श्री जय प्रकाश पाण्डेय

वर्तमान में साहित्यकारों के संवेदन में बिखराव और अन्तर्विरोध क्यों बढ़ता जा रहा है, इसको जानने के लिए साहित्यकार के जीवन दृष्टिकोण को बनाने वाले इतिहास और समाज की विकासमान परिस्थितियों को देखना पड़ता है, और ऐसा सब जानने समझने के लिए खुद से खुद का साक्षात्कार ही इन सब सवालों के जवाब दे सकता है, जिससे जीवन में रचनात्मक उत्साह बना रहता है। साक्षात्कार के कटघरे में बहुत कम लोग ऐसे मिलते हैं, जो अपना सीना फाड़कर सबको दिखा देते हैं कि उनके अंदर एक समर्थ, संवेदनशील साहित्यकार विराजमान है।

कुछ लोगों के आत्मसाक्षात्कार से सबको बहुत कुछ सीखने मिलता है, क्योंकि वे विद्वान बेबाकी से अपने बारे में सब कुछ उड़ेल देते है।

खुद से खुद की बात करना एक अनुपम कला है। ई-अभिव्यकि परिवार हमेशा अपने सुधी एवं प्रबुद्ध पाठकों के बीच नवाचार लाने पर विश्वास रखता है, और इसी क्रम में हमने माह के हर दूसरे बुधवार को “खुद से खुद का साक्षात्कार” मासिक स्तम्भ प्रारम्भ  किया हैं। जिसमें ख्यातिलब्ध लेखक खुद से खुद का साक्षात्कार लेकर हमारे ईमेल ([email protected]) पर प्रेषित कर सकते हैं। साक्षात्कार के साथ अपना संक्षिप्त परिचय एवं चित्र अवश्य भेजिएगा।

आज इस कड़ी में प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार – साहित्यकार श्री संतराम पाण्डेय जी का  खुद से खुद का साक्षात्कार. 

  – जय प्रकाश पाण्डेय, संपादक ई-अभिव्यक्ति (हिन्दी)  

☆ खुद से खुद का साक्षात्कार #2 – जो बात पत्रकार नहीं कह सकता, वह व्यंग्यकार कह डालता है…..  श्री संतराम पाण्डेय

श्री संतराम पाण्डेय

लेखक परिचय  

मेरा इस धरती पर अवतरण उस प्रदेश में हुआ, जहां मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम को यह सौभाग्य मिला था यानि कि अवध प्रदेश जिसे अब उत्तर प्रदेश का अयोध्या (फैजाबाद) कहा जाता है। मेरेे माता-पिता कहते थे कि जब मैं पैदा हुआ तो बहुत आंधी-तूफान आया था।

जन्म स्थान: ग्राम- बरांव, जनपद अयोध्या (फैजाबाद, उप्र)।

पिता : स्व. श्री राम मिलन पाण्डेय

माता: स्व. श्रीमती शिवपती पाण्डेय

अद्र्धांगिनी: श्रीमती कांति पाण्डेय

जन्म: ०२ अप्रैल १९५६

शिक्षा: स्नातक, बीटीसी

व्यवसाय: पत्रकारिता  लगभग ४० वर्षों से

रुचि: समाचार पत्र-पत्रिका संपादन, लेखन, पठन

साहित्य लेखन यात्रा: 

  1. दैनिक प्रभात में १२ वर्षों तक तिरछी नजर के नाम से नियमित व्यंग्य का स्तंभ लेखन, लगभग ३ हजार व्यंग्य एवं टिप्पणियां।
  2. दैनिक विजय दर्पण टाइम्स में जरा सोचिए स्तम्भ में 200 से अधिक आलेख लेखन।
  3. देश के विभिन्न समाचार पत्रों में आलेख, रिपोर्ट्स, साक्षात्कार, व्यंग्य, कविताएं प्रकाशित।

पुस्तक प्रकाशन-

व्यंग्य संग्रह- अगले जनम मोहे व्यंग्यकार ही कीजौ

अनुभव: अनेक समाचार पत्रों में संपादन, रिपोर्टिंग, साक्षात्कार।

संप्रति: कार्यकारी संपादक, सांध्य दैनिक विजय दर्पण टाइम्स, मेरठ

वर्तमान संपर्क: एफ-३२९, गंगानगर, मवाना रोड, मेरठ-२५०००१ (उत्तर प्रदेश)

सचलभाष: ०७८९५५०६२८६,  ०८२१८७७९८०५

मेल आईडी: [email protected]

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स्वनाम धन्य संतराम पाण्डेय ले रहे हैं अपना साक्षात्कार…

०१. सवाल:- अपने बारे में कुछ बताइये?

