श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है – संतोष के दोहे – कैकेई चरित्र  आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

 ☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 258 ☆

☆ संतोष के दोहे – कैकेई चरित्र ☆ श्री संतोष नेमा ☆

कैकयी चरित्र पर कुछ दोहे

बलिदानी अरु पतिव्रता, सुंदरता की खान

युद्ध कला में थी निपुण, उनकी यह पहचान

 *

सरस्वती माँ की सदा, रहीं कृपा की पात्र

माध्यम बनी मंथरा, प्रभु कारज के मात्र

 *

दूरदर्शिनी कैकयी, थीं बहुगुणी महान

रत्न ऋषि ने दिया था, बचपन में ही ज्ञान

 *

कैकेई को याद था, राज काज का भोग

दशरथ की संतान को, नहीं राज्य का योग

 *

राजा दशरथ ने स्वयं, दिया उन्हें वरदान

सरस्वती ने स्वयं ही, लिया यही संज्ञान

 *

रण में रक्षा पर दिए, राजा ने वरदान

कैकेई ने समय पर, जिनका रक्खा ध्यान

 *

राक्षसों के मरण हेतु, मांगे थे वरदान

देवता भी सब साथ हो, बनते रहे महान

 *

माँगा था जिसके लिए, केकैयी ने राज

दी लांछना भरत ने, रखी धर्म की लाज

 *

देकर माँ कैकयी ने, राम कथा को मोड़

अवसर था वनवास का, वह अपूर्व बेजोड़

 *

राम बनाया राम को, दिया नया संदेश

निंदा की परवाह बिन, दे दशरथ को ठेस

 *

वस्तुनिष्ठ बनकर रहीं, बिना किसी संकोच

सबकी नज़रों से गिरीं, सबका सहा प्रकोप

 *

तुलसी ने कैकयी को, कह कलंकिनी नीच

असहिष्णु, पापिनी कहा, दिया क्रोध से सींच

 *

कैकेई को राम ने, दिया कभी ना दोष

धन्यवाद ज्ञापित किया, बिना किए ही रोष

 *

मर्यादा तोड़ी नहीं, दिया सदा ही मान

मिले प्रथम कैकयी से, लौटे जब भगवान

 *

रामकथा की कैकयी, असली मूलाधार

उनके बिन इस कथा का, होता कब विस्तार

 *

कैकयी को हुआ जब, स्व अपराध का बोध

क्षमा याचना राम से, माँगी छोड़ा क्रोध

 *

किया राम ने भी त्वरित, दोष भाव से मुक्त

कर सराहना खुश हुये, वन जाना उपयुक्त

 *

मानस में गर राम का, होता न वनवास

संतों की रक्षा कठिन, बढ़ता जन संत्रास

 *

रावण राक्षस का कब, कैसे होता अंत

नर वानर की मित्रता, और विभीषण संत

 *

एक एक जुड़ती गईं, कड़ियाँ हुईं अनेक

कैकयी बदनाम हुई, था पर विधि का लेख

 *

आदर खुद कैकयी का, करते थे श्रीराम

“जाने क्यों संतोष फिर, हुई बहुत बदनाम

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 70003619839300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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Dr Bhavna Shukla

वाह वाह बेहतरीन अभिव्यक्ति