॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #7 (65-71) ॥ ☆

‘‘ राजाओं ! रघुपुत्र ने हरण कर यश, छोड़ा तुम्हें सबको जीवित दयावश”

यह रक्तरंजित श्शरों से सेना ने लिखा उनके ध्वज पर बढ़ा यश ॥ 65॥

 

हटा शिरस्त्राण बिखरी लटो युत, थे भाल पर स्वेद के बिंदु जिसके

कर में धनुषबाण लिये अज ने कहा तब भयभीत अपनी प्रिया से ॥ 66॥

 

हे इन्दु ! बालक भी छीन ले शस्त्र इन ऐसे रिपुओं को तो निहारो

इनकी इसी मूर्खता से हो मेरी तुम जिसको पाने सब लड़ रहे जो ॥ 67॥

 

प्रति द्वन्दियों के भय से उबर कर मुख इन्दु के ने थी यो चमकपाई

निश्वास की भाप को पोंछ देने पै ज्यों ग्लान दर्पण है देता दिखाई ॥ 68॥

 

पति के पराक्रम से संतुष्ट ही जित, न खुद, सखी वाणी से की पर प्रशंसा

जैसे धरा घन से जल पाके हो ह्ष्ट करती प्रकट मोरवाणी से मंशा ॥ 69॥

 

अतुल सुंदरी इंदु की सुरक्षा हित, सरलता से अज ने नुपों को हराया

रथ तुरग गज धुलि से अलक जिसकी भरी,उस विजयश्री को ज्यों साक्षातपाया 70

 

तब ज्ञानी रघु ने जयी अज का अभिनंदन कर, सपत्नीक उसको सौंप भार राज्य, घर का ।

वानप्रस्थ जीवन ही जीने की इच्छा की, होते योग्य पुत्र सूर्यवंश की जो थी प्रथा ॥ 71॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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