श्री संजय भारद्वाज
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – जादू
तप रहा है शरीर,
आराम करो,
गहरा सोओ,
बीच में नींद खुले
तो भी लेटे रहो,
रात-बिरात या
जल्दी उठकर
कलम मत चलाओ,
इन्हीं सबसे
टूटते हैं पोर,
बिगड़ता है
शरीर का लेखा,
खंड-खंड होने
लगती है जीवनरेखा,
अपनों के, परिचितों के
चिकित्सक के निर्देश
अनवरत जारी थे..,
कुछ देर के
घोर नीरव के बाद
मैं चुपचाप उठा,
पिंजरे में कैद
तोते में बसे
किसी पौराणिक पात्र के
प्राण-सी सहेजी
अपनी कलम उठाई,
फिर कलम चलाई,
कुछ अक्षर झरने लगे
टूटे पोर जुड़ने लगे,
शरीर का लेखा
संवरने लगा,
देह में प्राण लौटने लगा,
खुली आँखों से
मैंने जादू देखा
अखंड हो गई
मेरी जीवनरेखा…!
© संजय भारद्वाज
रात्रि 10:55, 27.09.2018
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
संजयउवाच@डाटामेल.भारत