श्री सुरेश पटवा
(श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। आज प्रस्तुत है इस यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा की अंतिम कड़ी।)
यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-२६ —- अंतिम किश्त ☆ श्री सुरेश पटवा
बादामी गुफा मन्दिर बागलकोट ज़िले के बादामी ऐतिहासिक नगर में स्थित एक हिन्दू और जैन गुफा मन्दिरों का एक परिसर है। मालप्रभा घाटी में चालुक्यों के शासन काल में बने हिंदू और जैन मंदिर वास्तुकला स्कूलों का उद्गम स्थल कला के क्षेत्रीय केंद्र के रूप में बादामी उभरा। द्रविड़ और नागर दोनों शैलियों के मंदिर बादामी के साथ-साथ ऐहोल, पट्टदकल और महाकुटा में हैं। बादामी में कई मंदिर, जैसे पूर्वी भूतनाथ समूह और जम्बुलिंगेश्वर मंदिर, 6वीं और 8वीं शताब्दी के बीच बनाए गए थे। वे मंदिर वास्तुकला और कला के विकास के साथ-साथ पहली सहस्राब्दी ईस्वी के मध्य में कला की कर्नाटक परंपरा को समझने के लिए महत्वपूर्ण हैं।
बादामी और मालप्रभा क्षेत्र के अन्य स्थलों पर विजयनगर साम्राज्य के हिंदू राजाओं और दक्कन क्षेत्र के इस्लामी सुल्तानों के बीच लड़ाई हुई थी। विजयनगर काल के बाद आए मुस्लिम शासन ने इस विरासत को और समृद्ध किया। इसकी पुष्टि यहां के दो स्मारकों से होती है। एक गुफा मंदिरों और संरचनात्मक मंदिरों के प्रवेश द्वार के पास मरकज जुम्मा है। इसमें अब्दुल मलिक अजीज की 18वीं सदी की कब्र है। उसी के बगल से होकर निकले।
बादामी में अठारह शिलालेख हैं, जिनमें महत्वपूर्ण ऐतिहासिक जानकारी है। एक पहाड़ी पर पुरानी कन्नड़ लिपि में पहला संस्कृत शिलालेख पुलकेशिन प्रथम (वल्लभेश्वर) के काल का 543 ई.पू. का है, दूसरा कन्नड़ भाषा और लिपि में मंगलेश का 578 ई.पू. का गुफा शिलालेख है और तीसरा कप्पे अरभट्ट है। अभिलेख, त्रिपदी (तीन पंक्ति) मीटर में सबसे प्रारंभिक उपलब्ध कन्नड़ कविता। भूतनाथ मंदिर के पास एक शिलालेख में तीर्थंकर आदिनाथ को समर्पित जैन रॉक-कट मंदिर में 12 वीं शताब्दी के शिलालेख भी हैं।
बादामी गुफा मंदिरों को संभवतः 6वीं शताब्दी के अंत तक पूरी तरह से अंदर से चित्रित किया गया था। गुफा 3 (वैष्णव, हिंदू) और गुफा 4 (जैन) में पाए गए भित्तिचित्र टुकड़े, बैंड और फीके खंडों को छोड़कर, इनमें से अधिकांश पेंटिंग अब खो गई हैं। मूल भित्तिचित्र सबसे स्पष्ट रूप से गुफा 3 में पाए जाते हैं, जहां विष्णु मंदिर के अंदर, धर्मनिरपेक्ष कला के चित्रों के साथ-साथ भित्तिचित्र भी हैं जो छत पर और प्राकृतिक तत्वों के कम संपर्क वाले हिस्सों में शिव और पार्वती की किंवदंतियों को दर्शाते हैं। ये भारत में हिंदू किंवदंतियों की सबसे पुरानी ज्ञात पेंटिंगों में से हैं, जिन्हें दिनांकित किया जा सकता है।
यह भारतीय शैलकर्तित वास्तुकला का एक महत्वपूर्ण उदाहरण है, जिसमें विशेषकर बादामी चालुक्य वास्तुकला देखी जा सकती है। इस परिसर का निर्माण छठी शताब्दी में आरम्भ हुआ था। बादामी नगर का प्राचीन नाम “वातापी” था, और यह आरम्भिक चालुक्य राजवंश की राजधानी था, जिसने 6ठी से 8वीं शताब्दी तक कर्नाटक के अधिकांश भागों पर राज्य किया। बादामी गुफा मन्दिर दक्कन पठार के प्राचीनतम मन्दिरों में से हैं। इनके और एहोल के मन्दिरों के निर्माण से मलप्रभा नदी के घाटी क्षेत्र में मन्दिर वास्तुकला तेज़ी से विकसित होने लगी, और इसने आगे जाकर भारत-भर के हिन्दू मन्दिर निर्माण को प्रभावित किया।
यह नगर अगस्त्य झील के पश्चिमी तट पर स्थित है, जो एक मानवकृत जलाशय है। झील एक मिट्टी की दीवार से घिरी है, जिस से पत्थर की सीढ़ीयाँ जल तक जाती हैं। झील उत्तर और दक्षिण में बाद के काल में बने दुर्गों से घिरी हुई है। शहर के दक्षिण-पूर्व में नरम बादामी बलुआ पत्थर से बनी गुफाओं की संख्या 1 से 4 तक है।
- गुफा न. 1 में, हिंदू देवी-देवताओं और प्रसंगों की विभिन्न मूर्तियों के बीच, नटराज के रूप में तांडव-नृत्य करने वाले शिव की एक प्रमुख नक्काशी है।
