूर्वांचल की लोकगाथा गोपीचंद, लव इन डार्विन सहित 10,000 से अधिक रचनाएँ और पत्र प्रकाशित. सबसे युवा समाचार पत्र संपादक. 500+ सरकारी स्तर की परीक्षाओं में अहर्ता  प्राप्त. पद्म अवार्ड के लिए सर्वाधिक बार नामांकित. कई जनजागरूकता मुहिम में भागीदारी.

☆ आलेख ☆ “हिंदी उपन्यासकार अनूपलाल मंडल, उनकी कथा यात्रा और औपन्यासिक विन्यास” – भाग-1 ☆ डॉ. सदानंद पॉल ☆

(डॉ सदानंद पॉल जी के शोध आलेख का अंतिम भाग … इस आलेख में प्रकाशित तथ्य एवं विचार डॉ सदानंद पॉल जी के व्यक्तिगत विचार हैं।)

उनकी कुछ रचनाएँ मैंने ‘अनूपलाल मंडल विशेषांक’ पर प्रूफ-सहयोगार्थ बिहार राष्ट्रभाषा परिषद में देखा। अपने ‘सर’ और वरिष्ठ साहित्यिक मित्र डॉ0 रामधारी सिंह ‘दिवाकर’ के सौजन्यत: इसे अवलोकन किया, पढ़ा और वहीं को वापस कर दिया। उनकी शैली, भाषाई शिष्टता संस्कृत से निःसृत हिंदी सदृश है, परन्तु ‘प्लॉट’ के दुर्बल पक्ष होने के कारण मुझे कुछ खास नहीं लगा। कहानी में विन्यास अच्छी थी, किंतु औपन्यासिक रिद्म में नहीं थी, परंतु देशभक्ति उनकी कहानियाँ में निहित है। हाँ, वे टीकापट्टी सहित भागलपुर क्षेत्र से स्वतंत्रता-आंदोलन हेतु आगाज़ किए थे। डॉ0 परमानंद पांडेय ने लिखा है- “भागलपुर में बयालीस का आंदोलन छिड़ गया था। मैं भागा-भागा रहता था। पुलिस मेरे भी पीछे थी। …. तब तक मंडल जी (अनूपलाल मंडल) भी जेल जा चुके थे।” इसपर डॉ0 छेदी पंडित ने लिखा है- “उन्होंने कई बार स्वतंत्रता-संग्राम में सम्मिलित होने एवं जेल-यातना भोगने की चर्चा की, फिर पूछने पर कि वे स्वतंत्रता-सेनानी का पेंशन पाने का प्रयास  क्यों नहीं किया, जवाब रूखा था कि ‘गुलामी की जंजीर तोड़ने में स्वल्प सहयोग कर मैंने अपना ही काम किया था, दूसरे का नहीं। मैं गुलामी के बंधन से मुक्त हूँ, इससे बढ़कर क्या लाभ हो सकता है ? मैंने पैसे के लिए कष्ट नहीं उठाया था, अपितु भारत माँ की सेवा की थी। माँ की सेवा का मूल्य थोड़े ही लिया जाता है !”

यद्यपि उन दिनों पुस्तकों का सृजन और प्रकाशन बेहद क्लिष्टतम था, तथापि तीन दर्जन से अधिक की संख्या में प्रणयन कोई सामान्य बात नहीं है। आइये, इस बारे में हम अनूप-साहित्य पर विद्वानों के मत जानते हैं…..

