सुश्री इन्दिरा किसलय

☆ व्यंग्य ☆ अदना सा मुखौटा भारी है ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

टेरेस पर पतंग लूटने आये थे कुछ किशोर। वे सारे मुखौटाधारी थे। कोई ड्रैक्यूला,कोई भूत तो कोई राक्षस।

मैंने चिढ़कर कहा–होली है क्या?हद कर दी तुम लोगों ने। संक्रान्ति और मुखौटे !

उनमें से एक बोला–आंटी मुखौटे पहनने का भी कोई खास मौसम होता है क्या !और फिर ओरिजनल चेहरा लेकर लूटमार की जा सकती है क्या ?आप शायद फिल्में नहीं देखतीं—-सारे डाकू डुकू काले कपड़े से चेहरा क्यों ढंकते हैं। कोई तो बात होगी।

मुझे यकीन हो गया कि बच्चे वक्त के पहले जवान ही नहीं बूढ़े भी होने लगे हैं। कितनी गहरी बातें। मैंने उन्हें झापा(डाँटा)–पतंग लो और चलते बनो। अच्छे घर के लगते हो फिर भी कटी पतंग के पीछे पड़े हो।

फिर दूसरा बच्चा बोला –जो मजा लूटने में है, वो ईमानदारी से खरीदने में कहाँ।

मेरा सारा ध्यान मुखौटे पर केन्द्रित हो गया। सच है मुखौटा धारण करने के वास्ते मुहूर्त नहीं निकलवाना पड़ता। यह तो बारहमासी प्रोग्राम है। सहसा याद आई अखबार की वो कतरन जिसमें छपा था—फलां फलां वेबसाइट पर मुखौटों से जुड़ी सारी जानकारी उपलब्ध है। कितनी तरह के होते हैं। किन किन चीजों से बनाये जाते हैं और हर मुखौटे के पीछे का कॉन्सेप्ट भी। अगर आपके पास भी कोई मुखौटा हो तो उसे पेश करें।

लगा कि वेबसाइट बनाने वाला थोड़ा सा अहमक है या डरपोंक। ऐसा हो नहीं सकता कि वह अदृश्य मुखौटों के बारे में जानता न हो। पर क्या करे बेचारा। आ बैल मुझे मार,कौन करे।

मुखौटा रक्षा कवच है। चिलखत की तरह पहन लेते हैं लोग। भूगर्भीय हलचल की तरह न दिखाई देनेवाले लड़ाई के मैदान में। कुछ कर्ण के कवच कुंडलों की तरह मुखौटों के साथ पैदा होते हैं। कुछ मजबूरी में धारण करते हैं। कोई अपने वीभत्स चेहरे को ढंकने के लिये इस्तेमाल करता है। मेमने, हिरन, और गाय के मुखौटे बनाने की जरूरत ही नहीं पड़ती।  80%प्रजाति मौलिक रूप से ऐसी है। कुछ जादुई मुखौटे धारणकर्ता को संसद तक पहुँचा देते हैं। कुछ बाबाजी के रूप में भगवान बना देते हैं।

किसी का काम एक मुखौटे से चल जाता है तो किसी को बार बार बदलना पड़ता है। आहिस्ता आहिस्ता वे इसमें प्रवीण हो जाते हैं।

कुछ मुखौटाधारी अच्छे खासे लोगों को उल्लू बना देते हैं। तो कुछ उल्लुओं को गधा बनाकर दम लेते हैं, जो दरबार में उम्र भर चीपों चीपों करते रहते हैं। कुछ को मैंने बगुलाबाबा की चोंच लगाकर फिरते देखा है। मुखौटे का नशा कोकीन से कम नहीं।

दृश्य और अदृश्य मुखौटे में अंतर तो होता है। दोनों का मकसद और असर एक सा नहीं होता। कभी कभी भेड़िए का मुखौटा लगानेवाले को हम  मानव समझने की गलती कर बैठते हैं क्योंकि वह अदृश्य होता है। यह अटकलें लगाने की सुविधा प्रदान करता है। हम बरबस गिरगिट को याद कर रहे होते हैं। महाज्ञानी का मुखौटा चिपकाकर कुछ लोगों ने खुद मरे बिना स्वर्ग और नर्क का टूर कर लिया। बचपन में कठपुतली का खेल देखा था–अत्याचारी सास,शराबी पति,लुटेरा साहूकार,कामचोर बहू आदि को उनके गुनाहों के अनुपात में कैसे कोड़ों से कूटते हैं, या खौलते

तेल की कड़ाही में तलते हैं- यमदूत।  लोग आज भी महाज्ञानियों के मुखौटे उतारने की बजाय पायलागूं करते हैं।

21वीं सदी ने मार्स मिशन की कामयाबी से बड़ा तोहफा दिया है। सम्मोहन का ऐसा जाल बिछाया है कि लोग असली चेहरा और मुखौटे का अन्तर ही भूल बैठे हैं। उन्हें मुखौटा ही असली चेहरा लगने लगा है। कभी भूल से मुखौटे को पहचान भी जायें तो उतारने की कला  नहीं आती (कला सीख भी लें तो भूतों की तरह डर पीछा करता है)कहने की जरूरत नहीं कि उतारें भी तो किस किस के चेहरे से।

एकदम ताजा खबर हाथ लगी है। बेरोजगारों की बारात में कुछ लोग मंत्रियों और मुख्यमंत्री का मुखौटा लगाकर पहुँचे। जिसने छेड़छाड़ मंत्री का मुखौटा पहना था उसे भगा दिया गया। वह सिर पर पाँव धरकर भागा। इस परम धार्मिक आयोजन में समस्त बेरोजगार कौम का सम्मान किया गया। साथ ही रोजगार का आश्वासन भी दिया गया। दूल्हे को हल्दी लगाई गयी। चूना तो सरकार पहले ही लगा चुकी है।

मुखौटों पर रिसर्च करने बैठे कोई तो सारी उम्र खर्च हो जाये। नेता बिरादरी के पास तो मुखौटों की टकसाल है। आम आदमी अपने लुंज पुंज टटपुंजिए मुखौटे के साथ यही सोचता रहता है, जान बची और लाखों पाये।

कहने की जरूरत नहीं कि बड़ी बड़ी वैज्ञानिक खोजों पर अदना सा मुखौटा भारी है।।

©  सुश्री इंदिरा किसलय 

20/1/2023

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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