श्री संजय भारद्वाज
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है। साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 290 ☆ धन्यो गृहस्थाश्रम:
सानन्दं सदनं सुताश्च सुधियः कान्ताप्रियभाषिणी
सन्मित्रं सधनं स्वयोषिति रतिः चाज्ञापराः सेवकाः।
आतिथ्यं शिवपूजनं प्रतिदिनं मिष्टान्नपानं गृहे
साधोः सङ्गमुपासते हि सततं धन्यो गृहस्थाश्रमः।।
शार्दूलविक्रीडित छन्द में रची उपरोक्त पंक्तियों का अर्थ है कि घर में आनंद हो, संतान बुद्धिमान हो, पत्नी मधुरभाषिणी हो, मित्र सच्चे हों, घर में धन हो, पत्नी के प्रति पति निष्ठावान हो, सेवक आज्ञापालक हो, घर में अतिथियों का सत्कार होता हो, शिव का पूजन होता हो, प्रति दिन उत्तम भोजन बनता हो और सज्जनों का संग होता हो तो ऐसा गृहस्थाश्रम धन्य है ।
इस रचना में गृहस्थ आश्रम की श्रेष्ठता प्रतिपादित की गई है। विशेष बात यह कि प्राचीन समय में तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था के अनुसार रचे गए इस पथदर्शक काव्य में अधिकांश मूलभूत मूल्य उद्घोषित हुए हैं जिनमें कालानुसार किंचित परिवर्तन ही आया है।
भारतीय दर्शन ने जीवन को चार आश्रमों में विभक्त किया है। ये हैं – ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास। प्रत्येक कालखंड की अवधि 25 वर्ष रखी गई है। ब्रह्मचर्य जीवन के पहले 25 वर्ष का कालखंड है। यह औपचारिक शिक्षा एवं व्यवहार जगत की दीक्षा हेतु है। 25 से 50 वर्ष की आयु गृहस्थाश्रम है। यह सांसारिक दायित्वों की पूर्ति का समय है। इसमें विवाह, संतान को जन्म देना, उनका लालन-पालन करना, उनकी शिक्षा-दीक्षा की व्यवस्था करना, परिवार को केंद्र में रखना आदि सम्मिलित हैं। वानप्रस्थाश्रम, पारिवारिक दायित्वों से शनै:-शनै: मुक्त होने का कालखंड है। दायित्वों से मुक्ति अंतस की यात्रा के लिए प्रेरित करती है। फलत: वानप्रस्थाश्रम में निरंतर आध्यात्मिक विकास होता है। इस शृंखला में अंतिम आश्रम संन्यास कहलाता है। यह संसार से विरक्त होकर ईश्वर में अनुरक्त होने की कालावधि है। चौथे पुरुषार्थ मोक्ष की ओर ले जाने का साधन है संन्यास।
चारों आश्रमों में गृहस्थ आश्रम को महत्वपूर्ण माना गया है। यह सृष्टि के सातत्य की अटूट शृंखला बनाए रखने का साधन भर नहीं है। मनुष्य की मनुष्यता के विकास में गृहस्थ आश्रम ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। परिवार का उद्भव, एक दूसरे की कमियों-अच्छाइयों अर्थात शक्ति बिंदुओं और निर्बलताओं के साथ चलना, परस्पर मान-सम्मान देना, विभिन्न विषयों पर सामूहिक चर्चा करना, सामूहिक निर्णय लेना, उदारता, सहनशीलता, सुख-दुख में साथ रहना आदि बहुत कुछ सिखाता है गृहस्थ आश्रम।
अब ‘मैं और मेरा’ तक सीमित मूल्यधर्मिता का समय है। शिक्षा से लेकर खानपान व पहनावे से लेकर सामाजिक औपचारिकता तक में आयातित संस्कृतियों का अनुकरण कर हमने अपने अस्तित्व पर स्वयं ही प्रश्नचिन्ह लगा लिया है। इसके दुष्परिणाम गृहस्थ आश्रम पर दृष्टिगोचर हो रहे हैं। 18 से 20 वर्ष की आयु में होने वाला परिणय, शिक्षा के चलते 25 वर्ष तक पहुँचा। यह तर्कसम्मत था। तत्पश्चात करियर के चलते 25 से बढ़कर 30 तक पहुँच गया। अब 35 वर्ष की औसत आयु तक आ चुका है। इस आयु तक आते-आते युवक-युवती बौद्धिक रूप से परिपक्व हो चुके होते हैं। तथापि यह भी ध्यान रखना चाहिए कि युवावस्था का शिखर काल भी ढलान पर होता है।
