डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)

✍  लेखनी सुमित्र की #41 – दोहे  ✍

मन ने जब मांगा तुम्हें, मिला सहज ही साथ ।

याचक की तृष्णा बढ़ी, फैलाए  हैं हाथ ।।

 

अकुल होता मन मगर, रह जाता मन मार ।

खंडहर भी तो चाहते, शब्दों की झंकार ।।

 

शिरोधार्य संकेत है, इच्छा करें उपास।

मैं चातक की भांति ही, रोक सकूंगा प्यास।।

 

शब्द और संकेत के, सारे व्यर्थ प्रयास।

चातक भी कहने लगा, मुझे लगी है प्यास।।

 

मूरत का मन हो गया, चलें दूसरे गांव।

भक्त बेचारे भटक कर, तोड़ रहे हैं पांव।।

 

यार बना जाएं कहां, तुमने किया अनंग।

डोर तुम्हारे हाथ है, हम तो बनी पतंग।।

 

मृग ने किस से कब कहा, मुझे लगी है प्यास ।

उत्कटता यह मिलन की, जल दिखता है पास।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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Shyam Khaparde

अच्छी अभिव्यक्ति