डॉ कुंदन सिंह परिहार
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम व्यंग्य – ‘लेखक की दावत‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 290 ☆
☆ व्यंग्य ☆ लेखक की दावत ☆
एक बड़े लेखक एक साहित्यिक गोष्ठी में आमंत्रित होकर एक छोटे शहर में पहुंचे। नाम– सोमेश्वर जी। बड़े लेखक सब तरह के होते हैं। कुछ ऐसे जो हमेशा ऐसा श्रेष्ठता का भाव पहने रहते हैं कि उनसे बात करने में हलक़ सूखता है। बहुत से बड़े लेखक सहज होते हैं। कोई ढोंग नहीं फैलाते ।मेज़बान जेही विधि राखे, रह लेते हैं। हर स्थिति में एडजस्ट कर लेते हैं।
सोमेश्वर जी ऐसे ही सर्वहारा किस्म के लेखक थे। थ्री टायर का मार्ग-व्यय मिल जाए, भोजन-निवास की व्यवस्था ठीक हो तो वे कहीं भी जाने को तैयार हो जाते थे। जिस साहित्यिक संस्था ने उन्हें आमंत्रित किया था उसके अध्यक्ष ने अपने घर पर ही एक कमरे में उनके रुकने की व्यवस्था कर दी थी। वे उसी में संतुष्ट थे। उन्हें ‘वीआईपी ट्रीटमेंट’ की आदत नहीं थी।
शाम को शहर के साहित्यकार और साहित्यकारों के ‘फ़ैन’ सोमेश्वर जी से मिलने पहुंचे। सोमेश्वर जी सबसे बड़े प्रेम से मिले। बड़ी देर तक बातचीत होती रही। सोमेश्वर जी का मन प्रसन्न हो गया।
दूसरे दिन सवेरे सोमेश्वर जी कार्यक्रम की तैयारी कर रहे थे कि एक सज्जन अवतरित हुए। उम्र यही तीस-पैंतीस, कुर्ता-पायजामा और कंधे पर झोला। हाथ जोड़कर नब्बे डिग्री पर झुक गये, बोले, ‘सेवक को इस इलाके में बेचैन के नाम से जानते हैं। सभी स्थानीय अखबारों में मेरी कविताएं छपती रहती हैं। जब से आपके आने का सुना तभी से बेचैन था। दर्शन करके धन्य हुआ।’
सोमेश्वर जी ने शिष्टतावश बैठाया, कुशलक्षेम पूछी। वैसे बेचैन जी को किसी प्रोत्साहन की ज़रूरत नहीं थी। वे खुद ही अपने गुण-ग्राहक थे। झोले में से दो कविता संग्रह निकाल कर बोले, ‘ये यहीं से छपे हैं। आपकी सेवा में भेंट कर रहा हूं। तीस पैंतीस पांडुलिपियां तैयार हैं। कोई समझदार प्रकाशक नहीं मिल रहा है। एक भी संग्रह ठीक से छप जाए तो आपके चरणों की सौगंध, सब तरफ अपना डंका बजेगा।’
सोमेश्वर जी का साबिका इस तरह के लिक्खाड़ों से पड़ता रहता था। बोले, ‘क्यों नहीं।’
बेचैन जी हाथ जोड़कर बोले, ‘मैं बड़ी उम्मीद से एक प्रार्थना करने आया था। आज कार्यक्रम के बाद दोपहर का भोजन इस सेवक के घर पर हो। आप जैसे महान साहित्यकार की चरण- धूल पड़ने से मेरा घर पवित्र हो जाएगा।’
सोमेश्वर जी संकोच में बोले, ‘मुझे कोई एतराज़ नहीं है। मेरे मेज़बान से पूछ लीजिए।’
बेचैन जी आत्मविश्वास से बोले, ‘उनकी चिन्ता छोड़िए। उन्हें मैं बता दूंगा।’