इस अवस्था में व्यवहार बुद्धि अधिक सक्रिय हो उठती है। प्रेम के स्थान पर व्यवहार प्रधान हो जाता है। मस्तिष्क पड़ताल करने में जुटा रहता है पर मन गौण होने लगता है। अपने ही बनाए घेरों में घिरे इन युवाओं को पता ही नहीं होता कि जीवन दो और दो मिलकर कर चार होने का गणित नहीं होता। यदि ऐसा ही होता तो मन की अनुभूतियाँ होती ही नहीं।
आजकल युवक-युवती दोनों आर्थिक रूप से सक्षम होते हैं, यह सुखद है। दुखद यह है कि अधिकांश के शब्दकोश में लचीलेपन का अर्थ समझौता लिखा होता है। लचक और समझौते में अंतर न कर पाने के कारण समय बीतता रहता है।
वर्तमान असंगत स्थिति के कारणों की मीमांसा करते हुए इस सत्य को भी स्वीकारना होगा कि लड़कियों ने सतत कठोर परिश्रम से समाज में अपना स्थान बनाया है। व्यक्ति से व्यक्तित्व की यात्रा कर उन्होंने अपनी योग्यता प्रमाणित की है। विडंबना है कि पुरुष का अहंकार, ‘मेल ईगो’ नारी की इस सफलता को स्वीकार करने के लिए अभी भी तैयार नहीं है। आज भी ऐसे परिवार मिल जाएँगे जो बहू को घर की चौखट तक सीमित रखना चाहते हैं। जिनके लिए चूल्हे-चौके से परे स्त्री जीवन का दूसरा कोई अर्थ नहीं है। इसके चलते उच्च शिक्षित युवतियों की विवाह से विमुखता भी बढ़ रही है।
सनद रहे कि सात जन्मों का साथ चाहने वाली विवाह संस्था का स्थान डगमगा रहा है। विवाह होना कठिन हो चला है और होने के बाद उसे निभाना और अधिक कठिन। विवाह योग्य युवक-युवतियों को याद रखना चाहिए कि ‘नो वन इज़ परफेक्ट।’ अगर, मगर, किंतु-परंतु विवाह की डगर को संकरा करते जा रहे हैं।
विवाह के बाद सामंजस्य के अभाव में संबंध विच्छेद सैकड़ों प्रतिशत की दर से बढ़े हैं। संबंध विच्छेद से बच्चों पर जो बीतती है, उस पर किसी का विचार होता दिखता नहीं। बच्चे को माँ और पिता, दोनों की आवश्यकता होती है। एक से दूर रहने के कारण उनकी मनोदशा पर गहरा प्रभाव पड़ता है।
यक्ष प्रश्न है कि कहाँ जा रहे हैं हम?
‘ईट, ड्रिंक एंड बी मेरी’ के मद में डूबा समाज क्या शेष संभावनाओं के मुरझाने की प्रतीक्षा में है? स्मरण रहे, विवाह, गृहस्थ आश्रम का प्रवेश द्वार है। गृहस्थाश्रम इहलौकिक और पारलौकिक संभावनाओं का अशेष जगत है। इसे बाहर खड़े रहकर नहीं समझा जा सकता। आदि शंकराचार्य जैसे मूर्धन्य को भी देवी भारती के प्रश्नों का उत्तर देने के लिए एक राजा की देह में प्रवेश कर गृहस्थाश्रम को जीना पड़ा था।
अशेष के ‘अ’ की रक्षा के लिए कमर कसने की आवश्यकता है। व्यक्तिगत और समष्टिगत प्रयासों की आवश्यकता है। मैं तो अभियान पर निकल चला हूँ। क्या आपने चलना आरम्भ किया?….इति।
© संजय भारद्वाज
प्रातः 6:50 बजे, 31 मई 2025
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
संजयउवाच@डाटामेल.भारत
writersanjay@gmail.com
☆ आपदां अपहर्तारं ☆
श्री महावीर साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की जानकारी आपको शीघ्र दी जावेगी। आत्मपरिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