डॉ किसलय पंचोली 

परिचय

  • कहानी संग्रह “अथवा” रामकृष्ण प्रकाशन विदिशा म.प्र., “नो पार्किंग” दिशा प्रकाशन दिल्ली, नवजात शिशुओं के दस हजार से अधिक नामों का द्विभाषी कोष “नामायन” सुबोध प्रकाशन दिल्ली से प्रकाशित. ऑनलाइन कहानी संग्रह “ इंदु की स्लाइड” अमेजन पर अपलोडेड . कहानी संग्रहों “बीसवीं सदी की महिला कथाकार”, “जमीन अपनी अपनी”, “मैं हारी नहीं” और ‘कथा मध्य प्रदेश” में कहानियाँ चयनित व प्रकाशित. आकाशवाणी इंदौर से कहानियाँ प्रसारित.
  • साहित्यिक पत्रिकाओं यथा ज्ञानोदय, कथादेश, कथन दिल्ली; कथाक्रम, लखनऊ, समावर्तन उज्जेन; अक्षरा, प्रबुद्ध भारती भोपाल; अक्षर पर्व रायपुर, मसिकागद रोहतक और समाचार पत्रों आदि में कहानियाँ,  पत्र पत्रिकाओं में कविताएँ,  विज्ञान पत्रिकाओं यथा विज्ञान प्रकाश, विज्ञान प्रगति दिल्ली, साइंस इण्डिया भोपाल  आदि में विज्ञान गल्प प्रकाशित . मराठी व गुजराती साहित्यिक पत्रिकाओं और पुस्तकों में कहानियाँ अनुदित. कहानियों पर टेली फ़िल्में निर्मित. कहानियों के नाट्य रूपान्तर मंचित, कहानियाँ अनेक ऑनलाइन प्लेटफार्म पर उपस्थिति.
  • कादम्बिनी, कथाक्रम, कथादेश, कथाबिम्ब, कथा समवेत, अहा जिंदगी अमेज़न पेन टू पब्लिश आदि से रचनाएं पुरस्कृत.

☆ कथा-कहानी ☆ पंगत और ‘चाँद-थाली’ ☆ डा. किसलय पंचोली ☆

मैं अनुमान लगा रही हूँ इस बार जन्मदिन पर अनुराग मुझे क्या गिफ्ट देगा? अं…  शायद गोल्ड के इयरिंग…?  यूनिट की पिछली कपल पार्टी में जब मैं मिसेज नाइक के इअरिंग की भूरी-भूरी प्रशंसा करते नहीं अघा रही थी तब उसकी आँखों में उन्हें खरीदने की ललक सोने से भी ज्यादा चमक रही थी।… पर ऐसी ही फीलिंग खूबसूरत हैदराबादी मोती-नेकलेस… के साथ भी मैंने पढ़ी थी। मुझे याद है मैं एक मेले में मोतियों के स्टाल पर ठिठक गई थी। उसने कहा  था ‘सारिका, ये मोती रियल होंगे या नहीं आई डाउट?’ और हम आगे बढ़ गए थे।…हो सकता है वह इस बार मैसूर सिल्क की साड़ी…खरीद  लाए। अनुराग को मुझे सिल्क साड़ी में देखना बहुत ही पसंद जो है। मैंने लपेटी कि वह दीवाना सा हो जाता है।… या संभव है वह मेरे लिए फेंटास्टिक पश्चिमी परिधान गिफ्ट में देना पसंद करे। …उसे पता है कि मुझे वेस्टर्न कपड़े कितने भाते हैं।… कुल जमा बात यह बन रही है कि संभावित भेंट का हर ख़याल मुझमें ढेर सारी पुलक भर रहा है। खूब रोमांचित कर रहा है। और क्यों न करे? शादी उपरान्त मुझे पति कैप्टन अनुराग से हमेशा ख़ास उपहार जो मिलते रहे हैं। तभी घंटी बजी।

