श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता मौत भी अचंभित रह गयी। ) 

 

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 26 ☆ मौत भी अचंभित रह गयी

मौत से उनकी ठन गयी थी,

यह देख मौत भी अचंभित रह गयी थी,

लुका छिपी का खेल कुछ समय से चल रहा था,

मौत को अहसास था यहां दाल आसानी से नहीं गलने वाली ||

 

मौत जूझती रही रोजाना उनसे,

वो मौन रह कर मात देते रहे उसे,

कभी सामने तो कभी पीछे से मौत रोज वार करती ,

मौत को अहसास था यहां दाल आसानी से नहीं गलने वाली ||

 

मौत बार-बार दस्तक देती रही,

चित्रगुप्तजी का लेखा-जोखा उन्हें बतलाती रही,

मौत बैचेन थी कैसे ले जाऊंगी इन्हें अब,

मौत को अहसास था यहां दाल आसानी से नहीं गलने वाली ||

 

हार नहीं मानूँगा यहीं उन्होंने ठानी थी,

साथ लेकर जाऊंगी मौत ने भी ठानी थी,

मौत से ठन जो गयी, मौत थक कर हार मानने को थी,

 

मौत को भी अहसास था यहां दाल आसानी से नहीं गलने वाली ||

मौत अटल जी से विनती करने लगी,

जो आया है उसे जाना ही है, बहला कर कहने लगी,

चित्रगुप्त जी का लेखा आज तक कभी गलत नहीं हुआ,

मौत को अहसास था यहां दाल आसानी से नहीं गलने वाली ||

 

-2-

 

अटल जी भी सत्य के पुजारी थे,

कहा मौत से, शर्मिंदा तुझे होने नहीं दूंगा,

साथ तेरे अवश्य चलूँगा पर एक बात माननी होगी,

मौत को अहसास था यहां दाल आसानी से नहीं  गलने वाली ||

 

आज पंद्रह अगस्त है देश आजादी के जश्न मे डूबा है,

सारे देश में आज तिरंगा शान से लहरा रहा है,

झुकने नहीं दूंगा आज इसे, लहराने दो तिरंगे को शान से,

मौत को अहसास था यहां दाल आसानी से नहीं  गलने वाली ||

 

पंद्रह अगस्त को खलल नहीं डालने दिया मौत को,

सौलह हो गयी,मौत घबरा गयी कैसे कंहू अब चलने को,

मौत को परेशां देख अटल जी ने कहा चलो अब सफर करते हैं,

मौत के जान में जान आयी, उसे अहसास था यहां दाल नहीं गलने वाली ||

 

©  प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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