श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

(सुप्रसिद्ध, ओजस्वी,वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती हेमलता मिश्रा “मानवी”  जी  विगत ३७ वर्षों से साहित्य सेवायेँ प्रदान कर रहीं हैं एवं मंच संचालन, काव्य/नाट्य लेखन तथा आकाशवाणी  एवं दूरदर्शन में  सक्रिय हैं। आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय स्तर पर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित, कविता कहानी संग्रह निबंध संग्रह नाटक संग्रह प्रकाशित, तीन पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद, दो पुस्तकों और एक ग्रंथ का संशोधन कार्य चल रहा है। आज प्रस्तुत है श्रीमती  हेमलता मिश्रा जी की  एक भावप्रवण कविता  हमतुम ****    हम        तुम    )

 

हमतुम ****    हम        तुम   

हम तुम—

क्या सिर्फ एक “संज्ञा” बन गये हैं

व्याकरण की सीमा से बंधा

एक परिचय मात्र?

नहीं – – – सुनों बहुत मेहनत की है

साथ साथ चलने—चलते रहने के लिए

बहुत सहनशीलता लगती है

मिले जुले– एक मंजिल पर पहुंचकर

सच होने वाले सपनों को

पाने में।

बहती सदानीरा सी जिंदगी को निर्मल

बनाए रखने में

सुनों – – हम तुम लगे रहे बरसों बरस

जिंदगी को जिंदगी बनाने में

फिर कैसे मान लें कि हम तुम

एक संज्ञा मात्र हैं—जीवन के व्याकरणों में

क्या सिर्फ इसलिए कि

जिंदगी कम पड़ रही है

रिश्तों को निभाने में

या—थक गये हैं रिश्तों को बनाए रखने

की जद्दोजहद में

चलो–बदल दें समीकरण

सौंप दें दायित्व

रिश्तों का रिश्तों पर

भूल जाएं आत्मांश की परिभाषा

भूल जाएं दुनियावी रिश्तों से भी

पूर्व रूहानी रिश्तों की आशा

बस – – बन जाएं “हम   तुम”

-सिर्फ सिर्फ – –

” हमतुम”

 

© हेमलता मिश्र “मानवी ” 

नागपुर, महाराष्ट्र

Please share your Post !

Shares
0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest

2 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments
अरुणा अभय शर्मा

अद्बुत भाव!! शब्द-शब्द में माधुर्य।

Surekha Mishra

Wah! Jabtak ruh me utarti nahi aadhyatmik bhasha bhulaye nahi bhulti aatmansh ki pri bhasha,nahi bisarti ruhani rishton ki aasha.hum aur tum ke bich hi hai mragtrashna ka khel tmasha.