श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है – संतोष के दोहे – नीति आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

 ☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 260 ☆

संतोष के दोहे – नीति ☆ श्री संतोष नेमा ☆

राष्ट्र धर्म सबसे बड़ा, रखें हमेशा याद ।

मिलेगा संतोष तभी, देश रहे आबाद ।।

*

राष्ट्र द्रोह अपना रहे, यहां विरोधी लोग ।

उन्हें तिरस्कृत कीजिए, कभी न दें सहयोग ।।

*

जीवन भर देता नहीं, यहां न कोई साथ ।

अंत समय में छूटता, सब अपनों का हाथ ।।

*

करे वर्तिका दीप से, बार बार मनुहार ।

अंधेरों को चीरकर, करने दे उजियार ।।

*

विष रखते मन में सदा, मुखड़े पर मुस्कान ।

द्वेष पाल कर हृदय में, बने नेक इंसान ।।

*

जीवन में जब हो समय, अपने ही विपरीत ।

रख कर संयम हृदय में, रखें राम से प्रीति ।।

*

दंभ कभी मत कीजिए, जिसका निश्चित अस्त ।

देखो रावण कंस भी, हुए इसी से पस्त ।।

*

मित्र रखें मत मूढ़ सा, यही घटाते ज्ञान ।

ज्ञानी हो दुश्मन अगर, रखे आपका मान ।।

*

भीड़ साथ लेकर चलें, उसे सुने सरकार ।

आम आदमी की यहां, कौन सुने दरकार ।।

*

नीति वचन संतोष के, मानें जो भी लोग ।

हो हित वर्धन स्वयं ही, बने सुखद संयोग ।।

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 70003619839300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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