-अपने बारे में बताने के लिए है ही क्या और जो  है, उसकी बहुत लंबी चौड़ी कहानी है। संक्षेप में ये है कि पाण्डेय जी ४ फुट ५ इंच के छोटे से ६५ साल के नौजवान हैं। पैदा तो एक किसान ब्राह्मण के घर हुआ। थोड़ी पढ़ाई लिखाई की। मास्टरी भी की, फिर अखबारबाजी में आ जुटा और इसमें जुटने के बाद बस, जुटा ही हूं। मुझे थकान नहीं होती। न किसी काम से ऊब होती है। जो करता हूं, मन से करता हूं। मन कहीं भटकता है तो ज्यादा काम उसे अपने से भटकने नहीं देता। जो ठान लिया करता ही हूं।

0२. सवाल: वाह पांडे जी! बहुत खूब। आज आया ऊंट पहाड़ के नीचे। सबको खबरों के कठघरे में खड़ा करने वाला आज अपनी मर्जी से खुद भी कठघरे में खड़ा है। या यूं कहें कि अपने ही सवालों के घेरे में खड़ा है। पूरी ईमानदारी और शिद्दत के साथ। कैसा लग रहा है इस अजीबोगरीब साक्षात्कार का कठघरा?

-अच्छा लग रहा है। अक्सर किसी भी विधा का लेखक हो, वह स्वयं को नहीं देखता। स्वयं से कूुछ नहीं पूछता। न स्वयं के बारे में जानना चाहता है। पाण्डेय जी को लोग पत्रकार के रूप में जानते हैं। व्यंग्यकार के रूप में कम ही जानते हैं। पाण्डेय जी एक संवेदनशील प्राणी हैं। जब लोगों के दो-दो रूप देखते हैं तो दर्द होता है और यहीं से एक पत्रकार में व्यंग्यकार जाग उठता है। तब वह पत्रकार की भी नहीं सुनता।

०३ सवाल: आज अखबारों में खबरों से कहीं ज्यादा साहित्य बाँचा जा रहा है। क्या यह सच है?

– आज अखबारों की दशा खराब है। उसमें साहित्य कहां बचा है। अब तो वह जो बिकता है, वह छपता है की नीति पर चलने लगा है। एक वक्त था कि अखबारों में साहित्य भरा होता था। अब ऐसा कम ही है। अब अखबार एक कारखाने की तरह चल रहे हैं। कुछ अखबार हैं जो साहित्य को गंभीरता से लेते हैं। जबसे युग अर्थ प्रधान हुआ, तबसे यह बदलाव भी आया है लेकिन जबसे साहित्य अखबारों से गायब होना शुरू हुआ, साहित्यकारोंं की रुचि भी अखबारों में कम होने लगी।

०४ सवाल: हास्य व्यंग्य के तीखे कालम पहले भी अख़बारों के हिस्से हुआ करते थे पर इस अचानक बदलाव को देख कर क्या ऐसा नहीं लगता कि साहित्य खबरों पर चड्ढी गांठ रहा है?

-सही कह रहे हैं। आदरणीय हरिशंकर परसाई, शरद जोशी जी, केपी सक्सेना जी, श्री गोपाल चतुर्वेदी जी के कॉलम अखबारों के हिस्सा हुआ करते थे। कितने लोग केवल इन्हें ही पढऩे के लिए अखबार खरीदते थे। अब अखबारों से व्यंग्य के कॉलम गायब से हो गए हैं।

०५. सवाल:  साहित्य की कौन कौन सी विधाएं जन मानस से जुड़ी हैं, इसमें हास्य और व्यंग्य की नुमाइंदगी कितनी है? क्या व्यंग्य समय की मांग है?