बेचैन जी का भक्ति भाव देखकर सोमेश्वर जी और अधिक प्रसन्न हुए।
दस ग्यारह बजे गोष्ठी हुई। सोमेश्वर जी का व्याख्यान हुआ। श्रोता काफी थे। सबने श्रद्धा भाव से सुना। सबसे आगे वाली पांत में बेचैन जी विराजमान थे। वे सोमेश्वर जी के हर वाक्य पर गद्गद् होकर ऐसे सिर हिला रहे थे जैसे कान में अमृत टपक रहा हो। सोमेश्वर जी पूरे कार्यक्रम से बड़े संतुष्ट हुए।
सोमेश्वर जी बाहर निकले तो उन्हें स्थानीय साहित्यकारों और प्रशंसकों ने घेर लिया। बाहर बेचैन जी खड़े इस तरह उन्हें देख रहे थे जैसे कोई बिल्ली चूहे को दूर से देखती है, कि कब मौका मिले और झपट्टा मारे। वे स्कूटर लेकर आये थे। थोड़ा सा मौका मिलते ही वे सोमेश्वर जी को स्कूटर की तरफ ले गये और एक तरह से उनका अपहरण कर ले भागे।
घर पर उन्होंने बड़ी गर्मजोशी से सोमेश्वर जी का सत्कार किया। उनके हाथ सारे समय ऐसे जुड़े रहे कि टीवी पर फेविकॉल के विज्ञापन की याद आती थी। उनके कमरे में पचास साठ फोटो टंगे थे जिनमें कई छोटे बड़े साहित्यकार उनके कंधे पर हाथ रखे या कमर में हाथ डाले मुस्करा रहे थे।
भोजन में नाना प्रकार के व्यंजन थे। बेचैन जी ने इसरार कर कर के खिलाया। ‘थोड़ा यह लीजिए’, ‘थोड़ा वह लीजिए’, ‘बस एक और’, ‘आप तो कुछ ले ही नहीं रहे हैं।’ नतीजा यह हुआ कि सोमेश्वर जी भूख से ज़्यादा खा गये। अफ़रा चढ़ गया। भोजन के बाद बेचैन जी ने उन्हे एक सुगंधित पान पेश किया।
उन्होंने पहले से ही सोमेश्वर जी के लिए एक पलंग बिछवा दिया था। बोले, ‘थोड़ी देर विश्राम कर लीजिए। भोजन के तुरन्त बाद जाना ठीक नहीं होगा।’
सोमेश्वर जी खुद इस हालत में नहीं थे कि तुरन्त वापस जा सकें। अति भोजन के कारण शरीर शिथिल हो रहा था। वे पलंग पर लेट गये और बेचैन जी एक कुर्सी डालकर उनकी बगल में बैठ गये। उनका झोला कुर्सी की पीठ पर लटका था।
सोमेश्वर जी ने देखा बेचैन जी कुछ बेचैन थे। उन्होंने अपना झोला गोद में रख लिया था और बार-बार उसमें हाथ डालकर कुछ टटोल रहे थे।
सोमेश्वर जी आसन्न संकट से अनभिज्ञ थे। पान चबाते हुए बोले, ‘बड़ा स्वादिष्ट भोजन था। अपनी पत्नी को मेरी तरफ से धन्यवाद दीजिएगा।’
बेचैन जी के हाथों ने फिर फेविकॉल का असर दिखाया, बोले, ‘कैसी बातें कर रहे हैं? हम तो धन्य हो गये। यह हमारे जीवन का अविस्मरणीय दिन है।’
सोमेश्वर जी चुप हो गये। बात करने को कुछ नहीं था। वैसे भी उन पर नींद की खुमारी चढ़ रही थी।
इस बीच बेचैन जी ने अपने रहस्यमय झोले से एक कॉपी निकाल ली थी। एकाएक बोले, ‘अनुमति हो तो सेवा में एक कविता प्रस्तुत करूं?’
