प्रो. नव संगीत सिंह

☆ लघुकथा ☆ दुविधा प्रो. नव संगीत सिंह

श्रुति और आकाश अलग-अलग कॉलेजों में प्रोफेसर थे। घर पहुंचने पर दोनों ने अपने-अपने हिसाब से सारे कामों को बांटा हुआ था। अक्सर आकाश को सब्जियां लाने और बाजार के कामों की जिम्मेदारी मिली हुई थी, जबकि श्रुति खाना बनाने और चाय-नाश्ता का ध्यान रखती थी। उन्होंने बर्तन साफ करने और कपड़े धोने के लिए एक नौकरानी रखी थी। आकाश जब भी घर से सब्जी खरीदने निकलता तो अक्सर दुकान पर जाकर अपनी पत्नी को फोन पर पूछता, “क्या लाऊं?” आटा गूंथती हुई पत्नी खीझकर बोलती, “मैं क्या जानूं?  दुकान पर तो तुम खड़े हो। जो पसंद हो, जो अच्छा हो, ले आओ।” बेचारा आकाश, असहाय होकर, जो भी सब्जियाँ मिल जातीं, ले आता और जब वह घर पहुँचता, तो अपनी पत्नी के ताना सुनता, “ओह, क्या ले आए हो तुम! कितनी बासी सब्जियाँ हैं ये सब! मिर्चें और धनिया नहीं लाए क्या?” आकाश चुपचाप सब कुछ विवश होकर सुनता रहता। श्रुति की बातों का उसके पास कोई जवाब नहीं था।

एक दिन पति-पत्नी दोनों शहर से बाहर कहीं गये हुए थे। घर लौटने से पहले वे सब्जी वगैरह खरीदने बाज़ार चले गए। आकाश कार में ही बैठा रहा, क्योंकि उसे कार पार्क करने के लिए उपयुक्त स्थान नहीं मिल रहा था, और उसे यह भी डर था कि अगर वे दोनों कार से बाहर निकल गए, तो नगर निगम वाले कहीं कार को उठाकर ले ना जाएं, क्योंकि कार सही जगह पर पार्क नहीं की गई थी। यह घटना उसके साथ पहले भी घटित हो चुकी थी। खैर…सब्जी वाले के पास जाकर श्रुति ने अपने पति को फोन किया और पूछा, “क्या लाऊं, मुझे तो कुछ समझ नहीं आता।” अब आकाश के पास उसके तानों का साफ जवाब था, “मुझे क्या पता, सब्जी वाले के पास तो तुम खड़ी हो! जो अच्छा लगे, ले आओ…”

**

© प्रो. नव संगीत सिंह

संपर्क – # १, लता ग्रीन एन्क्लेव पटियाला-१४७००२ (पंजाब)

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares
0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments