मानस के मोती

☆ ॥ मानस में लोकोत्तियां – भाग – 3 ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

उत्तरकाण्ड

मृग लोचनि के नैनसर को अस लागि जाहि।

चिंतासांपिनी को नहि खाया, को जग जाहि न लागी माया।

सुत वित लोक ईसना तीनी, केहि के मति इन्ह कृत न मलीनी।

सकल सोकदायक अभिमाना।

ऐसेहि हरि बिन भजन खगेशा, मिटहिं न जीवन देकर कलेशा।

भगतहीन गुन सब सुख ऐसे, लवन बिना बहु व्यंजन जैसे।

नारी मुई गृह संपति नासी, मूड़ मुड़ाई होहिं सन्यासी।

अति संघरषन करि जो कोई, अनल प्रगट चन्दन ते होई।

ईश्वर अंस जीव अविनासी, चेतन अमल सजह सुखरासी।

ग्यानपंथ कृपाण की धारा, परत खगेश होहिं नहिं बारा।

संत सहहिं दुख पर हित लागी, पर दुख हेतु असंत अभागी।

श्रुति पुरान सब ग्रंथ कहाहीं, रघुपति भगति बिना सुख नाहीं।

बारि मथे घृत होई बरु सिकता ते बरु तेल।

बिनु हरि भजन न भव तरिअ यह सिद्धांत अपेल॥

रामकथा के तेई अधिकारी जिन्ह के सत्संगति अति प्यारी।

केहि के लोभ विडम्बना जिन्ह न एहि संसार।

जाने बिन न होई परपीती, बिन परतीती होई नहिं प्रीती।

बिनु संतोष न काम नसाहीं, काम अछत सुख सपनेहु नाहीं।

तृस्ना केहि न कीन्ह बौराहा, केहिकर हृदय क्रोध नहिं दाहा।

मत्सर काहि कलंकु न लावा, काहि न सोक समीर डौलावा।

रवि सन्मुख तम कबहुं कि जाही।

बिन हरि भजन न जाहिं कलेशा।

कोटि भांति कोऊ करे उपाई, कहुं थल बिनु जल रह न सकाई।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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