श्रीमति विशाखा मुलमुले 

 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  हिंदी साहित्य  की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है  मानव  द्वारा पर्यावरण के दोहन पर उनकी एक  सार्थक  रचना दोहन . आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में  पढ़ सकेंगे. )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 17  – विशाखा की नज़र से

☆ दोहन ☆

 

कभी धरती एक कुआँ

इसमें से निकाले हमने अमूल्य रत्न ,

तेल, पानी, कोयला

और ना जाने क्या -क्या ।

कभी धरती हुई सपाट,

रोपी हमने मनचाही फसलें

उजाड़ कर उसका सौन्दर्य ।

 

कभी धरती हुई ढलान,

बही वहाँ अमृत की धारा

कल -कल -कल ,

रोका हमनें उसे बना बाँध,

उन्मुक्त को किया बंधक ।

 

कभी धरती हुई पहाड़ ,

वहाँ भी चढ़कर जड़े हमनें स्वाभिमान के झंडे ,

कुरेदा उसका अस्तित्व

किया वहाँ भी निर्माण ।

 

धरती ने अपने रूप बदले

पर ना बदला इंसान ,

तब धरती में हुआ हाहाकार , मचा भूचाल

तो ताका हमने आसमाँ ,

वो भी कांपा हमारे इरादों से ,

दिखा अपनी चमक -धमक

किया हम पर उसने प्रथम प्रहार

पर ना समझा इंसान ……..

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

Please share your Post !

Shares
0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments