सुश्री अनीता श्रीवास्तव

☆ कविता ☆ राम पूछते हैं ☆ सुश्री अनीता श्रीवास्तव ☆

कर सकोगे

मन की अयोध्या तैयार!

राम पूछते हैं।

 

तह से कुरेदना होंगीं

रोम-रोम में घर कर चुकी बेईमानियां

जड़ से उखाड़ना होगा

पुष्ट हुआ दम्भ का वट – वृक्ष

खुरचना होंगी 

लोभ की महीन एक पर एक परतें

मौलिकता को प्रकट करना होगा

वनवासियों की धूसरता की तरह

क्या तैयार हो?

राम पूछते हैं।

 

क्या उगा सकोगे

सहृदयता की कोमल दूब

फिर चाहे कपटी स्वर्णमृग ही चरे

दे सकोगे अपनी महत्वाकांक्षाओं को वनवास

गले लगा सकोगे ढुलाई देने के बाद कुली को

मान दे सकोगे सिंहासन से परे

 भेजेने वाली कैकेयी को?

राम पूछते हैं!

 

हे देवी!

अग्निपरीक्षा पर प्रश्न शेष है

या श्रद्धा हो गई छाया प्रसंग पर

वैभव की बनावटी परतें धो सकोगी

सादगी और सौम्यता पिछड़ापन तो नहीं लगेंगे

त्याग के निमित्त राजी कर सकोगी अपने राम को?

राम पूछते हैं!

 

पुनश्चः

वचन निभाने में निर्मम हो सकोगे?

दशरथ की भांति

कर सकोगे कल्याण के निमित्त अपनी संतानें

राजसुख से दूर !

करो भूमि पूजन

बनाओ मंदिर

बना सकोगे?

राम पूछते हैं।

 

© सुश्री अनीता श्रीवास्तव

मऊचुंगी टीकमगढ़ म प्र

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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