– पाठकों की अपनी रुचि होती है लेकिन व्यंग्य समाज से गहराई तक जुड़ा है। व्यंग्य आम आदमी की बात करता है। वह गंभीर बात को सहजता से कहने में सक्षम है और यह अखबारों की जरूरत भी है। व्यंग्य समय की मांग है।

०६. सवाल: तो क्या वह पूरी ईमानदारी के साथ अपनी भूमिका निभाने में सक्षम है।

– यही तो दुखद है। अधिकांश व्यंग्यकार व्यंग्य के नाम पर भड़ास लिख रहे हैं। व्यंग्यकार व्यंग्य का मर्म नहीं समझ पा रहे हैं। उन्हें समझना होगा कि व्यंग्य आम आदमी की बात करता है। वह आम आदमी के लिए बड़ी से बड़ी ताकत से टकराने का साहस रखता था लेकिन व्यंग्यकार इस बात को गंभीरता से नहीं ले रहे हैं। उनमें पाले खिंच गए हैं। खेमेबंदी हो गई है। इससे व्यंग्य का नुकसान हो रहा है।

0७ सवाल: आप व्यंग्यकार हैं?

-हूँ तो नहीं। लोगों ने बना दिया और जबसे पता चला कि भाई लोग मुझे व्यंग्यकार मानने लगे हैं तो मैं गुलाटी मार गया। एक किताब लिख डाली-अगले जनम मोहे व्यंग्यकार ही कीजो। अब  बताइये, जब इस जनम में मैं व्यंग्यकार होता तो क्यों अगले जनम के लिए अपनी सीट आरक्षित कराता। हां, एक बात जरूर कहूंगा कि जो बात पत्रकार नहीं कह सकता, वह व्यंग्यकार कह डालता है।

0८. सवाल: कुछ व्यंग्य के बारे में बताइये?

-मैं तो कहता हूं कि-मारे और रोवन न दे, कुछ ऐसा जो लिख मारे, वही व्यंग्य। जो पढ़ेे तो गरियावे भी और शांत भी बैठे और सोचे तो शाबाशी भी दे।

0९.सवाल: और व्यंग्यकार?

-हुंह, टेढ़ी नजर। आंख पे चश्मा। दाढ़ी बढ़ी हुई। ऊटपटांग पहनावा। कुर्ता हो तो जेब फटी। जिसके पास अपना कुछ खोने को न हो, वही व्यंग्यकार। कबीरदास जी ने कहा है न- जो घर फूंके आपनो, चलै हमारे साथ, तो कुछ ऐसा होना चाहिए व्यंग्यकार को, नहीं तो दुनिया उसे जीने नहीं देगी।

१०. सवाल: आजकल व्यंग्य बहुत लिखे जा रहे हैं?

-तो लिखने दो न। रहेगा तो वही जो व्यंग्य होगा। भड़ास लिख रहे हैं लोग। भड़ास तो भड़ास ही है, वह व्यंग्य तो नहीं हो जाएगा।

११. सवाल: अच्छा ये तो ठीक है, ये दाढ़ी? फिर परिवार में निभती कैसे है?

-हा हा हा, कुछ दिन तो हाय, हंगामा होता रहा, फिर यथास्थिति बन गई। सच तो यह है कि समय नहीं मिलता थ्राा कि हर तीसरे दिन इसे घोटता रहूं, इसलिए बढऩे दिया। जब लोग टोकना शुरू करते हैं तो इसकी कटाई करनी पड़ती है।

१२. सवाल: अपने व्यंग्य पर कोई संस्मरण बताइये?

-एक बार मेरे एक सहकर्मी ने कहा कि चलो आपको अपने गांव घुमा लाते हैं। मैं भी तैयार हो गया। उनके गांव के बाहर एक पान की दुकान थी। वह भी वहां रोज पान खाते थे तो मुझे भी ले गए, कहा- चलो आपको आपके एक चाहने वाले से मिलाते हैं। मैं हैरान था कि इनके गांव में मेरा कौन है चाहने वाला। फिर भी मैं चला गया। दुकान के सामने पहुंचकर मेरे सहकर्मी ने दुकानदार से पूछा- इन्हें पहचानते हो। दुकानदार ने बड़ी देर तक घूरते हुए देखा, फिर बोला, कहीं देखा तो है, पर ध्यान नहीं आ रहा। सहकर्मी बोले- अरे वही हैं जिसे तुम कालम में पढ़कर रोज गरियाते हो कि आज तो इसने मेरे दिल की बात लिख दी है। वह हैरान और दुकान से उतरकर तुरंत मेरे पैर छूने लगा। मैंने कहा भाई यह तो मेरा सम्मान है कि हमें तुम जैसा पाठक मिला। उन दिनों समाचार पत्र में मेरा तिरछी नजर से रोज का एक कालम छपता था जो कि बहुत लोकप्रिय हुआ था।

१३. सवाल: एक सवाल लेखकों पर, आज हर लेखक या कवयित्री व्यंग्यकार होने के चक्कर में हैं, व्यंग्य खूब लिखे जा रहे हैं, क्या कारण है, इसे आप क्या कहेंगे?

