☆ स्मृतिशेष जयप्रकाश पाण्डेय विशेष – जयप्रकाश पांडेय जी की स्मृति में… ☆ श्री राकेश कुमार☆
हमारा बैंक : हमारी कहानी समूह में 10 अप्रैल 2021 को हम सब के प्रिय श्री जय प्रकाश पांडे जी ने सभी सदस्यों से आग्रह किया था कि आज सभी सदस्य आईना देखकर कुछ भी लिख कर ग्रुप में साझा करें।
वो दिन हमारी जिंदगी का एक टर्निंग पॉइंट था। उनकी प्रेरणा से हमने भी कुछ लिखने का प्रयास किया और संलग्न लेख लिखा था।
आज उनकी स्मृति में उसी लेख को आप सबके के साथ पुनः शेयर कर रहा हूं। 🙏
☆ जीवन की बैलेंस शीट ☆
हमारे प्रिय मित्र ने आदेश दिया कि 🪞आइने के सामने जाकर आज अपनी जिंदगी का लेखा जोखा पेश करो। आजकल समय कुछ नेगेटिव बातो का है तो हमे भी लगने लगा कहीं चित्रगुप्त के सामने पेश होने की ट्रेनिंग तो नहीं हो रही। अभी तो जिंदगी शुरू की है रिटायरमेंट के बाद से।
खैर, हमने इंटरव्यू की तैयारी शुरू कर दी और अपनी सबसे अच्छी वाली कमीज़ (जिससे हमने स्केल 3 से लेकर 5 के interview दिए थे वो मेरा lucky charm थी) पहन, जूते पोलिश कर आइना खोजने लगे अरे ये क्या आइना कहां है मिल नहीं रहा था, मिलता भी कैसे आज एक वर्ष से अधिक हो गया जरूरत ही नहीं पड़ी।
श्रीमती जी से पूछा तो बोली क्या बात है अब Covid की दूसरी घातक लहर चल पड़ी है तो आपको सजने संवरने की पड़ी है, आप उस मोबाइल में ही लगे रहो। एक साल से सब्जी की दुकान तक तो गए नहीं अब जब सारी दुनिया दुबक के पड़ी है और आपको झुल्फे संवारने की याद आ रही है।
हमने उलझना ठीक नहीं समझा और बैठ गए मोबाइल लेकर, दोपहरी को जैसे ही श्रीमतीजी नींद लेने लगी हम भी अपने मिशन में लग गए और आइना खोज लिया। एक निगाह अपनी नख से शिखा तक डाली और थोड़ी से चीनी खाकर चल पड़े। अम्माजी की याद आ गई जब भी घर से किसी अच्छे काम के लिए जाते थे तो वो मुंह मीठा करवा कर ही बाहर जाने देती थी और आशीर्वाद देकर कहती थी जाओ सफलता तुम्हारा इंतजार कर रही है। हमने भी मन ही मन अपनी सफलता की कामना कर ली।
जैसे ही आईने के सामने पहुंचे मुंह से निकल ही रहा था may i come in, sir लेकिन फिर दिल से आवाज़ आई अब तुम स्वतंत्र हो, डरो मत, आगे बढ़ो। आईने में जब अपने को देखा तो लगा ये कौन है लंबी सफेद दाढ़ी वाला पूरे चेहरे पर दूध सी सफेदी देख कर निरमा washing powder के विज्ञापन की याद आ गई।
अपने आप को संभाल कर हमने अपने कुल देवता का नमन किया।
पर ये क्या? मन बहुत ही चंचल होता है विद्युत की तीव्र गति से भी तेज चलता है हम भी पहुंच गए कॉलेज के दिनों में स्वर्गीय प्रोफ सुशील दिवाकर की वो बात जहन में थी जब हमारी बढ़ी हुई दाढ़ी पर उन्होंने कहा था ” not shaving” तो हमने एकदम कहा था ” no sir Saving” वो खिल खिला कर हंसने लगे। बहुत ही खुश मिजाज़ व्यक्ति थे।
अब कॉलेज के प्रांगण में थे तो प्रो दुबे एस एन की याद ना आए ऐसा हो ही नहीं सकता, economics को सरल और सहज भाव में समझा देते थे आज भी उनकी बाते ज़ुबान पर ही रहती है।
एक दिन कक्षा में demand और supply पर चर्चा हो रही थी। उन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की परिस्थितियों का वर्णन करते हुए बतलाया की सरकार जब अपने स्तर पर मज़दूर को रोज़गार देती है तो उससे demand निकलती है, मजदूर पेट भरने के बाद कुछ अपने पर खर्च करने की सोचता है, अपनी shave करने के लिए बाज़ार से एक blade खरीदता है, और शुरू हो जाती है Demand, दुकानदार, होलसेलर को ऑर्डर भेजता है और होलसेलर फैक्ट्री को ऑर्डर भेजता है, फैक्ट्री जो बंद हो गई थी मजदूर लगा कर फैक्ट्री चालू कर देता है और रोज़गार देने लगता है। कैसे एक blade से रोज़गार शुरू होता है।
अपनी लंबी दाढ़ी देख कर हम भी आपको कहां से कहां ले गए, इसलिए आइना नही देख रहे थे हम आजकल।
टीप – हमने किसी दाढ़ी बढ़ाए हुए को भी आइना दिखाने की कोशिश नहीं की। 😁
श्री राकेश कुमार
11th April 2021
संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)
मोबाईल 9920832096
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर / सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈
☆ स्मृतिशेष जयप्रकाश पाण्डेय विशेष – अविस्मरणीय संस्मरण ☆ साभार – स्मृतिशेष जयप्रकाश जी के स्वजन-मित्रगण ☆
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☆ एक अच्छे व्यंग्यकार ही नहीं थे वरन बेहतर मनुष्य भी थे ☆ श्री गिरीश पंकज ☆
जयप्रकाश पांडेय जी के रूप में एक बेहतर मनुष्य हमारे बीच से चले गए. ये सिर्फ एक एक अच्छे व्यंग्यकार ही नहीं थे वरन बेहतर मनुष्य भी थे. पिछले साल जब मैं पाँच हजार रुपये राशि वाले एक सम्मान के लिए जबलपुर गया था, तो कार्यक्रम के समय से लगातार मेरे साथ रहे. रात को एक जगह ले जाकर मुझे डिनर भी कराया. एक घटना बताने में मुझे कोई संकोच नहीं कि जिस सम्मान के लिए मैं गया, उसके पहले एक ने मुझसे दो-तीन पुस्तकें बुलवाई कि पढ़ना चाहता हूँ. मैंने भेज दी. फिर किसी का फोन आया कि आपको हम एक सम्मान देंगे. लेकिन आपको ₹200 शुल्क देना होगा. मैंने साफ -साफ इनकार कर दिया कि मैं कोई शुल्क नहीं दूंगा. तो पांडेय जी का फोन आया. उन्होंने कहा कि आपको कोई शुल्क नहीं देना है. आयोजकों ने ऐसा नियम ही बना रखा है कि क्या करें. लेकिन आपको आना है. आपका शुल्क मैंने पटा दिया है. आप आ जाएं इसी बहाने आपके साथ कुछ घंटे बिताने का अवसर मिलेगा. उनके स्नेहभरे आग्रह के कारण मैं जबलपुर गया और लंबे समय तक पांडेय जी के साथ समय बिताया. जब वे अट्टहास पत्रिका का अतिथि संपादन कर रहे थे, तब भी उनसे दो बार बात हुई. और उनके सम्पादन में अट्टहास का सबसे खूबसूरत विशेषांक निकला. उसका कलेवर अभूतपूर्व था. उनका जाना व्यंग्य साहित्य की बड़ी क्षति है. उनको शत-शत नमन!