 “तुम आ गए। व्हाट अ प्लीसेन्ट सरप्राइस!” कह मैं अनुराग से लिपट गई।

“कैसे न आता? आज तुम्हारा जन्मदिन है।” उसने मुझे प्रगाढ़ आलिंगन में भर लिया। आलिंगन, जिसमें एक दूसरे के प्रति सकारात्मक भावनाऐं, ऊर्जाऐं तरंगित हो उठीं। हम तरंगों की सवारी पर निकल पड़े। ऐसी सवारी, जब समय स्वयं ठिठककर प्यार की जादूगरी निहारता है। लगता है हम दो जन हैं ही नहीं। एकमेव हो चुके हैं। सुख और संतुष्टि के अदृश्य रेशमी बंधन हमें सहला रहे हैं। पूरी दुनिया में हम सबसे भाग्यशाली हैं। तरंगों के मद्धिम पड़ने पर  कुछ समय बाद उसने कहा।

“सारिका, आँखें बंद करो।” मैंने कुछ बंद की। कुछ-कुछ खुली रखी।

“ आई से नो चीटिंग, पूरी बंद करो।”

  मैंने समीप की टेबल पर पड़े स्कार्फ से आँखों पर पट्टी बांधी और कुर्सी पर स्थिर बैठ गई।

“ओ के बाबा, लो पूरी बंद कर ली।” मेरी बंद आँखों के सामने तन चुके गहरे भूरे चिदाकाश के परदे पर रह-रहकर गोल्ड इयरिंग, हैदराबादी नेकलेस, सिल्क साड़ी, पश्चिमी परिधान दिप-दिपकर चमकने लगे। एक दूसरे से बार-बार प्रतिस्पर्धा सी करते, प्रकाश की गति से आने जाने लगे। गोल्ड इयरिंग की एक में एक फंसते छल्लों की डिजाइन हो या  हैदराबादी नेकलेस की तीन लड़ों के मोतियों की क्रमश घटती साइज या सिल्क साड़ी का सुआपंखी रंग या हाफ  शोल्डर वाला क्रीम कलर का पश्चिमी परिधान! कल्पना उनकी डीटेलिंग का काम पूरे मनोयोग से करने लगी। 

अनुराग ने बहुत प्यार भरे स्पर्श से मेरे दोनों हाथ थामे। और गिफ्ट बॉक्स के ऊपर रखते हुए कहा।

“बूझो,  इस बार तुम्हारी बर्थडे गिफ्ट क्या है?”

मैं उपहार बाक्स के चिकने रेपर पर ऊपर से नीचे उँगलियाँ फेरती गई। अगल से बगल घुमाती गई। अच्छा ….काफी बड़ा है।… क्या हो सकता है?… मेरी झिलमिलाती ज्वेलरी और सिल्की या साटनी कपड़ों की संभावित गिफ्टस की पेकिंग इतनी बड़ी तो हो ही नहीं  सकती।…  हूँ… कहीं फुट विअर के डब्बे तो नहीं? यस,  मेरे मुँह से एक बार निकला था ‘जूते चप्पल पुराने हो गए हैं।’ क्या पता…  नया लैपटॉप  हो?…हाँ मैंने  यह भी कहा था ‘मेरा लैपटॉप बार-बार हेंग हो जाता  है।’… उहूँ  छोटा माइक्रोवेव ओवन भी हो सकता है। मुझे कढाई में पेन केक बनाने की खट-खट करते देख अनुराग ने कहा था ‘अपन जल्दी ही माइक्रोवेव ओवन ले लेंगे।’..काफी भारी है गिफ्ट  …? कहीं किताबें  तो नहीं …? मैंने जिओग्राफी में पी.जी. करने की इच्छा भी  जताई थी। आकार और वजन से जितने कयास लग सकते थे, मैंने सब लगा लिए। हर बार अनुराग हँसता गया और ना कहता गया। फिर मेरा सब्र जवाब देने लगा। मैं आँख की पट्टी खोल उसे दूर फेंकते हुए बोली। 

“ बस बहुत हुआ। मेरा बर्थ डे है। तुमने मुझे गिफ्ट दी है। मैं ओपन कर रही हूँ।” और मैंने आनन-फानन में गिफ्ट बॉक्स का चिकना रेपर फाड़ फेंका। अलबत्ता मैं हमेशा इत्मीनान से उस पर चिपके सेलोटेप निकालती हूँ ताकि रेपर का रीयूस किया जा सके। और फिर दनाक से बॉक्स भी खोल डाला।  

ओह …गिफ्ट बॉक्स क्या खुला?.. मानो समय तेजी से पीछे दौड़ पड़ा!.. मेरा बचपन फिर से जी उठा!.. स्मृतियाँ  सेल्फी लेने को आतुर हो उठीं ।…जैसे  ख़ुशी और आँसू  दोस्त बन बैठे।… पल भर में मैं कहाँ से कहाँ पहुँच गई!

