डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक बेहतरीन व्यंग्य – ‘चुन्नीलाल की मुअत्तली‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 288 ☆

☆ व्यंग्य ☆ चुन्नीलाल की मुअत्तली

सुबह के साढ़े  दस बज रहे हैं और चुन्नीलाल बनियाइन और लुंगी पहने  बरामदे में गमलों में लगे फूलों को पानी दे रहा है। ज़रूर छुट्टी लिए होगा।

मैंने चिल्ला कर पूछा, ‘आज कैजुअल ले ली है क्या?’

उसने हाथ के इशारे से मुझे पास बुलाया, पास पहुंचने पर बोला, ‘क्या पूछ रहे थे?’

मैंने कहा, ‘पूछ रहा था कि आज दफ्तर नहीं जाना है क्या?’

उसके माथे पर बल पड़ गये, बोला, ‘तुम्हें नहीं मालूम?’

मैंने पूछा, ‘क्या?’

वह उसी अप्रसन्नता की मुद्रा में बोला, ‘चिराग तले अंधेरा। पूरे मुहल्ले को मालूम हो गया और तुम मुंह बाये खड़े हो। मैं सस्पेंड हो गया हूं।’

मेरा मुंह आश्चर्य से और ज़्यादा खुल गया। मैंने पूछा, ‘सस्पेंड हो गये? क्यों?’

वह भौंहें टेढ़ी करके बोला, ‘कल का अखबार पढ़ा था?’

मैंने कहा,’पढ़ा तो था।’

वह तिरस्कार के भाव से बोला, ‘खाक पढ़ा था। मेरी समझ में नहीं आता तुम लोग अखबार खरीदते ही क्यों हो। कल के अखबार में सारी घटना छपी है। मेरा नाम भी छपा है। पहली बार अखबार में मेरा नाम छपा है।’

मैंने पूछा, ‘कौन सी घटना? क्या छपा है?’

वह लापरवाही से बोला, ‘मेरे ऊपर बीस लाख की गड़बड़ी का आरोप लगा है। मेरे साथ चन्दू भी सस्पेंड हुआ है।’

घबराहट के मारे मेरी सांस जहां की तरह रह गयी। मैंने कहा, ‘बीस लाख? यह कैसे हुआ?’

वह बोला, ‘अरे भई, हम लोग बैंक से दफ्तर का पैसा लेकर लौट रहे थे। रास्ते में स्कूटर खड़ी करके लघुशंका करने लगे। रुपयों का बैग पीछे स्कूटर में लगा था। लघुशंका के बाद मुड़कर देखा तो बैग गायब था।बहुत से लोग आ जा रहे थे। किसे दोष देते ?’

मैंने कहा, ‘दोनों लोग एक साथ लघुशंका कर रहे थे?’

वह बोला, ‘हां भई।’

मैंने कहा, ‘दोनों को एक साथ लघुशंका करने की क्या ज़रूरत थी? एक थोड़ा रुक जाता।’

उसने जवाब दिया, ‘अब दोनों को एक साथ लगी तो उसमें हमारा क्या कसूर? ये जो लघुशंका वगैरह हैं इन्हें अपने चिकित्सा शास्त्र में वेग कहा जाता है। वेगों को रोकना शरीर के लिए नुकसानदेह होता है। प्राणघातक भी हो सकता है। इन्हें तुरन्त निपटा देना चाहिए।’

मैंने कहा, ‘तो एक हाथ में रुपये का बैग पकड़े रहते। जिम्मेदारी का काम था।’

वह बोला, ‘तुम भी अजीब आदमी हो। अरे भई, लक्ष्मी पवित्र होती है। लक्ष्मी हाथ में लेकर लघुशंका करता? भारी पाप लगता।’

मैंने दुखी भाव से कहा, ‘मुझे अफसोस है।’

वह कुछ नाराज़ी दिखा कर बोला, ‘अफसोस की क्या बात है? तुम्हारे साथ यही गड़बड़ है। मुझे थोड़ा आराम मिला तो तुम्हें अफसोस होने लगा। और फिर मैं तो यह मानता हूं कि जो काम करेगा उसी से गलती होगी। जो काम ही नहीं करेगा उससे क्या गलती होगी?’

मैंने कहा, ‘लेकिन अब तुम क्या करोगे?’

वह इत्मीनान से बोला, ‘करना क्या है। रोज दफ्तर जाकर दस्तखत करूंगा, वहां दोस्तों से गप लड़ाऊंगा और हर महीने आधी तनख्वाह लूंगा।’

मैंने कहा, ‘लेकिन इस केस में कुछ तो होगा।’

वह बोला, ‘हां, विभागीय जांच चलेगी। पुलिस केस भी बनेगा। कुछ परेशानी तो होगी। लेकिन आखिर में सब ठीक हो जाएगा। नौकरी में यह सब तो चलता ही है।’

मैंने कहा, ‘जब तक मामले का फैसला नहीं होगा पैसे वैसे की परेशानी तो होगी।’

वह बोला, ‘अरे तो तुम क्या यह समझते हो कि मैं हाथ पर हाथ धरे बैठा रहूंगा? साले के नाम से दो टैक्सियां डाल रहा हूं। बिजली के सामान की एक दुकान भी खोल रहा हूं। बाल- बच्चों के भविष्य का भी तो सोचना है। नौकरी में आजकल कुछ नहीं धरा है।’

मैंने ताज्जुब से पूछा, ‘लेकिन इस सबके लिए पैसा कहां से आएगा?’

