श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 134 ☆ असार का सार ?

मनुष्य के मानस में कभी न कभी यह प्रश्न अवश्य उठता है कि उसका जन्म क्यों हुआ है? क्या केवल जन्म लेने, जन्म को भोगने और जन्म को मरण तक ले जाने का माध्यम भर है मनुष्य?

वस्तुत: जीवन समय का साक्षी बनने के लिए नहीं है अपितु समय के पार जाने की यात्रा है।   अपार सृष्टि के पार जाने का, मानव देह एकमात्र अवसर है, एक मात्र माध्यम है। यह सत्य है कि एक जीवन में कोई बिरला ही पार जा पाता है, तथापि एक जीवन में प्रयास कर अगले तिरासी लाख, निन्यानवे हजार, नौ सौ निन्यानवे जन्मों के फेरे से बचना संभव है। मानव देह में मिले समय का उपयोग न हुआ तो कितना लम्बा फेरा लगाकर लौटना पड़ेगा!

जीवन को क्षणभंगुर कहना सामान्य बात है। क्षणभंगुरता में जीवन निहारना, असामान्य दर्शन है। लघु से विराट की यात्रा, अपनी एक कविता के माध्यम से स्मरण हो आती है-

जीवन क्षणभंगुर है;

सिक्का बताता रहा,

समय का चलन बदल दिया;

उसने सिक्का उलट दिया…,

क्षणभंगुरता में ही जीवन है;

अब सिक्के ने कहा,

शब्द और अर्थ के बीच

अलख दृष्टि होती है,

लघु से विराट की यात्रा

ऐसे ही होती है..।

ज्ञान मार्ग का जीव मनुष्येतर जन्मों को अपवाद कर देता है, एक छलांग में इन्हें पार कर लौट आता है फिर मनुज देह को धारण करने, फिर पार जाने के लिए।

मनुष्य जाति का आध्यात्मिक इतिहास बताता है कि ज्ञानशलाका के स्पर्श से शनै:-शनै: अंतस का ज्ञानचक्षु खुलने लगता हैं। अपने उत्कर्ष पर ज्ञानचक्षु समग्र दृष्टिवान हो जाता है महादेव-सा। यह दर्शन सम्यक होता है। सम्यक दृष्टि से जो दिखता है, अद्वैत होता है विष्णु-सा। अद्वैत में सृजन का एक चक्र अंतर्निहित होता है ब्रह्मा-सा। ज्ञान मनुष्य को ब्रह्मा, विष्णु, महेश-सा कर सकता है। सर्जक, सम्यक, जागृत होना, मनुष्य को त्रिदेव कर सकता है।

जिसकी कल्पना मात्र से शब्द रोमांचित हो जाते हैं, देह के रोम उठ खड़े होते हैं, वह ‘त्रिदेव अवस्था’ कैसी होगी! भीतर बसे त्रिदेव का साक्षात्कार, द्योतक है सृष्टि के पार का।

असार है संसार। असार का सार है मनुष्य होना। सार का स्वयं से साक्षात्कार कहलाता है चमत्कार। यह चमत्कार दही में अंतर्निहित माखन-सा है। माखन पाने के लिए बिलोना तो पड़ेगा। यशोदा ने बिलोया तो साक्षात श्याम को पाया।

संभावनाओं की अवधि, हर साँस के साथ घट रही है। अपनी संभावनाओं पर काम आरंभ करो आज और अभी। असार से केवल ‘अ’ ही तो हटाना है। साधक जानता है कि अ से ‘आरंभ’ होता है। आरंभ करो, सार तुम्हारी प्रतीक्षा में है।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी  ☆  ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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लतिका

आरंभ करने के लिए प्रेरणा देने वाला आलेख, धन्यवाद! 🙏