श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – झुर्रियाँ  ?

देखता, समझता, पढ़ता हूँ

दहलीज़ तक आ पहुँची झुर्रियाँ,

घर के किसी रैक पर

कभी सलीके से धरी,

कभी तितर-बितर पड़ी

तो कभी फटे टुकड़ों में सिमटी,

बासी अख़बार की तरह उपेक्षित झुर्रियाँ..,

गुमान में जीते

नये अख़बारों को पता ही नहीं

कि ख़बरें अमूमन वही रहती हैं,

बस संदर्भ ताज़ा होते हैं और

तारीख़ें बदलती रहती हैं,

और हाँ, दिन, हर दिन ढलता है,

हर दिन नया अख़बार भी निकलता है!

 

आपका दिन सार्थक हो।

©  संजय भारद्वाज

प्रात: 8:33 बजे, 24.8.2021

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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माया कटारा

सत्य कथन- हर झुर्री अनुभव बखानती , जीवन का कटु सत्य बताती है …….
मर्मभरी दास्ताँ …..

Rita Singh

सच्चाई

वीनु जमुआर

अख़बार और झुर्रियाँ..बहुत ख़ूब!

अलका अग्रवाल

झुर्रियों की तरह बासी अखबार के बुरे, निकृष्ट हालात।वास्तविकता इसके विपरीत होती है।बहुत सुंदर अभिव्यक्ति।