-मैं तो यही कहूंगा कि दूसरे की थाली का भोजन अपनी थाली से अच्छा ही दिखता है। जो वाकई व्यंग्य लिख रहे हैं और अच्छा लिख रहे हैं, उन्हें लिखने दें। दाल-भात में मूसरचंद न बनें। जो विधा जिसे रुचती है, उसी में लिखे। मैं एक संपादक भी हूं। बहुत सारी व्यंग्य लिखी रचनाएं आती हैं लेकिन पढऩे पर पता चलता है कि इसमें तो व्यंग्य है ही नहीं। वास्तव में व्यंग्य है कि नहीं, इसे लिखने वाला नहीं, पढऩे वाला निर्धारित करता है।

१४. सवाल: पुरानी पीढ़ी और नई पीढ़ी के व्यंग्य पर आप क्या सोचते हैं?

-ये आपने पते की बात पूछी। परिवर्तन तो ऊपर वाले का नियम है। सब कुछ बदला तो व्यंग्य भी बदल रहा है। व्यंग्यकार भी बदल रहे हैं। अब बहुत पढ़े-लिखे व्यंग्यकार हो गए हैं। कुछ तो ऐसा भी लिखते हैं कि अपनी सारी विद्वता उसमें दे मारते हैं जो पाठक के सिर के ऊपर से निकल जाती है। कुछ देश-विदेश के व्यंग्यकारों के इतिहास-भूगोल को अपने में समेटने में लगे हैं तो कुछ ठेठ गांव के होकर रह गए हैं। अरे भाई लिख किसके लिए रहे हो? ये तो सोचना ही पड़ेगा। जब पढऩे वाले को समझ में ही न आएगा तो लिखने का क्या लाभ। कबीरदास जी ने लिखा और कभी व्यंग्यकार का तमगा अपने गले में नहीं लटकाए लेकिन आज उनके लिखे पर शोध हो रहे हैं। इसलिए आज नई व पुरानी पीढ़ी के व्यंग्यकारों में तादात्म्य नहीं बन पा रहा है। वाहन भले ही नया लेकिन लीक तो पुरानी ही पकडऩी पड़ेगी न। तो पुराने लोगों के बताई लीक पर अपनी नई गाड़ी दौड़ाने लायक कूब्बत तो पैदा करनी पड़ेगी और उसके लिए पुरानी पीढ़ी के व्यंग्यकारों को पढऩा भी पड़ेगा लेकिन मुश्किल ये है कि नई पीढ़ी पढऩे को राजी नहीं है। बस अपनी गाड़ी दौड़ाई जा रही है।

१५. सवाल: पत्रकार संतराम पांडेय या व्यंग्यकार संतराम पांडेय में से आप किसकी बात अधिक सुनते है?

-पत्रकार तो मेरे रक्त में बसा है। वह अलग हो ही नहीं सकता। हां, कभी-कभी जब व्यंग्यकार जागता है तो वह किसी की नहीं सुनता। पत्रकार को भी चुप करा देता है और अपनी कह कर ही दम लेता है। जहां तक अधिक सुनने की बात है तो पाण्डेय जी के ेलिए दोनों एक दूसरे के पूरक बन गए हैं, इसलिए वक्त-वक्त पर दोनों की सुननी पडती है।

१६. एक आखिरी सवाल-व्यंग्य लिखा किस पर जाए?

-हुंह, लगता है कि तुम भी व्यंग्यकार बनने के चक्कर में हो। जो दिखता हो, और कोई साहित्यकार उस पर कुछ बोलने को तैयार न हो तो एक व्यंग्यकार बोल सकता है यानि लिख सकता है।

 

आयोजन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय, संपादक ई- अभिव्यक्ति (हिन्दी)  

संपर्क – 416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
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