- गुफा न. 2 ज्यादातर अपने अभिन्यास और आयामों के संदर्भ में गुफा न. 1 के समान है, जिसमें हिंदू प्रसंगों की विशेषता है, जिसमें विष्णु की त्रिविक्रम के रूप में उभड़ी हुई नक्काशी सबसे बड़ी है।
- गुफा न. 3 सबसे बड़ी है, जिसमें विष्णु से संबंधित पौराणिक कथाएं बनाई गई हैं, और यह परिसर में सबसे जटिल नक्काशीदार गुफा भी है।
- गुफा न. 4 जैन धर्म के प्रतिष्ठित लोगों को समर्पित है। झील के चारों ओर, बादामी में अतिरिक्त गुफाएँ हैं जिनमें से एक बौद्ध गुफा हो सकती है। 2015 में चार मुख्य गुफाओं में 27 नक्काशियों के साथ एक अन्य गुफा की खोज हुई है।
पट्टदकल्लु (Pattadakal), जिसे रक्तपुर कहा जाता था, बागलकोट ज़िले में मलप्रभा नदी के तट पर स्थित एक ऐतिहासिक गाँव है, जो अपने यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ चालुक्य राजवंश द्वारा 7वीं और 8वीं शताब्दी में बने नौ हिन्दू और एक जैन मन्दिर हैं, जिनमें द्रविड़ (दक्षिण भारतीय) तथा नागर (उत्तर भारतीय ) दोनों शैलियाँ विकसित हुई थीं। पट्टदकल्लु बादामी से 23 किमी और एहोल से 11 किमी दूर है।
यदी बादामी को महाविद्यालय तो पट्टदकल्लु को मन्दिर निर्माण का विश्वविद्यालय कहा जाता है। यहां का निकटतम रेलवे स्टेशन 24 किमी बादामी है। इस शहर को कभी किसुवोलल या रक्तपुर कहा जाता था, क्योंकि यहाँ का बलुआ पत्थर लाल आभा लिए हुए है।
चालुक्य शैली का उद्भव 450 ई. में एहोल में हुआ था। यहाँ वास्तुकारों ने नागर एवं द्रविड़ समेत विभिन्न शैलियों के प्रयोग किए थे। इन शैलियों के संगम से एक अभिन्न शैली का उद्भव हुआ। सातवीं शताब्दी के मध्य में यहां चालुक्य राजाओं के राजतिलक होते थे। कालांतर में मंदिर निर्माण का स्थल बादामी से पट्टदकल्लु आ गया। यहाँ कुल दस मंदिर हैं, जिनमें एक जैन धर्मशाला भी शामिल है। इन्हें घेरे हुए ढेरों चैत्य, पूजा स्थल एवं कई अपूर्ण आधारशिलाएं हैं। यहाँ चार मंदिर द्रविड़ शैली के हैं, चार नागर शैली के हैं एवं पापनाथ मंदिर मिश्रित शैली का है। पट्टदकल्लु को 1987 में युनेस्को द्वारा विश्व धरोहर स्थल घोषित किया गया था।
यहां के बहुत से शिल्प अवशेष यहां बने संग्रहालय तथा शिल्प दीर्घा में सुरक्षित रखे हैं। इन संग्रहालयों का अनुरक्षण भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग करता है। ये भूतनाथ मंदिर मार्ग पर स्थित हैं। इनके अलावा अन्य महत्वपूर्ण स्मारकों में, अखण्ड एकाश्म स्तंभ, नागनाथ मंदिर, चंद्रशेखर मंदिर एवं महाकुटेश्वर मंदिर भी हैं, जिनमें अनेकों शिलालेख हैं। वर्ष के आरंभिक त्रैमास में यहां का वार्षिक नृत्योत्सव आयोजन होता है, जिसे चालुक्य उत्सव कहते हैं। इस उत्सव का आयोजन पट्टदकल्लु के अलावा बादामी एवं ऐहोल में भी होता है। यह त्रिदिवसीय संगीत एवं नृत्य का संगम कलाप्रेमियों की भीड़ जुटाता है। उत्सव के मंच की पृष्ठभूमि में मंदिर के दृश्य एवं जाने माने कलाकार इन दिनों यहां के इतिहास को जीवंत कर देते हैं।
बादामी से हुबली एयरपोर्ट 125 किलोमीटर है। 02 अक्टूबर 2023 को दोपहर तीन बजे फ्लाइट है। सुबह नाश्ता निपटा कर नौ बजे निकलना है। होटल के गेट के सामने रंगीन फूलों से गजरों की दुकानें थीं। हमारे दल की महिलाओं ने गजरे ख़रीद धारण कर लिए। बस में बैठ चल दिए। बारह बजे तक हुबली हवाई अड्डा पहुंच गए। हमारी फ्लाइट दिल्ली होकर भोपाल थी। फ्लाइट हुबली से 03:45 दोपहर को चलकर 06:15 शाम को दिल्ली एयरपोर्ट पहुंची। दिल्ली में हवाई अड्डा बदलना पड़ा। करीब दो किलोमीटर पैदल चलकर एक निशुल्क बस में बैठकर घरेलू हवाई अड्डा पहुंचे। भोपाल की फ्लाइट शाम साढ़े सात बजे थे। नौ बजे भोपाल में थे। इस प्रकार डॉक्टर राजेश श्रीवास्तव जी के नेतृत्व और उनकी टीम के सानिध्य में बिना किसी दुर्घटना के सभी यात्रियों की सकुशल घर वापसी हुई।
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© श्री सुरेश पटवा
भोपाल, मध्य प्रदेश
*≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