वह मुस्कराया, बोला, ‘तुम घामड़ ही रहे यार। ये सब बातें तुम्हारी समझ में नहीं आएंगीं। तुम तो बस नौकरी करते रहो और हाय हाय करके जिन्दगी काटते रहो।’

मैंने कहा, ‘लेकिन तुम तो कह रहे थे कि सरकारी पैसे तुमने नहीं लिये।’

उसकी मुस्कान और चौड़ी हो गयी। बोला, ‘अब भी कह रहा हूं और आखिर तक कहता रहूंगा। चोरी कबूल करके मैं अपने पांव पर कुल्हाड़ी मारूंगा क्या? कानून भी कहता है कि जब तक जुर्म साबित न हो जाए, आदमी को अपराधी न माना जाए। इसलिए मैं बिलकुल सौ प्रतिशत पाक साफ हूं ।’

मैंने कहा, ‘लेकिन यह तो देश के पैसे का दुरुपयोग है।’

वह ज्ञानियों की नाईं बोला, ‘यह तुम्हारी नासमझी है,बंधु। इस देश की आबादी एक  सौ चालीस करोड़ है। बीस लाख रुपये को एक  सौ चालीस करोड़ में बांटो तो एक आदमी पर चवन्नी का भार भी नहीं आता। लेकिन वही पैसा जब बीस लाख  रुपये के रूप में एक आदमी के हाथ में आ जाता है तो वह उससे अपना, अपने परिवार का, समाज का और देश का कल्याण कर सकता है। आया कुछ समझ में?’

मैंने कहा, ‘आया महाप्रभु।’

वह संतुष्ट होकर बोला, ‘फिलहाल तो मेरा एक ही उद्देश्य है।’

मैंने कहा, ‘वह क्या?’

वह बोला, ‘कोशिश यही करना है कि विभागीय जांच लंबी से लंबी चले। बहाल तो होना ही है, लेकिन कहीं जल्दी बहाल हो गया तो सब गड़बड़ हो जाएगा।’

मैं फिर मूढ़ की तरह पूछा, ‘बहाल होने से क्या दिक्कत हो जाएगी भैया? तुम्हारी बातें आज मेरी समझ से परे हैं। लगता है कि मेरा दिमाग कुछ कुन्द हो गया है।’

वह बोला, ‘अरे श्रीमान, मुअत्तली जितनी लंबी खिंचेगी, धंधा जमाने के लिए उतना ही ज्यादा टाइम मिलेगा। वैसे भी रिटायरमेंट के बाद कोई धंधा करना ही है। वह अभी जम जाएगा तो नौकरी तो फिर साइड बिज़नेस जैसी हो जाएगी। इसीलिए मैं वकील से सलाह ले रहा हूं कि केस कैसे लंबा लंबा खिंच सकता है। जल्दी खत्म हो जाएगा तो भारी परेशानी हो जाएगी। दूसरी बात यह है कि मुअत्तली का पीरियड जितना लंबा होगा, बहाल  होने पर उतना ही ज्यादा इकठ्ठा पैसा दफ्तर से मिलेगा। धंधे में काम आएगा।’

मैंने कहा, ‘समझ गया, भैया जी। आज मुझे बड़ा ज्ञान दिया तुमने। नौकरी में कितनी संभावनाएं हैं यह आज ही जाना।’

वह खुश होकर बोला, ‘तारीफ के लिए शुक्रिया। दो-चार दिन मेरे पास बैठो तो तुम्हें नौकरी के गुर समझा दूंगा। नौकरी तो सब करते हैं लेकिन नौकरी की खान में छिपे रत्नों को सब नहीं ढूंढ़ पाते। बिना गुरू के ज्ञान नहीं मिलता।’

मैंने हाथ जोड़कर चुन्नीलाल से कहा, ‘ज़रूर बैठूंगा, भैया। आजकल इस तरह बुला बुलाकर मुफ्त में ज्ञान देने वाले गुरू मिलते कहां हैं? फिलहाल तो मैं यह कामना करता हूं कि तुम्हारी इच्छा पूरी हो और तुम्हारी मुअत्तली लंबी से लंबी खिंचे।’

चुन्नीलाल भी हाथ जोड़कर बोला, ‘बहुत बहुत धन्यवाद। तुम सब की दुआएं रहेंगीं तो मेरे रास्ते की सब बाधाएं दूर होंगीं। वैसे मैं निर्भय हूं। जब कुछ किया ही नहीं तो चिन्ता किस बात की?’

मैं चलने लगा तो वह पीछे से बोला, ‘दो-चार दिन आ जाना तो कुछ ज्ञान दे दूंगा तुम्हें। अभी दो-चार दिन फुरसत है। बाद में बिज़ी हो जाऊंगा। मित्रों का कुछ फायदा कर सकूं तो मुझे खुशी होगी।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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