॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ क्रोध ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

अनेकों प्रमुख मनोविकारों में क्रोध भी एक है। क्रोध मन मस्तिष्क और शरीर तथा व्यवहारों पर गहरा असर डालता है। सबको अनुभव होता है कि क्रोध से बनता हुआ काम भी बिगड़ जाता है। ये और बात है कि कभी क्रोध के कारण दूसरे के मन में उत्पन्न हुये भय से भयभीत होकर व्यक्ति, क्रोधी की कामना के आगे आत्मसमर्पण कर देता है किन्तु समर्पण करने वाले के मन में क्रोधी के प्रति दुर्भावना बढ़ जाती है एवं उससे बदला लेने की भावना भी जाग जाती है। कभी-कभी यह भावना बहुत तेज हो जाती है। जो वर्षों तक बनी रहती है। वर्षों बाद मौका मिलते ही बदला ले लिये जाने का प्रयास होता है। ऐसी घटनाओं से इतिहास भरा पड़ा है।

इच्छानुकूल कार्य न होने के कारण व्यक्ति के मन में क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध आने पर शरीर में जैसे आग लग जाती है, सोचने विचारने की शक्ति गायब हो जाती है। सही गलत की पहचान करने की शक्ति क्षीण हो जाती है। इसीलिये कभी देखा जाता है कि क्रोध में आदमी अपना सिर स्वयं दिवार पर पटक लेता है हाथ में कोई कीमती वस्तु हो तो भी उसे फेंक कर तोड़ डालता है। द्वेष में आकर अन्य व्यक्ति को मारता पीटता और सीमा से अधिक क्रोध में फंस कर मार डालने की न केवल बातें करता है वरन वैसा ही व्यवहार भी कर डालता है। क्रोध घोर अनर्थकारी होता है जो जीवन में अचानक उद्वेग लाकर प्राय: अनुचित व्यवहार करने की प्रबल प्रेरणा जगाता है। क्रोध का मनोविकार हर व्यक्ति या प्राणी में भिन्न-भिन्न वेग का होता है। मनुष्य में ही नहीं पशु पक्षियों में भी क्रोध का आवेग देखा जाता है। इसलिये उनमें आपस में लड़ाई होने लगती है। क्रोध के कारण ही दो देशों के बीच वैमनस्य और युद्ध होते हुये देखे जाते हैं। विश्वयुद्धों का मूल कारण एक राष्ट्र की इच्छा के अनुसार दूसरे का कार्य न करना ही रहा है और परिणामत: दूसरे विश्वयुद्ध में परमाणु बम के प्रयोग से जापान में याकोहामा और नागासाकी का घोर विध्वंस हुआ। जिसने मनुष्य जाति को दहला दिया है और युद्ध के विपरीत शांति की सोच की ओर मोड़ दिया है। इस समझदारी से 24 अक्टूबर 1945 को विश्व की महाशक्तियों ने मिलकर संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना की जिससे भविष्य में विश्वयुद्ध की पुनरावृत्ति न हो।

क्रोध सदा ही व्यक्ति, समाज, राष्ट्र या विश्व में मनुष्य जाति का अहित करता आया है। यदि मन में आवेग पर अधिकार रखा जा सके तो क्रोध को रोका जा सकता है। क्रोध को रोकने के लिये आत्मनियंत्रण को सबल बनायें। क्रोध आने के पहले ही समझदारी और चिंतन से ऐसा किया जाना संभव है। क्योंकि एक बार क्रोध का आवेश अचानक आ जाने पर तुरंत कोई उपाय काम नहीं करता। क्रोध में न सोच विचार किया जा सकता है न ही उसे तुरंत रोका जा सकता है। समझदारी जरूरी है। निम्न उपायों से क्रोध को रोकने का प्रयास किया जाना चाहिये।

  1. क्रोध बुरा है इसलिये इसे उत्पन्न ही न होने दें, ऐसे मनोभाव बनायें जावें। सुंदर सुखद काल्पनिक दृश्यों का व सुन्दर मनोअंकन किया जावे।
  2. क्रोध रोकने हेतु स्वत: को ऐसे प्रिय कार्य में व्यस्त रखने का प्रयास करें जिससे मन प्रसन्न हो अपनी हॉबीज में मन लगायें।
  3. मन को कुछ पढऩे या सुखद अनुभव दे सकने वाले कार्य करने की बात सोचें और मन को बहलाकर रखें।
  4. जहां अप्रिय क्रोधदायी घटना की संभावना दिखे वह स्थान छोडक़र किसी जलाशय, प्रिय प्राकृतिक स्थल या रमणीक कलात्मक कलावीथी की ओर जाकर मन के भाव को नया मोड़ दें।
  5. मित्रों सहयोगियों या संबंधियों के साथ सुखद वार्तालाप में लिप्त होकर क्रोध की संभावित स्थिति को टाल दें।
  6. पुराने इस कथन में भी बड़ी सच्चाई है कि क्रोध आने पर पानी पियें। दस तक गिनती गिने या जीभ को दबाकर मन में ईश्वर का ध्यान करें।

योग के द्वारा मन की चंचलता को रोककर बुराई से बचने का उपदेश बहुत सही और परिणामदायी कहा गया है। किसी भी स्थिति में क्रोध को उत्पन्न ही न होने देने का प्रयास करें।

 © प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

 ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, म.प्र. भारत पिन ४६२०२३ मो ७०००३७५७९८ [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

image_print
0 0 votes
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments