प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

☆ लघुकथा – आ लौट चलें ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

“क्यों कलुआ की माँ,शहर में ही रहना है,या गाँव वापस चलना है ?”

“नहीं कलुआ के बापू हमें तो अपना गाँव ही भलौ है।क्या, करेंगे शहर में रहकर?”

“हां!दो-चार दिन के  रहने की बात और है,पर हमेशा को बिल्कुल नहीं,कलुआ की माँ।”

“हाँ!आप ठीक कह रहे हो। कलुआ तो सरकारी नौकर हो गया है,अब वह तो गाँव लौटने से रहा, वह तो यहीं शहर में ही रहेगा कलुआ के बापू।”

“बिल्कुल सही! पर हमारे तो अपने गांव,अपनी ज़मीन-जायदाद,अपनी माटी ,अपनी खेती-बाड़ी में जान बसती है, कलुआ की माँ।”

“अच्छा ठीक है हम यहाँ और नहीं रह रहे,कल ही गाँव लौट चलते हैं।”

“पर तुम खाना तो खा लो। गरम रोटियाँ गैस के चूल्हे पर सिंकी, कलुआ के बापू।”

” पर कलुआ की माँ! एक बात तो है कि यहाँ शहर में तो सब कुछ मशीनों से ही चलता है। चाहे रोटी हो चाहे ज़िन्दगी, गाँव के देशी चूल्हे पर सिंकी देशी रोटियों जैसा स्वाद यहाँ कहाँ?”

“हाँ कलुआ के बापू! चलो कल ही लौट चलें।”

इस पर दोनों खिलखिलाकर हँस पड़ते हैं।

 

© प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

प्राचार्य, शासकीय महिला स्नातक महाविद्यालय, मंडला, मप्र -481661

(मो.9425484382)

ईमेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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