श्री शांतिलाल जैन
(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी के स्थायी स्तम्भ – शेष कुशल में आज प्रस्तुत है उनका एक अप्रतिम और विचारणीय व्यंग्य “मेरी आवाज़ ही मेरी पहचान नहीं है…” ।)
☆ शेष कुशल # 50 ☆
☆ व्यंग्य – “मेरी आवाज़ ही मेरी पहचान नहीं है…” – शांतिलाल जैन ☆
गुलज़ार के लिखे गाने की पंक्ति में छेड़छाड़ करने का अपन का कोई इरादा नहीं है, मगर सच तो यही है साहब कि एक आदमी के तौर पर हम अपनी पहचान साबित करने के तौर-तरीके खोते जा रहे हैं. ये केप्चा तय करेगा कि आप आदमी ही हैं. कम्प्यूटर स्क्रीन पर आड़े तिरछे कटे फटे अंग्रेजी अक्षरों को जस का तस लिखकर बताना पड़ता है – ‘जी हाँ, मैं होमो सेपियन ही हूँ’. मैं अब तक सैकड़ों बार बता चुका हूँ कि मैं एक इंसान हूँ, मानव हूँ, हाड़-मांस का पुतला हूँ, थोड़ी सी बुद्धि भी रखता हूँ, अक्षर ज्ञान जितनी अंग्रेजी आती है, केप्चा पढ़कर लिख सकता हूँ. कम्प्यूटर है कि हर बार सबूत मांगता है. आपने एक बार सही केप्चा दे दिया, वेरी गुड, अब आप अगला केप्चा दिए जाने तक अपने आपको आदमी मान सकते हैं. कभी ‘आर’ को ‘टी’ पढ़ लिया तो दन्न से केप्चा इनवैलिड. शांतिबाबू तुम आदमी हो कि…., एक छोटी सी भूल और आपके वजूद का नकार.
केप्चा में अंग्रेजी के कटे-फटे हर्फों के बाद अब गणित की भी इंट्री हो गई है. अपन की नानी तो इन्हीं दो विषयों में हमेशा मरती रही. काऊ का ऐसे और लीव एप्लीकेशन रटकर अंग्रेजी में तो जैसे तैसे पास हो लिए मगर गणित में हर साल सप्लिमेंटी आती रही. अब फिर वही दौर लौट आया है. ‘सेवेंटी थ्री माइनस ट्वेंटी थ्री इज इक्वल टू ?’ सही सही बताना पड़ता है वरना वही इनवैलिड शांतिबाबू. भयभीत कि इस नामुराद का क्या भरोसा, किसी दिन पूछ बैठे – गुलाम वंश के आखिरी शासक का नाम क्या था ? शाहजहाँ की तीसरी बेगम कौन थी? उलान बटोर किस देश की राजधानी है? केप्चा क्रेक करने से यूपीएससी क्रेक करना ज्यादा आसन है.
चलिए मान लिया कि आप आदमी हैं मगर आपको शांतिबाबू कैसे मान लें? ओटीपी दीजिए. सारी कायनात आपको शांतिबाबू मान रही है मगर आप ही का खरीदा हुआ कम्पयूटर आपको शांतिबाबू नहीं मान रहा, आप ओटीपी नहीं दे पा रहे. बेईज्जती की इंतेहा तो तब है साहब जब ओला का ड्राईवर आपको बिना ओटीपी के अपने ऑटो में घुसने तक नहीं देता. तांगा याद आता है, न कभी घोड़े ने ओटीपी माँगा न उसके मालिक हाफ़िज़ मियाँ ने.
फिर ‘ओटीपी’ के बारे में तो और क्या ही कहें साहब, नामुराद जनरेट बाद में होता है एक्सपायर पहले. अकसर जब मैं फोन वाईब्रेंट मोड़ में रखकर बॉस की डांट खा रहा होता हूँ तभी बेटर-हॉफ़ को ओटीपी की जरूरत आन पड़ती है. मुआ हर तीस सेकंड्स में एक्सपायर हो जा रहा है. फोन बार-बार वाईब्रेट कर रहा है. बॉस मेरे चेहरे पर उड़ती हवाईयों को समझ पा रहा है और मेरे मज़े लेने के लिए जानबूझ कर मुझे लेट कर रहा है. बॉस की भी एक वाईफ़ है जो घर में उसकी बॉस है. वो भी इन स्थितियों से गुजरता है. कल ही जब वो अपने ऑफिस वाले बॉस की डांट खा रहा था तभी उसकी वाईफ़ भी कार्ड से शॉपिंग कर रही थी. रीसेंड करने पर भी ओटीपी आ ही नहीं रहा था. सूखता गला, पीला पड़ता चेहरा, थर-थर कांपते बॉस, नेटवर्क डिले में अटका हुआ ओटीपी. छह अंको का छोटा सा समुच्चय शरीर से बेहिसाब पसीना बहने का सबब बन सकता है. शायद इन्हीं क्षणों में आदमी को खतरे से आगाह करने के लिए स्मार्ट वॉच में ईसीजी और ब्लड प्रेशर बताने की सुविधा दी गई है.
डायरिया हो जाए तो आदमी कुछ देर प्रेशर रोक सकता है, ओटीपी रोक पाना इम्पॉसिबल है. दुनिया का कोई काम इतना अर्जेंट नहीं है साहब जितना ओटीपी देना. पेट में गुड़गुड़ हो रही है, पतले लगे हैं, सुबह से आप चौथी बार टॉयलेट में हैं, ओटीपी तब भी चला आ रहा है जिसे दिए बगैर आपका असिटेंट सर्वर ऑन कर नहीं कर पा रहा. अजीब सा मंज़र है साहब. मौके की नज़ाकत समझकर मोबाइल आप टॉयलेट में ले गए हैं, वहीं से ओटीपी बता भी रहे हैं. असिटेंट नाक पर रुमाल रखकर अपवित्र ओटीपी लगा रहा है, मगर सर्वर को अपने यूजर्स पर रहम नहीं आ रहा.
बहरहाल, आप ही शांतिबाबू हैं ये आपकी आवाज़, आपके मैनरिज्म और अगले की स्मृति पर निर्भर नहीं करता, आपको एम्ऍफ़ए (मल्टी फेक्टर अथान्टिकेशन) के मराहिलों से गुजरना पड़ता है. पासवर्ड, केप्चा, ओटीपी, फिंगरप्रिंट, फेस स्कैन. आपको एनक्रिप्ट किया जा चुका है और आपको पता भी नहीं चला. तुर्रा ये कि, ये सब आपको सुरक्षित रखने के नाम पर किया जा रहा है. वो दौर चला गया जब बाहर से “मैं हूँ, मुन्नी का पापा” कहना पर्याप्त हुआ करे था. अब अंगूठे की छाप लगानी पड़ती है. तकनालॉजी ने ‘भाई साहब, आपको कहीं देखा है’ जैसे मुहावरे चलन से बाहर कर दिए हैं. मेरी आवाज़ ही अब मेरी पहचान नहीं है.
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© शांतिलाल जैन
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