श्री गिरीश पंकज
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☆ जयप्रकाश पांडेय जी हमेशा जेहन में बने रहेंगे☆ श्री सुदर्शन कुमार सोनी☆
जयप्रकाश जी का अचानक चले जाना अंत्यंद दुखद है। उनके साथ का एक प्रसंग याद आ रहा है। वो व मैं मध्यप्रदेश के उमरिया जिले में पदस्थ थे। बात होगी 2011-12 की मुझे तब पता नही था कि वो व्यंग्य भी लिखते हैं। मैं वहां मुख्य कार्यपालन अधिकारी, जिला पंचायत के तौर पर पदस्थ था और वे बैंक में। सेन्टल बैंक आफ इंडिया उमरिया का लीड बैंक था अतः वे आरसेटी रूरल सेल्फ एम्पलायमेंट टेनिंग इस्टटीटयूट का भी कुछ कार्य देखा करते थे। जंहा मैंने कई बैचेस में युवक युवतियों की रोजगारमूलक प्रशिक्षण कार्यक्रम करवाए थे। वहां पर मेरे बंगले में एक नाई गंगू मालिश के लिए आया करता था। वह बहुत बातूनी था लेकिन बडी़ अच्छी अच्छी बातें किया करता था। मैंने उस पर गंगू के नाम से एक कहानी भी लिखी थी। उसका किरदार मुझे बडा़ रोचक लगा तो मैंने अपने व्यंग्य का उसे किरदार बना लिया पुराने कई दर्जन व्यंग्यों में उसका नाम आता है। गंगू जयप्रकाश जी के भी सम्पर्क में था यह मुझे ज्ञात नही था। वहां से आने के बाद संभवतया मुझे पता चला कि उन्होने भी गंगू को अपनी रचनाओं में एक किरदार के रूप में प्रयोग करना शुरू कर दिया है। मैं यह जान बडे़ पशोपेश में पड़ गया। मैं उनसे कैसे कह सकता था कि आप यह प्रयोग करना बंद कर दो या वो मुझसे कहते कि आप यह प्रयोग बंद कर दो। काफी बाद में मेरे एक मित्र ने मेरे कुछ व्यंग्य पढ़ते हुए कहा कि आप यह किरदार बदल कर अच्छा सा नाम रखों। मुझे उसकी बात जांच गई और अब गंगू मेरी रचनाओं में गंगाधर है। एक बार मैं उनकी वैगन आर में जबलपुर से उमरिया व्हाया सड़क मार्ग आया भी था। जयप्रकाश जी को बहुत बहुत श्रद्वासुमन वे हमेशा जेहन में बने रहेंगे। जंहा तक मुझे याद है वे हमारी संस्था भोजपाल साहित्य संस्थान के आजीवन सदस्य भी हैं।
श्री सुदर्शन कुमार सोनी
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☆ मन बहुत व्यथित हुआ☆ श्री सुनील जैन राही ☆
यात्रा के
अधबीच में जब यह समाचार मिला कि आज जय प्रकाश जी का देवलोक गमन हो गया, मैं मौन रह गया। आत्मीयता से सराबोर व्यक्ति/घनघनाती आवाज/फोन उठाते ही ऐसा प्रतीत होता दिन सफल हो गया। कई बार उनकी रचनाओं पर अपनी प्रतिकृया देने हेतु मैंने कई बार उन्हें फोन किया। कभी निराशा मुझे हाथ नहीं लगी। जब उनकी रचना “अस्थि विसर्जन का लफड़ा” पढ़ी तो मुझे याद है लगभग सवा घंटे बात हुई। ठहाकों से शुरू और ठाकों पर समाप्त ऐसी बातचीत किसी साहित्यिक मित्र से शायद ही कभी किसी से हुई हो। आलोचना और प्रशंसा के मामले में कबीर थे। 40, 000/- का चेक/डांस इंडिया डांस ने आँखें सजल की थीं और अस्थि विसर्जन पर खाकी पर परिश्रमिक शब्द गूंज उठे।
मन बहुत व्यथित हुआ।
व्यंग्य का उद्दंड विद्यार्थी
श्री सुनील जैन राही
नई दिल्ली / 28/12/2024
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☆ व्यंग्य लेखन में परसाई की परंपरा को आगे बढ़ाया ☆ श्री राजशेखर चौबे ☆
पूरे देश में शायद एक भी ऐसा व्यंग्यकार नहीं होगा जिससे जयप्रकाश पांडे जी की बात नहीं हुई हो। वे लगभग सभी से बात करते थे। आपके अच्छे व्यंग्य पर वे जरूर दाद देते थे, मैसेज करते थे जब उन्हें लगता तो फोन भी जरूर करते थे। मुझे भी उनका सानिध्य मिला। मेरी उनसे पहली मुलाकात 2016 में जबलपुर में अट्टहास के कार्यक्रम में हुई थी। इसके बाद उनसे तीन-चार बार मुलाकात हुई और सभी मुलाकातें यादगार बन गई। व्यंग्य के एक कार्यक्रम में वे रायपुर भी आए थे। जून 2024 में जबलपुर जाना हुआ पर उनसे मुलाकात नहीं हो सकी थी। फोन पर जरूर बात हुई थी। तभी उन्होंने अपनी तबियत के बारे में बताया था। उस समय भी वे काफी पॉजिटिव थे और ऐसा नहीं लग रहा था कि वे इतनी जल्दी हम सब को छोड़कर चले जाएंगे। वे जबलइपुर के थे और उनकी आवाज में जबलपुरिया टोन था। उनकी आवाज में एक अलग तरह की मिठास थी। लगभग डेढ़ महीने पहले फोन आया कि उनके मित्र मेरे छत्तीसगढ़ी व्यंग्य को अपनी पुस्तक में लेना चाह रहे हैं। उस समय भी लंबी बात हुई थी। उन्होंने व्यंग्य लेखन में परसाई की परंपरा को आगे बढ़ाया। उनके कई व्यंग्य और व्यंग्य संग्रह डांस इंडिया डांस को हमेशा याद किया जाएगा। उनके व्यंग्य “अस्थि विसर्जन का लफड़ा ” काफी चर्चित हुआ था जिसे व्यंग्य यात्रा पत्रिका ने पुरस्कृत किया था। जयप्रकाश जी हम सब को छोड़कर चले गए हैं परंतु वे हमेशा याद किए जाएंगे। उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि। भगवान उनकी आत्मा को शांति प्रदान करे और परिवार वालों, मित्रों व शुभचिंतकों को यह दुख सहन करने की शक्ति प्रदान करे।
राजशेखर चौबे
रायपुर
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☆ प्रिय जय प्रकाश तुम बहुत याद आओगे ☆ श्री जयंत भारद्वाज ☆
साहित्य जगत की अपूरणीय क्षति तो है ही साथ ही हमारा एक जिंदादिल,हंसमुख,मिलनसार दोस्त चिरनिंद्रा में चला गया।
भाई जयप्रकाश के साथ जबलपुर में तुलाराम चौक शाखा में पदस्थी के दौरान अविस्मरणीय यादें हैं।
प्रसिद्ध व्यंग्यकार स्वर्गीय हरिशंकर परसाई जी के व्यंग्य साहित्य पर आधारित मेरे द्वारा बनाए गए व्यंग्य चित्रों की तीन दिवसीय प्रथम प्रदर्शनी दुर्गावती संग्रहालय में उनके ही संयोजन में लगाई गई ।
प्रिय जय प्रकाश तुम बहुत याद आओगे हम तुम्हे कभी भूल नहीं पाएंगे।
विनम्र श्रद्धांजलि 🙏🏽
श्री जयंत भारद्वाज
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☆ व्यंग्य लेखन में परसाई की परंपरा को आगे बढ़ाया ☆ डॉ ए के तिवारी ☆
चाहे कहीं रहे जय प्रकाश पांडे मगर मुझसे फोन /मोबाइल पर बात कर लेते थे. अब कौन मुझे मोबाइल फ़ोन पर कॉल करेगा–?? व्यक्तिगत विषय हों या पारिवारिक साहित्य हों या बैंक का, श्री सुरेश तिवारी जी हों या डॉ अशोक कुमार शुक्ल सब पर खूब चर्चा करता था J P .अब याद कर रहे बस. मेरे से कई बार कहा कि अपना व्यंग्य संकलन प्रकाशित कराओ . लघुकथा संग्रह भी कब छपेगा.अपनी स्वास्थ्य पर भी अनेक बार बताया तो मैंने कहा था पुणे और मुम्बई जाओ फॅमिली मेंबर्स के साथ. लेकिन विधाता क्या करेगा मालूम ना था l ओम शान्ति शान्ति I 🙏
डॉ ए के तिवारी
पोद्दार कॉलोनी सागर
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☆ जयप्रकाश जो कभी हारा ही नहीं ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆
जिस व्यक्ति से कभी आमने सामने मिला नहीं,लेकिन मिलने की आस अंतिम समय तक कायम रही, आत्मीय इतने कि आज से सात वर्ष पूर्व, जब मैं उपचार हेतु अस्पताल में भर्ती था, तो फेसबुक के साधारण परिचय के बावजूद, इनके एकमात्र फोन ने मुझे चौंका दिया । बस तब से परिचय की यह कड़ी एक मजबूत गांठ बन चुकी थी, लेकिन किसे पता था, प्रदीप और जयप्रकाश के नसीब में एक होना लिखा ही नहीं था । जयप्रकाश जो कभी हारा ही नहीं, आज भी उसकी याद का दीपक हमारे दिलों में प्रदीप्त है,और सदा रहेगा । सामाजिक और साहित्यिक गतिविधियों में सदा व्यस्त रहने के कारण कुछ समय से स्वास्थ्य के बारे में चिंतित थे, एक दो बार बात हुई, लेकिन हंसकर टाल गए और फिर हंसते हंसते ही अचानक हम सबको छोड़कर चले भी गए । जबलपुर से मेरा परिचय अब सिर्फ परसाई और जयप्रकाश तक का ही रह गया है, अफ़सोस दोनों मुझसे दूर चले गए ।। ॐ शान्ति..!!
