॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ नर नारी सहयोग ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

एक सडक़ जंगल से होकर गुजरती थी। वन में सडक़ के किनारे एक पुराना पेड़ था। पेड़ के पास ही बरसात में एक लता उत्पन्न हो गई। वह पेड़ का सहारा लेकर बढ़ चली। उस पेड़ से लिपटकर वह धीरे-धीरे ऊपर बढ़ते हुये पेड़ की ऊंचाई तक पहुंच गई। पेड़ की डालों पर छा गई और फूलने-फलने लगी। जो भी पदयात्री रास्ते से निकलते उनकी दृष्टि वृक्ष पर जाती। बेल के फूल-फलों से वृक्ष बड़ा सुन्दर दिखता था। उस वृक्ष की विशालता से सौंदर्य का भी विस्तार हो रहा था। इस से वृक्ष को अहंकार हो गया कि लता के विकास और सौंदर्य का श्रेय तो उसे ही है। यदि उसने लता को आश्रय न दिया होता तो लता कहां होती और उसका सौंदर्य कहां होता जो सब राह चलने वाले निहार कर खुश होते हैं और प्रशंसा करते हैं। यदि उस का सहारा न मिलता तो लता कब की नष्ट हो गई होती।

उसने एक दिन लता को धमकाते हुये कहा- ‘अरी! ना समझ बेल, इतनी इठलाती क्यों है? मेरी बात मान कर रहा कर नहीं तो मैं तुझे गिराकर मिट्टी में मिला दूंगा।’

जब वह लता को यों डांट रहा था तभी वहां से दो पथिक रास्ते से निकले। वे आगे जा रहे थे। एक ने दूसरे से कहा- ‘बन्धु देख रहे हो, यह सामने वाला ऊंचा पेड़ कितना सुन्दर दिखाई दे रहा है। इसकी छाया कितनी सघन और मोहक है। इसके साथ जो बेल चढ़ी हुई है उसके फूल कितनी अच्छी सुगंध फैला रहे हैं। आओ, इसके नीचे छाया में थोड़ी देर विश्राम कर लें फिर रुक कर आगे चलेंगे।’

उनकी बातें सुन वृक्ष अपना अभिमान भूल गया। उसे पथिकों की बातों से स्पष्ट समझ में आ गया कि उसका अभिमान व्यर्थ है, क्योंकि उन्होंने लता और उसमें लगे फूलों की सुगन्ध से आकर्षित होकर वृक्ष और उसकी छाया की प्रशंसा की थी और वहां पर थोड़ी देर रुकने का मन बनाया था। उसकी प्रशंसा का कारण लता का साथ था। अपने झूठे अभिमान में व्यर्थ ही वह लता को डांट रहा था। यदि लता उसके सहारा से विकसित न हुई होती तो उस पेड़ का सौंदर्य कहां उभरा होता। उसकी प्रशंसा लता के ही कारण संभव हो सकी थी।

कथा का मर्म यह है कि जैसे पेड़ की शोभा लता से है और लता की शोभा व प्रशंसा वृक्ष के सहारे और संग से होती है, वैसे ही समाज में पुरुष और नारी की स्थिति है। उनके साथ और सहयोग से ही दोनों की शोभा, सम्मान और दोनों की पारस्परिक उन्नति होती है। दोनों ही एक दूसरे के सहयोगी तथा पूरक सहचर जीवनयात्री है। प्रत्येक एक दूसरे के परिपूरक हैं। न कोई छोटा है न कोई बड़ा। हां सच में एक के बिना दूसरा अधूरा है। दोनों को एक-दूसरे का सम्मान करना चाहिये और दोनों को मिलकर रहना चाहिये तभी उनकी शोभा है।

 © प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

 ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, म.प्र. भारत पिन ४६२०२३ मो ७०००३७५७९८ [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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