श्री मुकेश दुबे

☆ पुस्तक चर्चा  ☆ “काँच के घर” (उपन्यास)– डॉ हंसा दीप ☆ चर्चाकार – श्री मुकेश दुबे ☆

पुस्तक  : काँच के घर (उपन्यास)

लेखिका : डॉ हंसा दीप

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली

मूल्य : 260/

☆ साहित्यिक बदसूरती का खूबसूरत दस्तावेज है यह उपन्यास” – मुकेश दुबे ☆

जीव विज्ञान और आयुर्विज्ञान की एक शाखा है ‘शारीरिकी’ या ‘शरीररचना-विज्ञान’ जिसे अंग्रेजी में Anatomy कहा जाता है । इस विज्ञान के अंतर्गत किसी जीवित (चल या अचल) वस्तु का विच्छेदन कर, उसके अंग प्रत्यंग की रचना का अध्ययन किया जाता है। हंसा दीप ने अपने सद्य प्रकाशित उपन्यास काँच के घर में हिन्दी साहित्य की बजबजाती और सड़ांध मारती देह का सूक्ष्मता से विच्छेदन किया है। यह उनकी लेखनी का कौशल है कि वर्तमान साहित्यिक कुरूपता भी लच्छेदार तंज और भाषायी सौंदर्य से संवर कर मनभावन हो उठी है। लेखिका रह भले ही विदेशी धरती पर रही हैं किन्तु इनकी लेखनी आज भी स्वदेशी सरोकारों को केन्द्र में रखकर सृजन कर रही है।

समकालीन साहित्यिक परिदृश्य में लेखन से महत्वपूर्ण है लेखक का कद और वो बढ़ता है पुरस्कार से, सम्मान से। इस धारणा को कुछ लोग व संस्थाओं ने अपनी कर्मभूमि बनाकर नवीन व्यवसाय बना लिया है। मुद्दा यह नहीं क्या लिखा है, महत्वपूर्ण है किसने लिखा है… लिखे गए को कितने पुरस्कार मिले हैं और उनमें अन्तरराष्ट्रीय स्तर के कितने हैं। जाहिर है कि इस ट्रेंड में साहित्य दोयम दर्जे का और सम्मान मुख्य हो गया है। एक जगह हंसा दीप जी लिखती हैं इसी किताब में “सम्मान के लिए साहित्य की क्या जरूरत है”, सटीक व धारदार व्यंग्य है आज की भाषाई सेवा व सृजनशीलता पर। सम्मान की जुगाड़ और बंदरबांट में लगे तथाकथित बुद्धिजीवियों व साहित्यकारों और उनकी इस कमजोरी को पोषित कर फायदा उठाने वाली संस्थाओं के क्रियाकलापों को जमीन बनाकर लिखा गया यह उपन्यास सत्य के इतना करीब लगता है कि इसके मुख्य पात्र मोहिनी देववंशी व नंदन पुरी अपने आसपास के अनगिनत साहित्यकारों में नज़र आने लगते हैं। दरअसल ये फकत नाम नहीं हैं, ये जाति विशेष के प्रतिनिधि चेहरे हैं, स्वयंभू हिमालय हैं। ये अपने आप को आसमान में दमकता सितारा समझते हैं भले ही अपनी झूठी शान की आँच में इनका रोम-रोम झुलसता रहे लेकिन प्रतिद्वंदिता की पाशविक प्रवृत्ति इन्हें इंसान रहने ही नहीं देती और ये स्वयं को शीर्ष का साहित्यकार मानते हैं। साहित्य इनके लिए शतरंज की बिसात से अधिक कुछ नहीं है। शह और मात की लत में ये इतना नीचे गिर गये हैं कि मानवता भी शर्मसार है इन पर बस इनको शर्म नहीं आती है।

डॉ. हंसा दीप

स्वनामधन्य इन साहित्यकारों की कुकुरमुत्ते सी उगी साहित्यिक संस्थाएँ हिन्दी भाषा की सेवा की ओट में तरह-तरह का शिकार कर रही हैं। लेखिका के अनुसार “बहुत कुछ बदला था। सब अपनी सुविधाओं के अनुसार चीजें बदल रहे थे। लोग सिर्फ़ समूहों में ही नहीं बँटे थे, उनके दिल भी बँट गये थे।” कितना सही आकलन किया गया है लेखिका द्वारा। दिल बँट गये हैं और आत्मा शायद मृतप्राय है। वैचारिक मतभेद अब मनभेद बन गये हैं जिन्हें समयकाल व परिस्थितियों के अनुकूल कर सही साबित करने के लिए बाकायदा किलाबंदी कर सुनियोजित चालें चली जाती हैं। इन शतरंजी नबावों के वजीर, हाथी-घोड़े व पैदल भी होते हैं जो अपनी कूवत अनुसार खाने बदलते रहते हैं और कभी-कभी तो बड़ी शय पर छोटे मोहरे भी बाजी पलट देते हैं। कथानक में एक दृश्य खासा प्रभावित करता है। मोहिनी देववंशी की बेटी का विवाह और विवाह की मजबूरी पढ़ते हुए सामान्य भले लगे परन्तु हंसा जी ने इस ढेले से कई चिड़िया मार गिराई हैं। यही वो भाषाई अभिभावक बन रहे हैं जिनसे अपनी संतान का पालन ठीक से नहीं हो सका और चले हैं हिन्दी का पोषण करने। ऐसे अनेक दृश्य व उदाहरण हैं कथानक में जो गहरा प्रभाव छोड़ते हैं मन-मस्तिष्क पर।

लोकोक्तियों व मुहावरों के प्रयोग से भाषाई पंच और अधिक पैना हो गया है। संवाद जब समाप्त होता है, होठों की कमान पर व्यंग्य का तीर कस जाता है और लक्ष्य भेदन के साथ बरबस ही मुस्कान बिखर जाती है। शायद ही कोई पहलू शेष रहा हो हंसा जी की दृष्टि से। लेखन, सम्पादन, प्रकाशन व प्रचार-प्रसार पर भी गहरे प्रहार किए हैं आपने। विदेशी मुद्रा के बदले लिए जाने वाले फायदों को भी समाहित कर लिया है। ‘लिटरेरी फेस्टिवल’ की असलियत भी जान जायेगा पाठक और हो सकता है शीघ्र ही ऐसे किसी किसी आयोजन की भूमिका बनाने लगे। छद्म वाहवाही और सम्मान के आढ़तियों को भी नहीं बख्शा है हंसा जी ने। अंत में बड़े सम्मान की आस में भारत आए प्रवासी साहित्यकारों को खाली हाथ लौटाकर यह संदेश भी दिया है कि अभी सब कुछ समाप्त नहीं हुआ है। रचना ही मूल है रचयिता की पहचान का, सप्रयास बढ़ाया कद ढलते सूरज की धूप है जो परछाईं को बड़ा तो कर सकती है लेकिन स्थाई नहीं बना सकती। क्षणिक सुख केवल मरीचिका है।

लेखिका – डॉ. हंसा दीप

संपर्क – Dr. Hansa Deep, 22 Farrell Avenue, North York, Toronto, ON – M2R1C8 – Canada  Phone – 001 647 213 1817 Email – [email protected]

समीक्षक – मुकेश दुबे

संपर्क – विजय विला, 107, डी.डी. एस्टेट, कॉलोनी सीहोर (म.प्र.) 466001 मोबाइल – 9826243631 ईमेल –  [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

image_print
0 0 votes
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments