सुश्री सुलक्षणा मिश्रा

(आज प्रस्तुत है युवा साहित्यकार सुश्री सुलक्षणा मिश्रा जी की एक भावप्रवण कविता “देखा है”। )

☆ कविता – देखा है ☆

मैंने आँसुओ को आंखों में ही

सूखते हुए देखा है,

मैंने एहसासों को दिल में

घुट घुट के मरते हुए देखा है।

देखे हैं ख्वाब मैंने

बाज़ सी उड़ान के

और देखा है मैंने

उन ख्वाबों को

बेवक़्त दम तोड़ते हुए भी।

मैंने वक़्त को

मुँह फेरते हुए देखा है,

मैंने तकदीरों को

रूठते हुए देखा है।

देखे हैं मैंने वो दौर भी

कि पहुंचे हैं लोग अर्श पर

और अपने नसीबों पर इतराये हैं

और उस दौर के भी

हम ही गवाह हैं

कि गिरे हैँ लोग फर्श पे

एक ही पल में

पर वजह न समझ पाए हैं।

मैंने अजनबियों को देखा है

दोस्त बनते हुए

और देखा है मैंने दोस्तों में

दुश्मनी को पनपते हुए।

देखा है मैंने लोगों को

साँपों से डरते हुए।

कैसे बयाँ करें वो मन्ज़र

कि हमने तो

साँपों को आस्तीनों में

पलते हुए भी देखा है।

हैरां हैं हम इस बात से

कि जो लोग परोसते हैं

चाशनी अपनी जुबान से

उन्ही लोगों को देखा है मैंने

मुस्कुराते हुए पीठ में

खंज़र घोंपते हुए।

मैंने जी हैं ज़िंदगी भी,

और ज़िन्दगी को

जीते जी मौत में

बदलते हुए भी देखा है ।।

© सुश्री सुलक्षणा मिश्रा 

संपर्क 5/241, विराम खंड, गोमतीनगर, लखनऊ – 226010 ( उप्र)

मो -9984634777

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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दीप्ति सक्सेना

शानदार रचना