पं0 राहुल सांकृत्यायन ने लिखा है- “उपन्यास तो आप सुंदर लिख लेते हैं…. पर मुझे एक बात आपकी बिल्कुल नापसंद लगी और वह यह कि आपके पात्र में मर्दानापन नहीं झलकता। वक्त आने पर छुई-मुई हो जाता है, उसका तेज, उसका शौर्य न जाने कहाँ चला जाता है ? यह तो ठीक लक्षण नहीं ! उपन्यासों में ऐसी कमी उन्हें दुर्बल बना देती है। प्रेम करने चलते हो, तो पाँव लड़खड़ाने से भला कहाँ, कैसे काम चलेगा ? साधु बनो तो पूरे साधु बनो, चोर बनना हो तो पक्का चोर बनो। साहित्य में अधकचरे से काम नहीं चलता, वैसे जीवन में भी ! रामखुदाई से काम नहीं चला करता। मस्त होकर लिखो। देखोगे- कमी न रह पाएगी। चीज चोखी उतरेगी।” कुछ ऐसा ही आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने नहले पे दहला कहा है- “आपके उपन्यास ‘केंद्र और परिधि’ में नायक-पात्र की दुर्बलता उजागर हुई है, क्योंकि लिखते-लिखते आप ऐसी जगह जाकर ‘नर्वस’ हो जाते हैं, जहाँ नायक-नायिका को दिलेरी दिखानी चाहिए, उसे दुस्साहसिक होना चाहिए। ऐसा नहीं होने पर पाठक वहाँ निराश हो जाता है, कथा का सौंदर्य नष्ट हो जाता है, रस-परिपाक में बाधा आ जाती है। मैं सोचता हूँ- आपका जीवन ही कुछ ऐसे साँचे में ढाला है, जहाँ संवेदनशीलता ही अधिक है, दुस्साहसिकता नहीं के बराबर। अच्छे उपन्यास के जितने गुण हैं, वे इस उपन्यास में मुझे दीख पड़े हैं, परंतु अगर ऐसी खामियाँ नहीं होती, तो यह कृति हिंदी की श्रेष्ठ कृतियों में आदर के साथ स्थान पाती।”

लेखिका सुशीला झा ने लेख ‘अनूपलाल मंडल की नारी-भावना’ में लिखती हैं- “नारी-रूप के कुशल चित्रकार हैं अनूपजी। उनके महिला पात्र अन्नपूर्णा, अरुणा, शीला, नंदिता, रेखा मित्रा, मणि, ज्योति, वसुमति, कुसुम मिश्रा, लता, प्रभावती, उषा इत्यादि कोमल तंतुओं से निर्मित कमनीय नारियाँ हैं। अभया, दुर्गा, यमुना, मल्लिका व मेनका, रज्जो, सरस, सोना, उत्पला सिन्हा, हेमंतनी शुक्ला इत्यादि नारियों में कमनीयता के साथ बुद्धिमत्ता भी है। ‘अन्नपूर्णा’ की प्रमदा, ‘समाज की वेदी पर’ की सुधामयी, ‘साकी’ की सुषमा, ‘मीमांसा’ की अरुणा, ‘अभियान पथ’ की शकुंतला, ‘बुझने न पाए’ की मृणालिनी, निर्मला, चंपा, ‘केंद्र और परिधि’ की नंदिता, ‘ज्योर्तिमयी’ की नायिका ज्योर्तिमयी, मंझली भाभी अपना सर्वस्व समर्पित कर देने वाली आदर्श पत्नियाँ हैं। मीना आदर्श गणिका के रूप में एकनिष्ठ होकर कुमार से अनुरक्त हो गई है और अंत में वही उसकी जमींदारी तथा उसके जीवन की रक्षा भी करती है। सविता वीरांगना जगत से निकलकर लोकहित के लिए सन्यासिनी बन गई। अनूपजी का हृदय वेश्याओं और विधवाओं के प्रति विशेष रूप से सहानुभूति लिए हैं। प्रश्न उठता है कि वेश्याओं के प्रति इतने समादर क्यों प्रदर्शित किया गया है?”

डॉ0 दुर्योधन सिंह ‘दिनेश’ ने अनूपजी के उपन्यास ‘समाज की वेदी पर’ की समीक्षा करते हुए लिखा है- “वह सम्पूर्ण नारी-जाति का सम्मान करता है और आदर की निगाह से देखता है, चाहे वह वेश्या हो या देव कन्या। नारी पात्रों में हसीना के माध्यम से उपन्यासकार एक ऊँचा आदर्श प्रस्तुत करता है। वेश्या के वासनात्मक परिवेश में पलकर भी हसीना सती-साध्वी बनी रहती है। वह हिन्दू धर्म में दीक्षित होकर प्रो0 धीरेंद्र की आदर्श पत्नी बन जाती है और समय आने पर पति के कंधा से कंधा मिलाकर चलती है  वह वेश्यावृत्ति पर कसकर कुठाराघात करती है।”

