श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – अव्यक्त ??

अंतहीन विवाद,

भीषण कलह,

एक-दूसरे के लिए आज से

मर चुका होने की घोषणा,

फिर भी जाने क्या था कि

खिड़की के कोने पर खड़ा वह

भाई को तब तक देखता रहा

जब तक सुरक्षित रूप से

पार नहीं कर ली उसने सड़क,

और ओझल नहीं हो गया आँखों से..,

 

आपसी सहमति से हुए

उनके संबंध विच्छेद पर

अब तो अदालती मोहर भी लग चुकी,

फिर भी जाने क्या है कि

हर रोज़ वह बनाती है अपने साथ

उसके भी नाम की रोटियाँ

और सुबह आँसुओं के नमक से

लगा-लगा कर खाती है

रोज़ाना उसे कोसते हुए…,

 

संपत्ति बीच में क्या आई

शत्रु हो गई अपनी ही जायी,

एक खुद का,दो बेटों का

और एक बेटी का हिस्सा करके भी

गुज़रने से पहले

माँ अपना हिस्सा भी कर गई

अबोला किये बैठी नाराज़ बेटी के नाम…,

 

“लव यू मॉम…”

“मेड फॉर इच अदर” “फारॅएवर…”

“ग्रेटेस्ट ब्रो!’

सेलेब्रेशन, विशिष्ट संबोधन

और फिर पढ़ता हूँ सुर्खियाँ-

भाई का भाई द्वारा खून,

पति निकला पत्नी का हत्यारा,

बूढ़ी माँ को बेटी ने दिया घर निकाला…,

 

सोचता हूँ

जो अभिव्यक्त नहीं होता था

संभवत: अधिक परिपक्व

अधिक सशक्त होता था!

 

©  संजय भारद्वाज

( 2 जुलाई 2016, प्रात: 6:30 बजे, पुणे से मुंबई की यात्रा में)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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माया कटारा

जीवन की वास्तविकता को चित्रित करती मर्मस्पर्शी रचना – धन- दौलत की धुरी पर टिके रिश्ते कैसे-कैसे घिनौने रंग दिखाते हैं ? पिसती रहती है सिर्फ़ माँ – ऐसी ही जीवन की विडंबनाएँ हैं जो अभिव्यक्त नहीं हो पातीं किंतु सशक्त होती हैं ….. बड़ी ही प्रभावशाली अभिव्यक्ति ……अभिवादन

अलका अग्रवाल

जीवन की वास्तविकता को उकेरती धन-दौलत के कारण बने सगे जहरीले रिश्तों को उजागर करती भावपूर्ण अभिव्यक्ति।