श्री प्रदीप शर्मा
इंदौर
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☆ अंत समय तक रचनाधर्मिता में लगे रहे ☆ श्री मुकेश गर्ग असीमित ☆
अत्यंत दुखद समाचार। भगवान उनकी आत्मा को अपने श्रीचरणों में स्थान दें । 🙏अंत समय तक रचनाधर्मिता में लगे रहे हैं ।अट्टहास पत्रिका के दिसंबर अंक के लिए उनके द्वारा आतिथ्य संपादन करना था। मुझ से भी एक रचना माँगी गई तो जो मैंने उन्हें सहर्ष आभार के साथ प्रदान की थी ,कभी मिला तो नहीं उनसे लेकिन चंद महीनों में ही एक मौन सा संवाद और उनके प्रति कृतज्ञता का भाव रहता था।
श्री मुकेश गर्ग असीमित
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☆ समर्पित व्यंग्यकार पाण्डेय जी ☆ श्री सुरेश मिश्रा “विचित्र” व्यंग्यकार ☆
जयप्रकाश पांडे जी भले ही हमारे बीच में नहीं है, लेकिन उन्होंने शहर के व्यंग्यकारो को एकत्र करते हुए व्यंगम संस्था का अच्छा खासा संचालन किया। और प्रत्येक माह होने वाली व्यंग्य गोष्ठी को अपने ही निवास पर आयोजित करते रहे, यह एक बड़ी उपलब्धि रही है।जिसने व्यंग्य लेखन में शहर को आगे रखा है। आपका व्यंग्य लेखन और व्यंग्य की बारीकियों को, विसंगतियों को,उजागर कर अपने लेखन मे पैनापन बनायें रखा। व्यंग्य लेखन के लिए उनके द्वारा किया गया यह समर्पित भाव एवं कार्य हमेशा याद रखा जाएगा।
सादर श्रृद्धासुमन अर्पित है 🙏🌹🙏
श्री सुरेश मिश्रा “विचित्र” व्यंग्यकार
जबलपुर ( मध्य प्रदेश)
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☆ विनम्र श्रद्धांजलि ☆ श्री ओ.पी.सैनी ☆
मेरी पहली मुलाकात श्री पांडेय जी से 6 वर्ष पूर्व व्यंगम की गोष्ठी के अवसर पर हुई थी । पहली ही मुलाकात मैं वे सबसे अलग अनुभूत हुए । नया सदस्य होने के बाद भी उन्होंने मुझे आत्मीय सम्मान दिया । जब-तक उनसे मुलाकात होती रही वे बहुत ही मिलनसार और सहयोग देने मैं तद्पर रहे । किसी कारण वश 2 माह से मेरी पेंशन रुकी हुई थी जब उनको इस बारे मैं पता चला तो उन्होंने भोपाल स्थित पेंशन विभाग मैं बात की जिससे 1-2 दिन मैं ही मेरी पेंशन मुझे मिल गयी । इतने सहयोगी थे पांडेय जी । उनकी आत्मा के श्री चरणों में मेरी विनम्र श्रद्धांजलि ।
श्री ओ.पी.सैनी
जबलपुर (म.प्र )
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☆ संस्मरण (35-40 वर्ष) पूर्व का… ☆ श्री के. पी. पाण्डेय ‘वृहद‘ ☆
श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी से मेरी पहली मुलाक़ात मेरे निवास एम -193 शिव नगर के सामने हाउसिंग बोर्ड का एम आई जी 20 ख़रीदा ओर उसे किराए से देना चाहा था दो किरायेदार रखने थे पाण्डेयजी ने किसी बैंक कर्मचारी को बेच दिया था। उन दिनों में लिखता तो था किन्तु अधिकतर कविताएं लिखता था पर मुझे तब नहीं मालूम था कि ये व्यंग विधा के अच्छे लेखक है। व्यक्तिगत मुलाक़ात के अतिरिक्त मैं पाण्डेयजी को इस से पूर्व इसलिए भी जानता था कि मेरे मित्र प्रकाश चंद दुबे जो मेरे सहकर्मी ओर परसाई जी के भांजे है और अक्सर उनके निवास पर मेरा व जय प्रकाशजी का आना होता था।
कालांतर में पाण्डेयजी बैंक की नौकरी में इधर उधर रहे वा मैं भी ट्रांसफर होता रहा। सेवा निवृत्ती के काफ़ी दिनों बाद जय प्रकाश जी से मुलाक़ात एक साहित्यिक समारोह में हुई तब मैं उनके व्यंग्य विधा को गहराई से जान सका था इधर करीब 5-6 वर्षों से व्यंग पढता तो उन्हें बधाई अवश्य देता।
आत्मीयता का दायरा उस समय से ओर अधिक बढ़ा जब से मुझे उनके निवास पर व्यंगम की मासिक गोष्ठी में शरीक होने का मौका मिला श्री पाण्डेयजी के माध्यम से ई -अभिव्यक्ति पत्रिका एवम अट्टहास मे मेरी व्यंग रचना (यदि परसाईजी ना होते तो क्या होता?) प्रकाशित हुई। पाण्डेयजी के इस आत्मीय सहयोग एवम परमार्थ का में ऋणी हूँ उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि साथ ही ईश्वर से प्रार्थना है कि परिवारजनों को असमय आए इस असीम कष्ट को सहने की शक्ति प्रदान करें पुनः विनम्र श्रद्धांजलि
श्री के. पी. पाण्डेय ‘वृहद‘
मो. 9424746534
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≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर / सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈
☆ पाथेय साहित्य कला अकादमी का आयोजन – डॉ. तनूजा चौधरी को मिला डॉ. गायत्री कथा सम्मान ☆ साभार – डॉ भावना शुक्ल ☆
पाथेय साहित्य कला अकादमी का आयोजन – समाजोपयोगी होता है मूल्य परक सृजन…
जबलपुर। डॉ. तनूजा चौधरी का समग्र लेखन सामाजिक संचेतना का प्रतीक है। उनकी कहानियॉ नई पीढ़ी के भटकाव समाज और जीवन की बिडम्वना, स्त्री अस्मिता के प्रति चिंता प्रकट करती हैं। कथा लेखिका स्व. डॉ. गायत्री तिवारी की रचनाओं में भी ऐसा ही प्रेरक प्रभावी चिंतन है। डॉ. तिवारी ने समाज के अंतिम वर्ग की रक्षा के लिए सृजन किया।ऐसा सृजन जिससे सामाजिक जागृति और मूल्यों की रक्षा हो,वह समाज और राष्ट्र के लिए उपयोगी होता है।
तदाशय के उद्गार पाथेय साहित्य कला अकादमी द्वारा आयोजित गायत्री कथा सम्मान समारोह में अतिथियों ने कला वीथिका व्यक्त किए। वर्ष 2024 के गायत्री कथा सम्मान से डॉ. तनूजा चौधरी को नगद राशि अलंकरण, मानपत्र, शाल से अतिथियों सहित डॉ. भावना शुक्ल, प्रेमनारायण शुक्ल, नोएडा, डॉ. कामना कौस्तुभ, जगदीश कन्थारिया, किशनगढ़, डॉ. हर्ष तिवारी, मोहिनी तिवारी, आराध्या तिवारी ‘प्रियम’ ने सम्मानित किया।
इस अवसर पर विविध क्षेत्रों में क्रियाशील श्री राजेन्द्र मिश्रा, श्री नीलेश रावल, डॉ. नीना उपाध्याय, इंजी दुर्गेश व्यौहार दर्शन, श्री समर सिंह, डॉ. मंजू गोरे, दीपचंद विनोदिया, मेहेर प्रकाश उपाध्याय, रामकिशोर सोनी को उनकी बहुआयामी सेवाओं एवं उपलब्धियों के लिए गायत्री विविधा सम्मान से अलंकृत किया गया। साथ ही ब्राह्मण स्वयंवर संस्कार महासभा एवं सुप्रभातम संस्था के पदाधिकारियों को सामाजिक जागृति के लिए सम्मानित किया।
डॉ राजेश पाठक प्रवीण ने सम्मानितजनों के व्यक्तित्व-कृतित्व पर प्रकाश डाला।
समारोह की मुख्य अतिथि डॉ. स्वाति सदानंद गोडवोले पूर्व महापौर रहीं। अध्यक्षता महाकवि आचार्य भगवत दुबे ने की। सारस्वत अतिथि डॉ हरिशंकर दुबे, डॉ. स्मृति शुक्ला प्राचार्य मानकुंवर महाविद्यालय थीं।
अध्यक्षता कर रहे महाकवि आचार्य भगवत दुबे ने कहा कि सम्मान देना संस्कारधानी की गौरवशाली परम्परा है। इससे सकारात्मक कार्यों की प्रेरणा मिलती है।
प्रारंभ में अतिथियों का स्वागत मथुरा जैन, यशोवर्धन पाठक, सुभाष शलभ, संतोष नेमा, विजय अनुज, विनोद नयन, गणेश प्यासा, अर्चना मलैया, डॉ सलमा जमाल, छाया त्रिवेदी, सलपनाथ यादव, साधना उपाध्याय, निर्मिला तिवारी, डॉ.मृदुला सिंह, डॉ छाया सिंह, डॉ. संजय तिवारी, गणेश प्यास, डॉ. सलपनाथ यादव, ने किया। संचालन राजेश पाठक प्रवीण एवं आभार डॉ. भावना शुक्ल ने व्यक्त किया।
साभार – डॉ. भावना शुक्ल
≈ श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈
☆ १६ डिसेंबर… विजय दिवस ! ☆ सौ कल्याणी केळकर बापट ☆
काही सण, समारंभ, उत्सव, सोहळे असे असतात की जे आपण कधीही विसरू शकत नाही. त्या दिवसांच आपल्या जीवनात अनन्यसाधारण महत्त्व असतं. त्या दिवसांमध्ये आपल्या स्वतःच्या वैयक्तिक घटनांचा समावेश असतो आणि ज्या आपल्या मातृभूमीवर आपण मनापासून प्रेम करतो तिच्यासंदर्भातील महत्वाच्या घटनांच्या दिवसाचा पण त्यात समावेश असतो.