अनूपलाल मंडल इतने रचकर भी अपठित और विस्मृत क्यों हो गए हैं ? देश और बिहार की बात ही छोड़िये, उनके गृहजिला के कितने व्यक्ति उन्हें जानते हैं ? कितने साहित्य-मनीषियों ने उनकी रचनाएँ सिंहावलोकित किए हैं ? स्वीकारात्मक उत्तर में कुछ फीसदी ही होंगे ! प्रख्यात कथाकार डॉ0 रामधारी सिंह दिवाकर लिखते हैं- “अनूपलाल मंडल के विस्मृत हो जाने या अचर्चित रह जाने की एक वजह बिहार के स्कूलों और विश्वविद्यालयों के हिंदी पाठ्यक्रमों से उनको निकाल बाहर करना है। आरम्भ से ही बिहार के हिंदी पाठ्यक्रमों से अनूपलाल मंडल का नाम मिटा देने की साज़िश का नतीजा है कि विद्यार्थियों की कौन कहे, एम0 ए0 तक हिंदी पढ़ानेवाले बिहार के प्राध्यापकों तक ने ऐसे महत्वपूर्ण उपन्यासकार का नाम नहीं सुना ! किसी भी साहित्यकार का कुछ नहीं पढ़ना और साहित्यकार का नाम ही न सुनना– दो भिन्न स्थितियाँ हैं। अनेक साहित्यकार हैं, जिनका लिखा हमने-आपने नहीं पढ़ा है, लेकिन नाम सुना है, किंतु अनूपलाल मंडल बिहार के ऐसे अभिशप्त कथाकार हैं, जिनका नाम ही मिटता जा रहा है।” हालाँकि 1948 में प्रकाशित व अनूपजी द्वारा  बांग्ला से हिंदी में अनूदित रचना ‘नीतिशास्त्र’ को कुछ कालावधि के लिए टी0 एम0 भागलपुर विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में शामिल किया गया था और ‘मीमांसा’ के अंश को आई0 ए0 पाठ्यक्रम हेतु रांची विश्वविद्यालय ने शामिल  किया था।