सोमेश्वर की उस समय बेचैन जी के सत्कार से प्रसन्न और पान के स्वाद में खोये थे। इत्मीनान से बोले, ‘सुनाइए, सुनाइए।’
बेचैन जी को जैसे प्रवेश पत्र मिला। कविता पाठ शुरू हो गया। सोमेश्वर जी आंखें मींचे ‘हूं हूं’ करते जा रहे थे।कविता खत्म हुई तो टिप्पणी की, ‘अच्छी है।’
बेचैन जी ने बिना उन्हें कोई और मौका दिए कहा, ‘एक और सेवा में पेश कर रहा हूं। तवज्जो चाहता हूं।’
वे फिर शुरू हो गए और सोमेश्वर जी फिर ‘हूं हूं’ करने लगे। दूसरी के बाद तीसरी और फिर चौथी। आठ कविताएं सुनाते सुनाते एक घंटे से ज़्यादा हो गया। सोमेश्वर जी का दिमाग ठनठन करने लगा। नींद भाग खड़ी हुई। पान फीका हो गया। लेकिन करें क्या? बेचैन जी के पास अभी बहुत कविताएं और बहुत सी कॉपियां थीं और सोमेश्वर जी के पेट में उनका नमक बोल रहा था।
चौदह कविताओं के बाद सोमेश्वर जी ने नमकहरामी करने का निश्चय कर लिया। बोले, ‘आप बहुत अच्छा लिखते हैं, लेकिन बहुत समय हो गया। वहां लोग इन्तज़ार कर रहे होंगे।’
बेचैन जी बोले, ‘अरे आप भी किन लोगों के चक्कर में पड़े हैं। वे सब लुच्चे हैं। अभी आपके लिए बढ़िया चाय बनवाता हूं। तब तक आप एक दो उत्तम कोटि की कविताएं सुनिए। एक उर्मिला के विरह पर है और दूसरी कैकेई के चरित्र पर। एकदम मौलिक नजरिया है।’
वे भीतर जाकर चाय का आदेश दे आये, और फिर कॉपी लेकर शुरू हो गये। सोमेश्वर जी का दिमाग अब बिलकुल ठस हो गया था, काठ के टुकड़े जैसा। उन्हें बेचैन जी का स्वर तो सुनायी पड़ रहा था, लेकिन शब्द दिमाग तक नहीं पहुंच रहे थे।
वे हर कविता के बाद पूछते, ‘चाय नहीं आयी?’ और बेचैन जी जवाब देते, ‘बस, आ रही है।’ फिर चार कविताओं के बाद सोमेश्वर जी बोले, ‘चला जाए।’ और बैचैन जी फिर भीतर तक जाकर लौट कर बोले, ‘बस आ रही है।’
उन्होंने फिर चार कविताएं सुनायीं। चाय का अब तक कहीं अता-पता नहीं था। आखिरकार सोमेश्वर जी सख़्त स्वर में बोले, ‘मना कर दीजिए। अब जाऊंगा।’
बेचैन जी भीतर गये और सचमुच चाय लेकर आ गये। चाय के चलते चलते उन्होंने एक कविता और सुना डाली। सोमेश्वर जी अब चुपचाप दबे आक्रोश से बेचैन जी को ऐसे देख रहे थे जैसे कोई शोषित शोषक को देखता है। बेचैन जी ने भोजन का भुलावा देकर दो चार किलो कचरा उनके दिमाग में झोंक दिया था। वे अभी भी, दीन-दुनिया से बेखबर, कविता पढ़े जा रहे थे।
बेचैन जी ट्रे भीतर रखकर लौटे तो देखा सोमेश्वर जी दरवाज़े के बाहर खड़े थे। बोले, ‘अरे, आप तो बाहर आ गये। आइए, स्कूटर पर विराजिये।’
सोमेश्वर जी गुस्से में बोले, ‘नहीं, मैं रिक्शे से जाऊंगा।’ बेचैन जी विस्मय से बोले, ‘रिक्शे से क्यों जाएंगे? मैं छोड़ देता हूं। मुझे सेवा का अवसर दें।’
सोमेश्वर जी बोले, ‘आप काफी सेवा कर चुके। अब रिक्शे से ही जाऊंगा। अकेला जाऊंगा।’
बेचैन जी बोले, ‘आप यहां के रास्तों से परिचित नहीं हैं। भटक जाएंगे।’
सोमेश्वर जी ने जवाब दिया, ‘आप मेरी चिन्ता छोड़कर घर पर ही विश्राम कीजिए। मैं बिलकुल ठीक-ठाक पहुंच जाऊंगा। थोड़ी देर एकान्त-सेवन की इच्छा है।’
मजबूरी में बेचैन जी ने फिर नब्बे डिग्री पर झुक कर प्रणाम कर सोमेश्वर जी को विदा किया। फिर लौटकर पत्नी से बोले, ‘ये लेखक भी सनकी होते हैं। कहा स्कूटर से छोड़ दें, लेकिन रिक्शे से गये। फिर भी हैं बढ़िया आदमी। मेरी कविताएं बहुत धीरज से सुनीं। बहुत दिनों बाद ऐसा गुण-ग्राहक मिला।’
© डॉ कुंदन सिंह परिहार
जबलपुर, मध्य प्रदेश
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