आपल्या भारताच्या इतिहासात काही दिवस असे आहेत की जे प्रत्येक भारतीयाने समजून घेतले पाहिजे किंवा त्या बद्दल माहिती ठेवली पाहिजे. कारण त्या दिवसांचा आत्ताच्या पिढीवर तसेच आजच्या वर्तमानावर प्रभाव जाणवून येतो. त्यातलाच एक हा “विजय दिवस’. 16 डिसेंबर ! भारत आणि पाकीस्तान देशांमध्ये ज्या ज्या लढाया झाल्या त्या मध्ये एक महत्वपूर्ण लढाई म्हणजे १९७१ ची. त्या युद्धा नंतरच भारताने पाकीस्तानला हरवून बांगलादेश या नव्या देशाला जन्माला घातलं. सर्वात कमी झालेली मनुष्य हानी हे १९७१ च्या युद्धाचं एक वैशिष्ट्यं. अर्थात त्या मागे असलेले सैन्याचे अप्रतिम नियोजन व तो निर्णय घेण्याची तत्कालीन पंतप्रधान इंदिरा गांधी यांची हिम्मत.
इंदिरा गांधी किवा पंडित नेहरू, महात्मा गांधी यांच्याकडे बहुतांश लोक खूप एका बाजूने बघतात असे मला वाटते.
कोणताही मनुष्य असो तो त्याच्या आयुष्यात काही निर्णय बरोबर घेतो तर काही चूक. पण खास गोष्ट अशी चूक निर्णय घेतांना ते चूक निर्णय आहे हे तेव्हा कोणाच्याच लक्षात येत नाही. तसचं या महान लोकांच्या बाबतीत झालं.
पण राजकीय विचार जरा बाजूला ठेवले आणि १९७१ च्या युद्धाचा नीट अभ्यास केला तर या मागे इंदिरा गांधी याची निर्णय क्षमता आणि नियोजन करण्याची पद्धत या बद्दल कौतुक नक्की वाटेल. या युद्धाच्या यशामागे तत्कालीन सैन्यप्रमुख जनरल सँम मानेकशॉ यांचा प्रंचड मोठा हात व इंदिरा गांधीची साथ होती. तेव्हाच्या पश्चिम पाकीस्तानने पूर्व पाकीस्तानवर केलेले प्रचंड अत्याचार व त्यातून हजारो बंगाली लोकांचे भारतात स्थलांतर यामुळे भारत पण या युद्धात ओढल्या गेला.
पण घाई घाई मध्ये चुकीचे निर्णय न घेता, थोडा काळ थांबून व शांत नियोजन करून अवघ्या १६ दिवसात पाकीस्तानला आपण आत्मसमर्पण करायला भाग पाडलं. दुसऱ्या जागतिक महायुद्धानंतर हे सर्वात मोठे आत्मसमर्पण ठरले. आज सुद्धा तो फोटो एक मोठ्या इतिहासाची साक्ष व ख-या अर्थाने आयकाँनिक समजल्या जातो. ज्या मध्ये भारताकडून ले. ज. जगजीत सिंग अरोडा व पाकीस्तान कडून ज. नियाझी यांनी आत्मसमर्पणाच्या करारावर स्वाक्ष-या केल्या व तो दिवस होतां १६ डिसेंबर.
म्हणून हा दिवस आपण” विजय दिवस” म्हणून साजरा करतो. आजच्या पिढीला त्या दिवसाचे महत्व जेवढं कळायला हवं तेवढं कदाचित कळतं नसेलही. पण अभ्यासाने कळलं की त्या दिवसानंतर खूप गोष्टी बदलल्या हे पण खरं. जसं एक नवा कोरा देश जन्माला आला, पाकीस्तान ची ताकद कमी झाली. भारत सुध्दा आंतरराष्ट्रीय राजकारणात सक्रीय भाग घेऊन निर्णय तडीस नेऊ शकतो हे संपूर्ण जगाने पाहिले. तेव्हा भारत एवढा श्रीमंत नसतांनाही स्थलांतरीत लोकांना काही काळ ठेऊन घेऊन, स्विकारुन दयाळू मानवतेचं दर्शन संपूर्ण जगासमोर चित्रीत झालं. युद्धाच्या आधी रशिया सोबत मैत्री करार करून आपला आंतरराष्ट्रीय दबदबा भारताने वाढवला. १९७१ च्या युद्धात जे युद्ध कैदी होते त्यांना काही काळानंतर सुखरूप पाकीस्तानात सोडून देण्यात आले. त्यात सुध्दा भारताचा मानवतावादी दृष्टीकोन संपूर्ण जगाला दिसला. त्या युध्याच्या विजयानंतर मा. इंदिरा गांधीच्या प्रसिद्धीला मात्र सीमाच नव्हती. एक स्त्री पंतप्रधान असा अचंबित करणारा निर्णय घेऊ शकते हेच मुळात भारतीय पुरुषप्रधान संस्कृतीला पचणारी गोष्ट नव्हती. पण इंदिरा गांधीनी हे करून दाखवलं.
आंतरराष्ट्रीय राजकारणात भारताला नेहमी पिछाडीचा किंवा एक गरीब देश असंच हिणवल्या जायचं. ह्या घटनेनंतर मात्र हे चित्र हळू हळू बदललं व त्या नंतर झालेल्या अणुस्फोट चाचणीने तर संपूर्ण जगाचे डोळे उघडल्या गेले.
मी जसे आधी बोलले की एक व्यक्ती आपल्या आयुष्यात काही चुकीचे निर्णय घेते तर काही बरोबर, पण आपण एक समंजस नागरिक म्हणून नेहमी चुकीच्या निर्णयाबद्दल बोलण्या पेक्षा कधी आपलं मन मोठ करून चांगल्या गोष्टी केल्याबद्दल त्यांचे आभार मानले पाहिजेत. म्हणून इंदिरा गांधी व तत्कालीन सैन्याला “विजय दिवस” हा अभूतपूर्ण दिवस आमच्या सारख्या सामान्य जनतेला दाखवल्यामुळे मनापासून सलाम आणि धन्यवाद.
(त्याने व्हील चेअरच्या चारी बाजुंनी टीनचे दरवाजे बनवून घेतले, त्यामुळे ती कितीही हलली, डुलली तरी संतुलन बिघडून ती खाली पडणार नाही. कोणत्याही तर्हेची दुर्घटना घडू नये, म्हणून सुरक्षिततेसाठी तिथे कुलूपही लावले ) — इथून पुढे —
‘तू माझ्यासाठी एक पिंजराच बनवलास हेनरी’ कैमी म्हणाली. हे ऐकल्यानंतर तो हसला. तेव्हापासून उन्हाळातल्या प्रत्येक संध्याकाळी तो पिंजराच तिचा साथीदार असतो.
आज कुलूप लावल्यानंतर कैमीच्या खांद्यावर हात ठेवत, हेनरी म्हणाला, ‘केवळ आजचाच दियास फक्त… उद्या या वेळेला तुझी सर्जरी होईल. मग रिकव्हरीचे काही दिवस. मग तू स्वतंत्र होशील. नंतर, ना पिंजरा राहील, न चाकाची खुर्ची. ’
कैमिलाच्या डोळ्यातही चमक आली. कोविदमुळे, इतर आजार आणि गैरजरूरी सर्जरी इस्पितळातले लोक पुढे पुढेच ढकलत होते. करोनाची पहिली लाट, दुसरी लाट, तिसरी लाट, तारखा पुढे पुढेच जात चालल्या. शेवटी आता कुठे सर्जरीचा दिवस उगवला. इस्पितळात जाण्यासाठी बॅग तयार केली. हेनरी अतिशत खुश होता. कैमिलाला बाहेर सोडून कुलूपाची चावी खिशात ठेवून फिरत होता. कधी आत यायचा. कधी बाहेर जायचा.