उन्होंने कुर्सेला स्टेट के बड़े जमींदार व रायबहादुर बाबू रघुवंश प्रसाद सिंह की जीवनी भी लिखी, तब रघुवंश बाबू की 70वीं जन्मतिथि थी। जमीन और आमलोगों से जुड़े अनूपजी द्वारा ऐसे कृत्यकारक समझ से परे है! तब क्या कारण रहे होंगे या उनकी भूमिका ‘दरबारी’ की थी, यह सुस्पष्ट तब हुआ जा सकता है, जब उनकी आत्मकथा प्रकाशित होगी! ‘मैला आँचल’ के अमरशिल्पी फणीश्वरनाथ रेणु के पिता शिलानाथ मंडल (विश्वास) और अनूपलाल मंडल के बीच दोस्ताना संबंध था, इस दृष्टि से अनूपजी ‘रेणुजी’ के पितातुल्य थे। ऐसा कहा जाता है, रेणुजी को लेखक बनाने में क्षेत्र के अन्य लेखक-त्रयी का अमिट योगदान रहा है, उनके नाम हैं- अनूपलाल मंडल, सतीनाथ भादुड़ी (बांग्ला) और रामदेनी तिवारी ‘द्विजदेनी’। इतना ही नहीं, ‘मैला आँचल’ की पांडुलिपि का प्रूफरीडिंग और टंकण अनूपजी ने ही कराए थे। अनूपजी ने रेणु-प्रसंग को लिखा है- “नेशनल स्कूल, फारबिसगंज में मुझे एक व्यक्ति मिला, जिनका नाम श्री शिलानाथ विश्वास (मंडल) था, परिचय हुआ और वह परिचय हमदोनों की मित्रता का कारण बना। वे मेरे लिए घर से सौगात लाते, मुझे अपने सामने बिठाकर खिलाते और दिनभर हमदोनों की गपशप चलती। उसी गपशप के प्रसंग में उनसे ज्ञात हुआ कि उनका लड़का मिडिल अंग्रेजी पास कर कांग्रेस का वालेंटियर हो गया है, दिनभर गाँव-गाँव चक्कर लगाता है और रात को यहीं आकर विश्राम करता है। मैं (शिलानाथ) चाहता था कि कम से कम वह मैट्रिक पास कर जाता, तो अच्छा होता। वह आपके (मेरे) उपन्यासों को बड़े चाव से पढ़ गया है, जो आप मुझे बराबर भेंटस्वरूप देते रहे हैं। मैंने उन्हें आश्वस्त किया। …. और एक दिन 13-14 साल का सलोना किशोर, बड़े-बड़े केश, नाक-नक्श सुंदर, खादी के नीले हाफ पैंट और सफेद खादी की हाफ शर्ट में उसकी शक्ल खिली हुई थी, मैंने उनसे कहा- ‘जब तुम्हें मेरे उपन्यास पढ़ने का चाव है, तो तुम्हें उसके पहले हाईस्कूल में भी पढ़ लेना चाहिए, कम से कम आई0 ए0, बी0 ए0 न भी कर सको, तो कम से कम मैट्रिक तो करना चाहिए। जब कभी अपना देश स्वाधीन होगा, तब आज के जो बी0 ए0, एम0 ए0 पास लीडर हैं, वे ही मिनिस्टर होंगे, प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति बनेंगे और प्रत्येक स्वाधीन देश में वे ही राजदूत बनाकर बाहर भेजे जाएंगे। जो पढ़ा-लिखा नहीं हैं, वह वालेंटियर का वालेंटियर ही धरा रह जायेगा। भगवान ने तुम्हें इतनी अच्छी आकृति दी है, बुद्धि भी तुम्हारी तीक्ष्ण है। मैं चाहता हूँ कि तुम मेरी बात मानो, अभी कुछ नहीं बिगड़ा, नाम लिखाकर मैट्रिक पास कर लो, फिर वालेंटियर क्या नायक होकर कांग्रेस में काम करना है।’ लड़का भला था, क्षणभर में मुझसे कहा- ‘आप बाबू जी से कह दीजिएगा कि मैं पढूँगा। वे मेरा नाम लिखा देने की व्यवस्था कर दें।’ वह लड़का फणीश्वरनाथ रेणु है, जिसने ‘मैला आँचल’ लिखकर हिंदी उपन्यास क्षेत्र में सनसनी पैदा कर दी। अब तो अकादेमी पुरस्कार से पुरस्कृत हो चुका है और रूसी भाषा में ‘मैला आँचल’ अनूदित हो चुका है। मेरे प्रति उसकी वैसी ही श्रद्धा-निष्ठा है, जैसी पहले थी।” डॉ0 लक्ष्मी नारायण ‘सुधांशु’ को आगे बढ़ाने में उनकी महती भूमिका रही। उन्होंने लिखा है- “सुधांशु जी के ‘काव्य में अभिव्यंजनावाद’ का युगांतर से प्रकाशन हुआ, पार्ट पैमेंट के तौर पर उनका बिल चुकाना था। ‘समाज की वेदी पर’ के दूसरे संस्करण के बिल का चुकता भी नहीं हो सका था कि प्रेस के सौजन्य से दूसरी पुस्तक भी छप चुकी थी और उसका बिल सामने था, साख बनाकर रखनी थी, इसलिए उसके चुकाने की अवस्था में जाना मेरे लिए अत्यंत आवश्यक हो उठता। तब द्विजदेनी जी याद आते !” कला भवन, पूर्णिया की स्थापना में उनकी महती भूमिका रही।

