श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ वही की वही बात 

…सुनो, शहर में नई फिल्म लगी है। शनिवार की शाम को तैयार रहना।  ऑफिस से आते हुए मैं टिकट लेते आऊँगा…, जूते उतारते हुए उसने पत्नी से कहा।

…नहीं, शनिवार को नहीं चल सकती। इतवार को बबलू का जी.के. का टेस्ट है। मुझे उसकी तैयारी करानी है।

…कभी, कहीं भी जाने का मन हो, तुम्हारे बबलू का कोई न कोई अड़ंगा रहता ही है। ये बबलू हमको कभी कहीं जाने ही नहीं देगा। शैतान कहीं का!

बबलू, उन दोनों की एकमात्र संतान। लाड़ला, थोड़ा नकचढ़ा। दोनों बबलू की परवरिश पर बहुत ध्यान देते। माँ, बबलू को दुनिया में सबसे ऊँचा देखना चाहती थी तो बाप उस ऊँचाई पर जाने की सीढ़ी के लिए लगने वाला सामान जुटाता रहता।

अब ज़्यादातर ऐसा ही होने लगा था। दोनों में से किसी एक की या दोनों की जब कहीं जाने, घूमने-फिरने की इच्छा होती, बबलू बीच में आ ही जाता। वैसे दोनों को अपनी इच्छाएँ मारने का कोई रंज़ न होता। होता भी भला कैसे?

बबलू बड़ा होता गया और उनकी इच्छाओं का कद छोटा। कुछ इच्छाओं ने दम तोड़ दिया, कुछ ने रूप बदल लिया। अब मेले में झूले पर साथ बैठी पत्नी का डरकर सार्वजनिक रूप से उसके पहलू में समा जाना,बाहों में बाहें डालकर सिनेमा देखना, पकौड़ेे वाली तंग गली में एक-दूसरे से सटकर एक ही प्लेट में गोलगप्पे खाना, पति के साथ स्कूटर पर चिपक कर बैठना जैसी सारी इच्छाएँ कालातीत हो गईं। बबलू को ऊँचा बनाने की जद्‌दोज़हद के तरीके बतानेवाली किताब में उनकी अपनी इच्छाओं के लिए कोई पन्ना था ही नहीं।

एकाएक एक दिन पत्नी बोली-सुनोजी, चौदह-पंद्रह बरस हो गए शहर से निकले। अगले महीने से बबलू की बीस दिन की छुट्‌टी शुरू हो रही हैं। क्यों न हम वैष्णोदेवी हो आएँ?…..विचार तो तुम्हारा अच्छा है; पर बबलू की माँ, बबलू की इंजीनियरिंग की फीस बहुत ज्यादा है। बीस दिन बाद कॉलेज खुलेगा तो पूरा पैसा एक साथ भरना पड़ेगा। अभी वैष्णो देवी चले गए तो….!….अरे तो क्या हो गया? दिल छोटा क्यों करते हो? हम तो बस यूँ ही…और देवी माँ तो मन में बसती है…अपने पूजा घर में रोज दर्शन करते ही हैं न…!…वो तो ठीक है फिर भी बबलू की माँ मैं तुम्हारी इच्छा….!…क्या बात लेकर बैठ गए! हम माँ-बाप हैं बबलू के। बबलू पहले या हमारी इच्छा?…..सचमुच वे पति-पत्नी कहाँ रह गए थे, वह बाप था बबलू का, वह माँ थी बबलू की।

समय पंख लगाकर उड़ता रहा। बाप रिटायर हो चुका। माँ भी घर का काम करते-करते थक चुकी। अलबत्ता बबलू अब इंजीनियर हो चुका। ये बात अलग है कि उसे इंजीनियर बनाने की जुगाड़ में माँ-बाप के पास बचत के नाम पर कुछ भी नहीं बचा। फिर भी दोनों खुश थे क्योंकि बबलू को इंजीनियर देखना, उनकी सबसे बड़ी पूँजी थी। दो साल हुए, बबलू की शादी भी हो गई। बेटे का ध्यान रखनेवाली आ गई, सो माँ-बाप के पति-पत्नी होने की प्रक्रिया फिर शुरू हुई।

…सुनोजी, वैष्णोे माँ की दया से बबलू के लिए जो चाहा, सब हो गया। अब तो कोई ज़िम्मेदारी भी नहीं रही, वैष्णोेदेवी के दर्शन करने चलें?…हाँ, हाँ, क्यों नहीं? मैं आज ही बबलू से बात कर लेता हूँ। थोड़ा पैसा तो उससे लेना पड़ेगा….अगर वो हाँ कहेगा तो….तो मेरा बबलू क्या माँ-बाप को तीरथ भी नहीं करायेगा?

…..बाऊजी! आपकी और अम्मा की ये उमर है क्या घूमने-जाने की? कल कोई चोट-वोट लग जाए तो?..पर बेटा हम तो तीरथयात्रा!…अम्मा क्या फ़र्क पड़ता है, और देवी माँ तो मन में बसती है। अपने पूजाघर में रोज दर्शन करती ही हैं न आप …., उत्तर बहू ने दिया था।

माँ-बाप खिसिया गए। पति-पत्नी होने की प्रक्रिया को झटका लगा।…..”मैं कहता था न बबलू की अम्मा! ये बबलू हमको कभी कहीं जाने ही नहीं देगा। शैतान कहीं का!”..ज़बर्दस्ती हँसने की कोशिश में माँ-बाप बने पति-पत्नी ने अपने चेहरे विरुद्ध दिशा में घुमा लिए ताकि दोनों एक-दूसरे की कोरों तक आ चुका खारा पानी ना देख सकें।

 

#आपका समय सार्थक हो। 

©  संजय भारद्वाज 

( लगभग 15 वर्ष पूर्व लिखी कहानी।)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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माया कटारा

माता-पिता का समर्पण ही सच्चा समर्पण होता है , हर घर में अपनी संतान की खातिर सब कुछ दाँव पर लगाने के बाद बुढ़ापे में पति-पत्नी तीर्थ यात्रा करने की इच्छा और अपेक्षा करें और उनकी अपेक्षा पूर्ति में संतान अपना दायित्व न निभाते हुए अप्रत्यक्ष रूप से उलाहना दे तो आँखों की नमी को दोनों जिस प्रकार छिपाते हैं , मुस्कराकर झेल लेते हैं , कहानी का भाव पक्ष इस प्रकार उभरता है कि पाठक तथा श्रोता भी भावुक हो उठते हैं , यहीं कहानीकार की कहानी सफलता की चरम सीमा को छूती है अभिनंदन ….. अपने माता-पिता के… Read more »