कैमिलाला बाहेर बसून खूप वेळ झाला. नवी पाझलवाली गेम खेळता खेळता ती थकून गेली. तिने हाक मारली, ‘हेनरी, मला तहान लागलीय. ‘
सामान्यत: हेनरी एकदा हाक मारली की लगेच ऐकायचा. आज जरा वेळ लागला. कैमिला वाटलं, कदाचित बाथरूममध्ये गेला असेल. सध्या त्याला जरा जास्तच वेळ लागतो. आजा-काल त्याला ऐकायलाही कमी येऊ लागलय. हियरिंग एड्सही बदलायला हवीय. कसं बोलवायचं त्याला? कितिदा म्हंटलं त्याला, एक मोबाईल तरी घेऊयात. पण त्याचं म्हणणंही खरं होतं. तो म्हायचा, ‘उगाच खर्च कशाला वाढवायचा?’
आपल्या जवळ असलेली काठी ठोकून ठोकून कैमिने आवाज केला. जवळ असलेलं वर्तमानपत्र खुर्चीवर वाजवण्याचा प्रयत्न केला. हॅलो, हाय सारखे तर्हे-तर्हेचे आवाज तोडाने काढले, पण हेनरी आला नाही.
समोरच्या रस्त्यावरून एक दंपत्य फिरत फिरत चाललं होतं. कैमिने त्यांना जवळ यायची खूण केली. प्रथम ते घाबरले, पण नंतर समस्या समजताच ते आनंदाने दरवाजाजवळ उभे राहिले. बेल वाजवली. कडी खटखटवली. कैमि उत्सुक नजरेने हेनरीची प्रतीक्षा करत राहिली. पण, काहीच प्रतिसाद मिळाला नाही. मग तिने मदत करणार्या दांपत्याला सांगितले, ‘प्लीज, आपण मागच्या दरवाज्याने आत जा. आत कम्प्यूटरजवळ चावी ठेवलेली असेल. ती घेऊन या. ’
ते आत जाऊ शकले नाहीत. दरवाजा आतून बंद होता. ते दार खटखटू लागले, पण दार उघडलं नाही. येता-जाता आणखी काही लोक जमा झाले. अर्ध्या आसाच्या अथक प्रयत्नांनंतर कैमिलाला विचारून त्यांनी पोलिसांना कळवलं॰
कैमि हैराण झाली. तिला कळतच नव्हतं की अखेर हेनरीला झालय तरी काय? तिला वाटलं, रात्री नीट झोप लागली नसेल. त्यामुळे कदाचित डुलकी लागली असेल. अनेकदा त्याला रात्री नीट झोप लागत नसे. पण आता तर खूप वेळ झाला. इतका गाढ झोपला असेल, तर पोलीस तरी त्याला कसे उठवणार?
पोलीस आले. थोड्याशा प्रयत्नांनंतर त्यांनी कुलुप तोडले. समोर खुर्चीवर हेनरी बसला होता.
‘मिस्टर हेनरी.. ’ काहीच उत्तर मिळालं नाही.
ऑफिसरने हेनरीच्या जवळ जाऊन त्याच्या खांद्यावर हात ठेवला, तशी तो खाली पडला. जसा काही कुठल्या तरी स्पर्शाची वाट बघतोय. काही क्षण त्याच्या श्वासोच्छवासाची चाहूल घेतल्यावर ऑफिसरने मान हलवली आणि अॅम्ब्युलंस बोलावली. या गोष्टी इतक्या झटकन झाल्या, की समोरचं दांपत्य आवाक झालं. सगळ्यांची हलणारी डोकी काही सांगत होती. बाहेर जाऊन कैमिलाला कसं सांगायचं?
पोलिसांनी आपलं कर्तव्य पार पाडलं. ‘मिसेस कैमिला आपल्याला काही सांगायचं आहे.
कैमिलाकडून काहीच प्रतिसाद मिळाला नाही. ती समोर रस्त्याकडे बघत होती.
‘सॉरी, आपले पती हेनरी… ’
तरीही ती काही बोलली नाही. लोकांना वाटलं, ती आक्रोश करेल. पण, तिथे केवळ शांतता होती. कदाचित एका विशिष्ट वयानंतर मन आशा गोष्टींसाठी तयार होत असेल. या धावपळीनंतरही आणि अॅम्ब्युलन्सची पींपीं ऐकूनही ती गप्पच होती, याचे सगळ्यांनाच आश्चर्य वाटले. तिला तिच्या पिंजर्यातून बाहेर काढण्यासाठी पोलीसांनी तिच्या खांद्यावर हात ठेवला, तेव्हा तीही त्याच्यासारखीच लुढकली. दैवयोगाने तिचा श्वास मात्र चालू होता. तिला ताबडतोब हॉस्पिटलमधे नेण्यात आलं. घरातून दोन अॅम्ब्युलन्स निघाल्या. एकात हेनरीचे शव होते. दुसरी कैमिलाला इमरजन्सी विभागात पोचवत होती.
थोड्या वेळातच कैमिला धोक्याच्या बाहेर आली. अजूनही ती बेशुद्धच होती. सात दिवस ती शुद्धीवर आलीच नाही. तेव्हा सगळ्या कायद्याचं, नियमांचं पालन करत हेनरीचे अंत्यसंस्कार केले गेले. त्यांच्या शेजार्यांना सांगितलं गेलं. फोनच्या डायरीतून नंबर घेऊन, मिळालेल्या एक-दोन नातेवाईकांनाही कळवलं गेलं. काही आले. काहींनी शोकसंदेश पाठवून श्रद्धांजली वाहीली.
पूर्णपणे शुद्धीवर येऊन सर्जरीयोग्य बनण्यासाठी कैमिलाला एक महिना लागला. त्यानंतर जिथे तिचं ऑपरेशन होणार होतं, त्या हॉस्पिटल मधे तिला पोचवलं गेलं. ऑपरेशन कुठे आहे, हेनरी का नाही आला, याबद्दल तिने काहीच विचारलं नाही. कदाचित तिला कळलं असावं.
डॉक्टरांच्या दृष्टीने यावेळी सर्जरी करणं महत्वाचं होतं. त्याप्रमाणे सर्जरी झाली. पाच दिवसांनंतर जेव्हा तिला घरी पाठवायचं ठरलं, जेव्हा तिला हेनरीबद्दल सांगण्यात आलं. तेव्हा, ती तटस्थपणे म्हणाली, ‘मला माहीत आहे. ’ आणि पुहा गप्प झाली.
हॉस्पिटलमधून एक नर्स तिच्याबरोबर आली होती. कैमि काही सेकंदांसाठी उभी राहयाची आणि पुन्हा खाली बसायची. काही दिवसांच्या, नर्सच्या आणि फिजिओथेरपीस्टच्या अनवरत प्रयत्नांनंतर, तिच्या पायांनी तिच्या शरिराचा भार सहन करणं मान्य केलं.
हळू हळू आपल्या पायांनी घराच्या प्रत्येक खोलीत, ती चांगल्या तर्हेने फिरू लागली. एके दिवशी एका कोपर्यात उभ्या केलेल्या व्हील चेअरकडे तिचं लक्ष गेलं, तिकडे लक्ष जाताच, तिला व्हील चेअरच्या मागे हेनरी उभा असलेला दिसला. ती त्यावर बसली. तिला वाटलं, त्यामुळे ती हेनरीच्या हातांचा स्पर्श अनुभवू शकेल.
अनेकदा, जेव्हा उशीर व्हायचा, तेव्हा ती रागावायची. तो सॉरी म्हणत घाई करू लागे, तर त्यात आणखीनच उशीर व्हायचा. तो सॉरी सॉरी म्हणत, मान हलवायचा आणि हसायचा. ती तीच व्हील चेअर होती. हेनरी तिला ढकलायचा आणि तिला मागे असलल्या त्याच्या उपस्थितीची जाणीव व्हायची. व्हील चेअरवर बसलेली ती कधी आपल्या पायांकडे बघायची, तर कधी हेनरीच्या हाताच्या स्पर्शाचा अनुभव घ्यायची.
एकदा तिचे लक्ष टेबलावर ठेवलेल्या ब्राऊन लिफाफ्याकडे गेलं. ते हेनरीचं पत्र होतं. पत्र कसलं, मृत्यूपत्रच होतं जसं काही. एक वाक्य मोठ्या मोठ्या अक्षरात पुन्हा पुन्हा लिहिलं होतं, ‘जर देणं शक्य असेल, तर माझे पाय माझ्या पत्नीला द्या. ’ एक एक अक्षर तिच्या डोळ्यांवर समुद्राच्या लाटांप्रमाणे थपडा मारत होतं.