वह एक ठीक ठाक बड़ा-सा हाल था, जिसके दरवाजे के बाहर जूते चप्पलों का अव्यवस्थित ढेर लगा था। बड़ी-बड़ी खिड़कियाँ थीं जिनमें ग्रिल नहीं लगी थी। नीला आसमान और हरा नीम मजे से हाल का जायजा ले रहे थे। अन्दर चार कतार में मेहरून पर दो पीले पट्टों वाली टाटपट्टियाँ बिछी थीं। बहुत से सांवले और काले, आदमी ही आदमी नंगे पैर  खड़े-खड़े बातें कर रहे थे। बातचीत का ख़ासा शोर था क्योंकि सभी का सुर ऊँचे तरफ ही था। ज्यादातर लोगों के सिर पर टोपी या पगड़ी थी। और बदन पर सफेद या मटमैले सफेद कुरते पजामें या धोती। कई पान या गुटका चबा रहे थे या मुँह में भरे हुए थे। मेरे सिवा वहाँ कोई लड़की थी ही नहीं। सिवाए जामुनी रंग और पतली लाल किनोर की लांग वाली धोती बांधे, नाक के दोनों तरफ बड़े-बड़े कांटे पहने, दोनों हाथों से झाड़ू की मूठ पकड़े कोने में ऊँकडू बैठी सफाईकर्मी बुढ़िया के अलावा। लोग, मेरे मामाजी के पास आ-आकर हाथ जोड़ रहे थे। गर्मजोशी से मिल रहे थे। हर कोई आते-जाते मेरे भी पैर छू रहा था क्योंकि मैं वहाँ सबकी भान्जी थी। 

हुआ यह था कि मैं माँ के साथ नानी के घर आई थी। गुमसुम-सी एक तरफ अकेली बैठी थी। मामा ने कहा था ‘चल बिट्टो, तुझे घुमा लाऊँ। और वे मुझे अपने साथ यहाँ ले आए थे। इस बड़े से हाल में। दरअसल मेरे ये दाढ़ीवाले बड़े मामाजी जिन सेठ करोड़ीमल के यहाँ मुनीम थे, उन्होंने परिचितों और स्टाफ के लिए, पुत्र प्राप्ति पर भोज रखा था। मामा उनके दाहिने हाथ थे।

“सरु आ यहाँ बैठ।” मामा ने मेरे सिर पर प्यार से हाथ फेरा। कुछ ही देर में हमारे सहित सभी लोग महरून टाटपट्टियों  पर बैठ गए।

“तूने कभी पंगत खाई है?” मामा ने मुझसे प्रश्न किया।

“ पंगत? पंगत  क्या कोई मिठाई होती है?” मैंने मासूमियत से पूछा था। जिसे सुन मामा ठठा के हँस पड़े थे। और अगल-बगल में बैठे लोगों को मेरा जवाबी प्रश्न सुना रहे थे। वे सब भी हँस रहे थे। ‘बताओ बच्ची को पता ही नहीं पंगत क्या होती है। हो.. हो…क्या जमाना आ गया है।’

तभी हमारे सामने पन्नियों की पेकिंग से जल्दी से निकाल-निकालकर बेहद चमचमाती थालियाँ, कटोरियाँ, गिलास और चम्मच फटाफट रख दिए गए। मैं देख रही थी पन्नियों को कहीं भी बेतरतीबी से फेंका  जा रहा था … जो मुझे अजीब लग रहा था। वह बुढ़िया उन्हें गुडी-मुड़ी कर बटोर रही थी। हमारे सामने रखे गए बर्तनों की अनोखी चमक ने मुझे चमत्कृत कर दिया। और उनसे परावर्तित होते बिम्बों ने जैसे मेरा मन मोह लिया।… खिड़की से आते प्रकाश के नीचे रखाती थाली पर पड़ने से यदा कदा चमचमा उठते चमकीले खिंचते गोलाकारी बिम्ब, कमरे की दीवालों और छत पर जगर मगर, छोटा-मोटा तिलिस्म सा रच रहे थे। मैं उन्हें भौचक सी देखती रह गई।.. मुझे लगा मानो चाँद थाली बन गया हो। और वह भी इतनी बार… मैं थालियों से अभिभूत थी।… और अचंभित भी।.. ‘क्या ये काँच की हैं?’ सोचते हुए मैं थाली को बार-बार उठा-उठा कर, घुमा-घुमाकर, उलटने-पुलटने लगी।.. फिर झुक-झुककर उसमें अपना चेहरा निहारने लगी।.. मुझे यह  बहुत अच्छा लगा था।…