अनूपजी के उपन्यास प्रेमचंदीय उपन्यासों की भाँति प्रगतिशील यथार्थ में अंतर्निहित नहीं हैं, अपितु उनकी रचनाएँ अज्ञेयजी की रचनाओं की भाँति रोमांटिक यथार्थ से जुड़े हैं, बावजूद वे व्यक्तित्व में अज्ञेय नहीं थे ! कथा-शिल्प में भी प्रेमचंद से उनकी तुलना बेमानी कही जाएगी। कथाकार मधुकर सिंह ने लिखा है- “अनूपलाल मंडल ‘जैनेन्द्र कुमार’ के भी समकालीन रहे हैं, इनकी भावुकता का प्रभाव भी स्वाभाविक है, क्योंकि प्रेमचंद के बाद अज्ञेय, जैनेन्द्र और यशपाल सशक्त कथाकार रहे हैं। इनमें यशपाल सर्वथा अलग धारा के कथाकार हैं, जो प्रेमचंद-परंपरा के ज्यादा करीब हैं। मंडल जी में जैनेन्द्र की भावधारा के होने के बावजूद इनके विषय, पात्र, परिवेश बिल्कुल अलग रहे हैं, जो जैनेन्द्र की तरह कहीं से भी आधुनिक नहीं हैं।” तभी यह बात अक्सरात मानस-पटल को कुरेदता है कि उन्हें किसने बिहार के ‘प्रेमचंद’ का तमगा दिया, यह ‘पता’ किसी को नहीं है ! सर्वविदित है, कोई भी रचनाकार न सिर्फ अपने क्षेत्र, अपितु  सीमापारीय होते हैं ! ‘बिहार का प्रेमचंद’ कहकर उनकी रचनाओं को शुरुआती दिनों से ही ‘संकुचित’ किया जाने की अघोषित साजिश चलती आई है, इसलिए इन  उपन्यासों को ज्यादा से ज्यादा संख्या में पुनर्प्रकाशित कर ही अनूपलाल मंडल की पहचान को विस्तृत फलकीय, कालातीत और चिरनीत रखा जा सकता है। डॉ0 खगेन्द्र ठाकुर ने स्पष्ट लिखा है- “अनूपलाल मंडल प्रेमचंद की छाया में पले लेखक नहीं हैं। मंडल जी का औपन्यासिक धरातल प्रेमचंद से भिन्न है और सच यह भी है कि प्रेमचंद ने जो ऊँचाई प्राप्त की, वहाँ तक मंडल जी नहीं पहुँच पाए। अनूपलाल मंडल के लेखन का एक परिप्रेक्ष्य है, लेकिन वह प्रेमचंद से भिन्न है। सिर्फ समानता दोनों के उपन्यासकार होने में हैं। हाँ, मंडल जी के उपन्यास-लेखन का दृष्टिकोण विश्वम्भरनाथ शर्मा ‘कौशिक’ से मिलता-जुलता है। प्रेमचंद के ‘निर्मला’ और ‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास ही मंडल जी के उपन्यासों से मेल खाते हैं !” वहीं, प्रो0 सुरेंद्र स्निग्ध ने दृढ़ता से अनूपलाल मंडल को ‘प्रेमचंद स्कूल’ का उपन्यासकार  कहा है और स्निग्ध जी के कारण ही वह ‘बिहार के प्रेमचंद’ हो गए होंगे ! कहा जाता है, वे शांतिनिकेतन, बोलपुर जाकर गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर से आशीर्वाद भी लिए थे। उन्हें ‘साहित्यरत्न’ से लेकर विक्रमशिला हिंदी विद्यापीठ ने ‘विद्यासागर’ की मानद उपाधि भी प्रदान किया था। तभी तो डॉ0 परमानंद पांडेय ने उन्हें लिखते हुए ‘अनूप साहित्यरत्न’ कहा है।

‘साकी’ का अंत उन्होंने उर्दू के एक शे’र से किया था और मैं भी इस शे’र के साथ हूँ, जो है-

“साकी की मुहब्बत में दिल साफ हुआ इतना,
जब सर को झुकाता हूँ, तो शीशा नज़र आता है।”

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संदर्भ-ग्रंथ:- 

बिहार राष्ट्रभाषा परिषद की पुस्तकें, पत्रिकाएँ, अन्य पुस्तकें, उनसे जुड़े साहित्यकारों/लोगों के साक्षात्कार और आलेखक द्वारा उपन्यासकार अनूपलाल मण्डल के गांव-घर की स्वानुभूति साहित्यिक-यात्रा।

© डॉ. सदानंद पॉल

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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