‘हेनरी, तू जर मला विचारलं असतंस, विकल्प दिला असतास, तर मी व्हील चेअरचीच निवड केली असती. ’
ती कधी स्वत:च्या पायाकडे बघायची, कधी व्हील चेअरकडे, ज्या पिंजर्यात ती आत्तापर्यंत कैद होऊन राहिली होती. आज घराचा काना-कोपरा बघत होती. तिथे चालण्यासाठी इतके दिवस तिचे पाय बेचैन झाले होते. आता ती गतिमान झाली होती आणि हेनरी स्थिर. हेनरीचे पाय माझे होते, आता मी त्याचे पाय बनेन. तिने लगेचच हेनरीचा फोटो उचलून व्हील चेअरवर ठेवला आणि त्याच्या स्थिरतेला गती देऊ लागली. अनेक वर्षांचं कर्ज होतं. मरेपर्यंत चुकवलं, तरी उऋण नाही होऊ शकणार. आत्ता आत्तापर्यंत हेनरी तिची सेवा करत होता. आता कैमिलाला संधी मिळाली, तर तो गप्प झाला.
व्हील चेअरवर ठेवलेल्या फोटोतील हेनरीचा चेहरा बघणंही तिला असह्य झालं. जर खरोखरच हेनरी व्हील चेअरवर असता, तर कसं वाटलं असतं? कदाचित ते सत्य कैमिला किती वेदनादायी झालं असतं. हा विचार मनात येताच तिला वाटलं, इतकी वर्षे तिचा भार चाकं उचलत होती. पण हेनरीचं मन, रोज किती भार उचलत होतं, त्याला गणतीच नाही. कैमिलाजवळ चाकं होती. हेनरीजवळ तर ना पाय होते, ना चाकं. आपले पाय तर त्याने पहिल्या दिवसापासून कैमिला देऊन टाकले होते.
“ओ हेनरी!”
हाहाकारी मौनामधे तिचे ओठ अस्पष्टसे पुटपुटले. तिने त्वरेने हेनरीचा फोटो व्हील चेअरवरून उचलला.
कैमिच्या पायांना जशी चाकं लागली होती. इतके दिवस स्थिर असलेल्या पायांनी आता पुन्हा गती घेतली होती.
– समाप्त –
मूळ हिन्दी कथा – “पहिए“
हिन्दी लेखिका : डॉ. हंसा दीप, कॅनडा
संपर्क – Dr. Hansa Deep, 22 Farrell Avenue, North York, Toronto, ON – M2R1C8 – Canada
कधीकधी आपल्याला लाभलेलं मैत्र फारच अकल्पित असतं. माझ्या मैत्रीच्या वर्तुळात अशीच एक सहेली माझ्या हातात हात गुंफून गेली चाळीस वर्षे उभी आहे.
तिची माझी ओळख रत्नागिरी आकाशवाणीच्या केंद्रात झाली. तेव्हा मी खारेपाटणला वास्तव्याला होते. माझे पती श्रीनिवास तिथल्या शेठ म. ग. हायस्कूलमध्ये माध्यमिक शिक्षक होते. त्या शाळेचे मुख्याध्यापक श्री. शरद काळे हे सत्यकथा या गाजलेल्या मासिकाचे लेखक होते. त्यांचे अनेक कार्यक्रम रत्नागिरी आकाशवाणीवर होते. त्यांनी माझ्यातला होतकरू लेखक ओळखला होता. अशाच एका आकाशवाणी फेरीत त्यांनी माझं नाव तिथे सुचवलं.
“पंडितबाई, तुम्हाला आकाशवाणीवरून कार्यक्रमासाठी आमंत्रण येईल हं. कवितेचे विषय तेच देतील. “असा निरोप त्यांनी आणला आणि मी उत्कंठतेने त्या निमंत्रणाची वाट पाहू लागले.
खरंच एक दिवस तो लिफाफा आला. माझा आनंद गगनात मावेनासा झाला. कवितेचा विषय होता, ‘कुटुंबनियोजन’. तेव्हा तर मी नवखीच होते. दे दणादण सुचवल्या घरी सुखी राहण्यासाठी कविता ‘बनवल्या’. काव्यवाचनाची जोरदार प्रॕक्टीस वगैरे करत नवऱ्याला जेरीस आणलं. आणि अखेर तो दिवस आला.
रत्नागिरी आकाशवाणीच्या त्या इमारतीत पाऊल टाकलं. पहिल्यांदाच आकाशवाणीची इमारत बघत होते. गेटवर व्हिजिटर्स रजिस्टर भरणं वगेरे नवीनच होतं. आत गेले. कार्यक्रम विभागात माझं पत्र दाखवलं.
“वैशाली पंडित ना ? ये ये. मीच रेकाॕर्डिंग करणार आहे. घरकुल कार्यक्रम मीच घेते. “असं म्हणत एक प्रसन्न व्यक्तिमत्वाच्या स्त्रीने माझं स्वागत केलं.
‘…याच त्या ‘नीता गद्रे. ‘
प्रथमदर्शनीच मला त्या खूप आवडल्या. त्यांचा आवाज किंचित बसका तरीही आत्मविश्वास दाखवणारा होता. व्यक्तिमत्वात ठामपणा आणि आपलेपणा यांचं मजेदार रसायन होतं. कुरळ्या केसांची महिरप गोऱ्यापान चेह-यावर खुलत होती. वेषभूषेतली रंगसंगती त्यांची अभिरूची दाखवत होती.
माझ्या हातातलं स्क्रीप्ट घेऊन त्यांनी वाचलं.
“छान समजून घेतलायस विषय. मस्त झाल्यात कविता. सरकारी विषय तू सोपेपणाने कवितेत मांडलायस. “अशी दाद त्यांनी दिल्यावर मला जो काय आनंद झालाय तो झालाय.
त्या सफाईनं रेकाॕर्डींग रूमकडे निघाल्या. त्या चालण्यात डौल होता. त्यांच्या हालचाली फार सहज पण पाॕलिश्ड होत्या. मला रेकाॕर्डींग रूम, तिथलं टेबल, तिथला माईक सगळं नवीन होतं. आधी स्वतः त्या माझ्याबरोबर आत आल्या. कागद कसे धरायचे, कागदांचा उलटताना आवाज कसा होऊ द्यायचा नाही याचं मला ट्रेनिंग दिलं.
“आता वाचायचं बरं का बिनधास्त. काळजी करू नकोस. छानच होईल रेकाॕर्डींग. “असा धीर त्यांनी दिला.
जाड काचेच्या पलिकडून उभ्या राहून नीता गद्रेंनी मला सुरू कर अशी खूण केली.
एक दोन रिटेक झाले तरी न चिडता मला प्रोत्साहन देत त्यांनी रेकाॕर्डींग संपवलं.
… ती नीता गद्रेंशी माझी पहिली भेट.
नंतर मी आकाशवाणीच्या निमंत्रणाची वाट बघायला लागले ती फक्त नीता गद्रेंशी भेट व्हावी म्हणून.
नंतरच्या सगळ्या भेटीत नीताताईंमधलं साहित्यरसिकत्व मला खूप समजत गेलं. या बाई केवळ आकाशवाणीच्या औपचारिक अधिकारी नाहीत. स्वतःला साहित्याची उत्तम जाण आहे. श्रोत्यांना सकस कार्यक्रम ऐकवण्याचं भान आहे. ती आपली जबाबदारी आहे, तीही सरकारी चौकटीत राहून पूर्ण करायचं आव्हान आहे हे त्या जाणून होत्या. करियरवर मनापासून प्रेम करणा-या नीताताईंनी माझ्या मनात खास जागा निर्माण केली.
त्यांचा ‘तांनापिहि’ हा कथासंग्रह माझ्या वाचनात आला आणि मी त्यांची फॕनच झाले. विशेषतः त्यातली ‘ओझं’ही कथा तर मला बेहद्द आवडली होती. गृहिणीला मध्यवर्ती व्यक्तिरेखा करून लिहिलेली ही कथा मला स्पर्श करून गेली. मी लगेचच त्या पुस्तकावर अभिप्राय लिहिणारं पत्र त्यांना पाठवलं.
लगोलग त्याचं उत्तरही नीताताईंकडून आलं. त्यात त्यांनी, ‘तुला मी माझ्या आणखीही काही पुस्तकांची नावं देते तीही वाच. (भोग आपल्या कर्माची फळं )’ असं मिश्किलपणे लिहिलं होतं. ते मला जामच आवडलं होतं. नंतर खरोखरच ती फळं मी चाखली.