बहुत से युवा लडके धड़-धडकर डोंगों और धामों में पूरी, सब्जी, लोंजी, रायता, मिठाई, परोसने आते तो मैं उनसे कहती ‘बीच में मत डालो’। मैं  चाहती थी कि में प्रिय चाँद थाली में अपना चेहरा और देर तक देखती रह सकूँ ।..पहली क्लास में पढ़ने वाली मुझ आठ साल की बच्ची  के लिए कितने, कितने अनमोल ख़ुशी के पल थे वे।… फिर सब लोगों ने संस्कृत में मंत्रोचार किया और एक साथ खाना शुरू हुआ। मामाजी थाली में से चुग्गा भर खाना बाहर की तरफ रखते और भोजन को पूजा-भाव से देखते हुए मुझे बता रहे थे ‘ये जो हम यूँ आलथी-पालथी बनाकर पंक्तियों में जमीन पर नीचे बैठकर भोजन कर रहे हैं न, इसे ही पंगत कहते हैं बिटिया’। पर मैं पंगत से ज्यादा चमचमाती थाली की दीवानी हो चुकी थी। मुझे लग रहा था खाने का इतना अच्छा स्वाद इस चमकीली थाली के कारण ही आ रहा है। मैंने उस दिन खूब छककर भोजन किया था। न सिर्फ थाली, कटोरियों को भी उँगलियों से चाट-चाट कर साफ़ कर दिया था। मेरा मन कर रहा था मामाजी से कहूँ  ‘अपन ये थाली घर ले चलें ?’

“क्या हुआ सारिका कहाँ खो गई? क्या गिफ्ट पसंद नहीं आई?” मेरे हाथ में कसकर पकड़ी हुई गिफ्ट में मिले सलेम स्टेनलेस स्टील के डिनर सेट की ‘चाँद-थाली’ को छुड़ाते हुए अनुराग ने पूछा।

“नहीं, मुझे गिफ्ट बहुत-बहुत पसंद आई है अनुराग। यह अब तक की दि बेस्ट गिफ्ट है। सबसे कीमती और अनोखी गिफ्ट। कहते हैं समय कभी लौट के नहीं आता। पर तुम तो मेरे लिए  ऐसी गिफ्ट लाए हो जिसमें स्वयं समय ही पैक है। …कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन।… सचमुच तुमने मुझे बीते हुए दिन की सौगात लौटाई है।… वो बचपन की कश्ती वो बारिश का पानी की तरह… वो  ‘पंगत का भोजन वो चमचमाती चाँद थाली’ दे दी है।  अहा! अद्भुत और कभी न भूलने वाली है यह गिफ्ट।” कह मैं उससे फिर लिपट गई।

ख़ुशी की तरंगो की पुन: हुई सवारी। मेरे मन के चिदाकाश से एक एक कर सभी अनुमानित गिफ्ट विदा हो गईं।… गोल्ड इयरिंग के छल्ले गायब हो गए।… हैदराबादी नेकलेस की तीन लड़ों के मोती बिखर कर तिरोहित हो गए।… सिल्क साड़ी का सुआपंखी रंग धुंधला गया।… पश्चिमी परिधान तो ध्यान ही नही आया।…  रह गई तो बस बचपने में विशुद्ध निखालिस चमचमाहट वाली ‘चाँद-थाली’ में खाई पंगत की याद!

© डा. किसलय पंचोली

संपर्क – प्राध्यापक, वनस्पति शास्त्र शासकीय होलकर विज्ञान महाविद्यालय इंदौर (म.प्र.) एफ 8, रेडियो कालोनी, इंदौर (म.प्र.)  

मो. –  9926560144 ,

ईमेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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Sanjeeda Iqbal

Really very nice story .