त्यांचं ‘एका श्वासाचं अंतर’ हे पुस्तक तर एका जीवघेण्या आजारावर मात केलेल्या जिद्दीची कहाणी आहे. ते पुस्तक मी माझ्या परिचयातील काही डाॕक्टर्सनाही वाचायला दिलं होतं. एका प्रसिद्ध रूग्णालयात पेशंटला किती हिडीसफिडीस केलं जातं, अक्षम्य अशी बेफिकीरी दाखवली जाते याचा पर्दाफाश त्यांनी निर्भीडपणे केला होता. नंतर त्या रूग्णालयाच्या व्यवस्थापनाने झाल्या प्रकाराबद्दल दिलगिरीही व्यक्त केली होती, आणि यापुढे असे प्रकार घडणार नाहीत याची जाहीर हमी दिली होती असं ही समजलं.
नीताताई रत्नागिरी केंद्रावर तेरा वर्षे होत्या. नंतर सांगली, कोल्हापूर आणि मुंबई अशा सेवा करत त्या निवृत्त झाल्या. मध्यंतरी आमची गाठभेट बरीच वर्ष नव्हती. पुन्हा एकदा मुंबई आकाशवाणीवर त्या असताना त्यांनी मला माझ्या एका कवितेसाठी खास संधी दिली. परत आम्ही जुन्या उमाळ्याने भेटलो.
आता त्या निवृत्त जीवनात स्वतःचे दिवस अनुभवत आहेत. नभोनाट्य, ब्लाॕग्ज, लेखन, वाचन, प्रवास यांत सुरूवातीची वर्षे आनंदात गेली. आता शारीरिक थकव्याने मर्यादा आल्यात. आमचा फोनसंपर्क वाढला आहे. निवृत्तपणाच्या इयत्तेत मी त्यांच्याहून आठदहा वर्ष मागेच असले तरी आम्ही अगं तुगं करू लागलो आहोत. एकमेकींची हालहवाल जाणून घेत आहोत. चॕनेलवरच्या मालिकांवर यथेच्छ टीका टीप्पणी करून खिदळतो आहोत, राजकारणातल्या सद्य स्थितीवर फुकटच्या चिंता वहातो आहोत, जीव कासावीस करून घेत आहोत. मतदान केल्याच्या काळ्या शाईच्या मोबदल्यात इतकं तरी करतोच आहोत.
… एक मैत्रकमळ असं पाकळी पाकळीने फुलत गेल्याचा आनंद दोघीही अनुभवतो आहोत !
एक अत्यंत यशस्वी, परंतु कामाच्या ताणाने वैतागलेला एक अधिकारी होता. एकदा सुट्टी घेऊन तो एका निवांत गावी गेला. एके दुपारी त्याला एक कोळी आपली बोट किनाऱ्याला लावताना दिसला. त्याने सकाळी जे काही मासे पकडले होते. ते व्यवस्थित एका टोपलीत ठेवलेले होते. कुतूहलानं तो अधिकारी त्या कोळ्याजवळ गेला.
‘‘आज तुझी भरपूर कमाई झालेली दिसतेय. ’’ कोळ्यानं पकडलेल्या माशांकडे पाहत तो उद्गारला! ‘‘इतके मासे पकडायला किती वेळ लागला तुला?’’ त्यानं विचारलं.
‘‘फक्त काही तास!’’ दुपारच्या उन्हात अंगाला आळोखेपिळोखे देत कोळी उत्तरला. ‘‘माझं आजचं काम संपलं. ’’
हे ऐकून तो अधिकारी चक्रावला. ‘‘मग उरलेल्या दिवसाचं तू काय करणार?’’ त्यानं विचारलं.
कोळी हसून म्हणाला, ‘‘घरी जाईन, कुटुंबाबरोबर एकत्र जेवण करेन, एक डुलकी काढेन, माझ्या मुलांबरोबर खेळेन. संध्याकाळी गावात जाऊन मित्रांबरोबर संगीताचा आनंद घेईन. एवढं पुरेसं आहे. ’’
अधिकाऱ्याच्या भुवया उंचावल्या. तो काहीसा गोंधळला. त्याने विचारलं, ‘‘पण जर तू अधिक वेळ मासेमारी केली असतीस तर तुला आणखी पैसे मिळाले असते. त्यातून तू आणखी मोठी बोट विकत घेऊ शकला असतास, हाताखाली चार माणसं ठेवू शकला असतास आणि आणखी जास्त मासे पकडू शकला असतास. त्यात बस्तान बसल्यावर तुला बोटींचा ताफा विकत घेता आला असता, माशांची निर्यात करता आली असती, खूप पैसा मिळवून तू श्रीमंत झाला असतास. ’’
कोळ्यानं हसत विचारलं, ‘‘आणि इतक्या पैशांचं मी काय केलं असतं?’’
अधिकारी म्हणाला, ‘‘श्रीमंत होऊन तुला व्यवसायातून निवृत्ती घेता आली असती, हातात आरामासाठी भरपूर मोकळा वेळ असला असता, कुटुंबाबरोबर निवांत वेळ घालवता आला असता आणि तुला जे आवडेल ते करता आलं असतं. ’’
मंद स्मित करत कोळ्यानं त्या अधिकाऱ्याकडे पाहिलं आणि म्हणाला, ‘‘पण… हेच सगळं तर मी आत्ताही करतो आहे ना!’’
साथींनो, या घटनेवरून आपल्या लक्षात यायला हरकत नाही की, ज्या सुखासाठी पैशाच्या मागे आपण धावत असतो ते सुख आपल्याला मिळतच नाही, उलट आपल्यापासून दूर गेलेले दिसते. परिणामी आपलीच दमछाक मात्र होते. एक प्रसिद्ध म्हण आहे, “ पैशाने गादी विकत घेता येईल, पण झोप नाही. ” अपेक्षा किती होती, आणि किती मिळालं यावर खरं सुख अवलंबून असते का?
सुख हे आयुष्यात बरेचदा निरनिराळ्या वेषात येते. तुम्ही आपली एखाद्या खास वेषात ते येईल म्हणून वाट पहात असता, पण ते सुख तुमच्या पुढे कधी कुठल्या वेषात येईल ते सांगता येत नाही. तुम्हाला फक्त त्या सुखाला ओळखता आलं पाहिजे, नाही तर ते तुमच्या दारात कुठल्यातरी वेषात येईल आणि तुम्ही त्याला न ओळखता दार बंद करून घ्याल. कदाचित ते दुःखाचा झगा पण घालून येईल, तुम्हाला त्याला फक्त ओळखता आलं पाहिजे. थोडक्यात काय तर, सुख ही एक मानसिक सवय आहे, ती लावून घेणं आपल्याच हातात आहे. तुम्ही स्वतःला जितकं सुखी समजाल, तितकंच सुखी तुम्ही रहाल. तुमच्या सुखी रहाण्यावर केवळ तुमचाच अधिकार असतो. इतर लोकं तुम्हाला दुःख देऊच शकत नाहीत. ही गोष्ट एकदा लक्षात आली की जगणं फार सोपं होऊन जाईल, असं वाटत नाही का?
(ऐतिहासिक दस्तावेजांप्रमाणे औरंगजेबाने शिवाजीमहाराजांना जिथे कैदेत ठेवले, ते ठिकाण…)
मागील आठवड्यात 29 नोव्हेंबर 2024 या दिवशी आग्रा येथे पर्यटनासाठी गेलो होतो. दोन दिवस आधी जयपुर फिरून झाले होते. जयपूरहून निघून आग्र्याला येताना रस्त्यात फतेहपूर सिक्री बघितले. तेथील मुघल बादशाह अकबर यांचा भव्य महाल बघितला. तिथल्या गाईडच्या तोंडून अकबराच्या हिंदू पत्नी जोधाबाई यांच्यासाठी बांधलेला महाल, त्यांच्यासाठीच स्वतंत्र स्वयंपाक घर इत्यादी, इत्यादी बघून झाले. दुसऱ्या दिवशी आग्र्याला आल्यावर प्रथम आग्र्याचा किल्ला बघितला. भरपूर भव्यदिव्य आहे. सोबत गाईड घेतलेला असल्यामुळे बरीच माहिती, छोटे छोटे बारकावे तो सांगत होता. हा किल्ला बघत असतानाच एका सुंदर अशा महालात गाईडने माहिती दिली की इथे औरंगजेबाने आपल्या वडिलांना कैदेत ठेवले होते. त्यांच्या आयुष्याची शेवटची आठ वर्षे ते इथेच कैदेत राहिले. तिथून ताजमहालाची भव्य वास्तू स्पष्ट दिसत होती. या ताजमहाला कडे बघत बघतच त्यांच्या कैदेतली वर्षे संपलीत कैदेतच त्यांचा अंत झाला..
अर्थात हा सगळा इतिहास मी दुसऱ्यांदा ऐकत होते. या आधी पाच वर्षांपूर्वी आम्ही गार्डन्स क्लब चे सदस्य हा किल्ला बघून आलो होतो. त्याही वेळी गाईड कडून ही सगळी माहिती ऐकलेली होती. त्यामुळे माझे लक्ष तिकडे जेमतेमच होते.
किल्ला बघून होत आला होता. प्रतीक आणि त्याच्या बाबांची काहीतरी खुसुर- फुसुर गाईड बरोबर चालू होती. सुनील शी बोलताना नंतर कळले की हे दोघेही गाईडला विचारत होते, आग्र्यामध्ये शिवाजी महाराजांना जिथे कैदेत ठेवले गेले होते ती जागा कोणती? ती आम्हाला बघायची आहे. ( ही गोष्ट खरंतर पाच वर्षांपूर्वीच्या ट्रिपमध्येही आमच्या कुणाच्याही लक्षात आली नव्हती आणि याही वेळी माझ्या लक्षात नव्हतीच).
गाईडने उडवा उडवीची उत्तरे द्यायला सुरुवात केली होती. किल्ल्यामध्ये तर तशी कुठलीही जागा नव्हती, जिथे त्यांनी शिवाजी महाराज येथे होते असे सांगितले.
शेवटी गुगल बाबा ची मदत घेऊन या दोघांनी गाईडला गुगल वरील लोकेशन दाखवले. ‘शिवाजी महाराजांना कैदेत ठेवलेली जागा’ असे गुगल वर टाकले तेव्हा ह्या किल्ल्यापासून पाच किलोमीटर वरील एक लोकेशन गुगलने दाखवले. गाईडने अर्थातच खांदे उडवले. आमच्याबरोबर येण्यासाठी त्यांनी नकार दिला. पण या दोघांच्या मनातली जिज्ञासा संपली नव्हती.
आपण आग्र्यामध्ये दोन दिवस राहायचे, अकबर, जहांगीर यांचे राजवाडे बघायचे, शहाजहान आणि मुमताज यांच्या प्रेमाचे प्रतीक म्हणून ताजमहाला पुढे नतमस्तक व्हायचे आणि ज्या साम्राज्यामध्ये आमचा मराठी राजा शंभर दिवस कैदेत होता त्या जागेवर, त्या वास्तूमध्ये माथा न टेकता आग्रा सोडायचे हे आमच्या मनाला पटेना. गाईडला निरोप देऊन आम्ही किल्ल्याच्या बाहेर पडलो आणि गुगल लोकेशन नुसार शिवाजी महाराजांच्या कैदेचे ठिकाण शोधायला सुरुवात केली.
भोसले आणि बत्तासे असा सात जणांचा ग्रुप बरोबर असल्यामुळे आम्ही टेम्पो ट्रॅव्हलर सारखी एक मोठी गाडी केलेली होती. तीच गाडी घेऊन निघालो. आग्रा शहर एका बाजूला टाकून बाहेरच्या रस्त्याला लागलो. शहरापासून लांब नव्हता, पण शहराच्या बाहेरून जाणारा म्हणजे एखाद्या गावकुसासारखा तो रस्ता होता. लोकेशनच्या साधारण एक किलोमीटर अलीकडे आमची गाडी थांबली. पुढचा रस्ता नीरुंद आणि काटेरी झाडांनी वेढलेला होता. ड्रायव्हरने गाडीवर ओरखडे पडायला नकोत म्हणून पुढे येण्यास नकार दिला.
गाडी तिथेच उभी करून मी, सुनील रश्मी व प्रतीक आम्ही चौघे चालत चालत त्या रस्त्याला लागलो. रस्त्याच्या एका बाजूला गावकुसा बाहेरची वस्ती जाणवत होती. रस्ता काटेरी तर होताच वर अस्वच्छही खूप होता. पायाखालच्या रस्त्याचे, रस्त्याकडेच्या घाणीचे फार काही वाटतच नव्हते, कारण 400 मीटरच्या अंतरावर आपल्याला हवे ते ठिकाण दिसू लागले होते. शेवटी एका खूप मोठ्या इमारती जवळ आम्ही येऊन थांबलो. भले मोठे लोखंडी गेट बंद होते. आजूबाजूला झाडी वाढलेली होती. ‘राजा जय किशनदास भवन’ असे ह्या इमारतीवर नाव होते. गेट जवळ गेल्यावर एक छोटेसे फाटक नजरेत आले. त्याला कडी होती पण कुलूप नव्हते. कडी काढून सरळ आत घुसलो. आजूबाजूला कुणीही दिसत नव्हते. गेटच्या आत मात्र स्वच्छता होती. हवेली पूर्ण बंद होती पण कोणाचातरी वावर तिथे आजूबाजूला आहे एवढे लक्षात येत होते. कुणाला काही विचारावे असे आजूबाजूला कोणी नजरेतही येईना. इतक्यात शेजारच्या वस्तीतील एक जण आमच्यासमोर आला. ‘क्या चाहिये आपको?’
आम्ही थोडसं चाचरतच त्याच्याशी बोलायला सुरुवात केली. आम्ही महाराष्ट्रातून आलो आहोत आणि शिवाजी महाराजांना जिथे कैदेत ठेवले होते ती जागा बघण्यासाठी बाहेर पडलो आहोत. गुगलने आम्हाला या जागेवर आणून सोडले आहे, हे सांगताच त्याच्या चेहऱ्यावरचे भाव बदलले. ‘आप सही जगह पर आये हो’ त्याच्या तोंडून हे वाक्य ऐकले आणि अंगावर सरसरून रोमांच उभे राहिले.
त्या माणसाने जी काही माहिती दिली ती अशी होती – या इमारतीला ‘कोठी मीना बाजार’ किंवा ‘कोठी मीना बाजार हवेली’ असे म्हणतात. शिवाजी महाराजांना अटक करून इथेच नजर कैदेत ठेवले होते. 99 दिवस ते इथे होते आणि शंभरव्या दिवशी ते इथून निसटले.
मुघल राजवटीनंतरच्या काळात कोठी मीना बाजार हवेली ब्रिटिशांच्या ताब्यात होती. ब्रिटिशांनी जेव्हा त्यांची राजधानी आग्र्याहून दिल्लीला हलवली तेव्हा 1857 मधे ही कोठी लिलावात विकली होती. राजा जय किशनदास या व्यक्तीने ती खरेदी केली होती. सध्या राजा जयकिशनदास यांचेही कुणी वारसदार या कोठीमध्ये राहत नाहीत. फक्त त्या कोठीची देखभाल करण्यासाठी एक-दोन कुटुंब आजूबाजूला आहेत. बाकी बऱ्याचशा जागेवर अतिक्रमण पण झालेले आहे. गुगल सर्च वर नंतर बरीच माहिती वाचायला मिळाली. त्यामध्ये उत्तर प्रदेश सरकारने या जागेत शिवाजी महाराजांचे स्मारक बनविण्याचा घाट घातलेला आहे. त्याला अर्थातच स्थानिक जागा बळकावणाऱ्यांनी विरोधही केलेला आहे आणि हा निर्णय कायद्याच्या आधीन आहे. त्यामुळे ही वास्तू जैसे थे अशी उभी आहे. तिथे कोणत्याही प्रकारचा बोर्ड लावण्यात आलेला नाही. फक्त ब्रिटिशांनी ही वास्तू राजा जय किशन दासला लिलावात दिल्याचा उल्लेख असलेली एक पाटी तिथे बघायला मिळाली. दरवाजे अर्थातच बंद असल्यामुळे आत जाता आले नाही. तिथेच बाहेर उभे राहून शिवाजी महाराजांच्या धैर्याला, धाडसाला आणि शौर्याला आठवत नतमस्तक झालो. डोळे भरून ती वास्तू मनात साठवली आणि परत फिरलो. चार-पाच दिवसांच्या सहलीमधे जयपूरचा हवामहल, अमेर फोर्ट, फत्तेपूर सिक्रीचा अकबराचा किल्ला, आग्र्याचा किल्ला, ताजमहाल हे सगळं बघत फिरत होतो. पण या ट्रिप मध्ये खरे समाधान वाटले ते मीना बाजार कोठीची इमारत बघून.
इथे लवकरच शिवाजी महाराजांचे स्मारक व्हावे आणि आग्र्यात जाणाऱ्या तमाम मराठी माणसाची पाऊले इकडेही आधी वळावीत असे मनोमन वाटले. या मीना बाजार कोठी पर्यंत पोहोचता आले याबाबत खूप समाधान वाटले.
पाच वर्षांपूर्वी आग्रा फिरताना हा इतिहास आपल्याला आठवलाही नव्हता याची खंत सुद्धा वाटली.
असो.
पण या वेळच्या समाधानाचे सगळे क्रेडिट अर्थातच माझ्या इतिहास प्रेमी नवऱ्याला आणि शाळेत शिकलेला सर्व इतिहास तोंडपाठ असणाऱ्या माझ्या प्रतीकला.
लेखिका : सुश्री बत्तासे प्रमिला
प्रस्तुती : सुश्री सुलू साबणे जोशी
मो – 9421053591
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