श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव
(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ “जय प्रकाश के नवगीत ” के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “माटी खूब महकती है…”।)
जय प्रकाश के नवगीत # 108 ☆ माटी खूब महकती है…☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆
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गाँव अभी भी
अपने जैसे लगते हैं ।
माना थोड़ी
हवा लगी है शहरों की
पर माटी की
ख़ुशबू खूब महकती है
थोड़े अपनी
आँखों में सपने पाले
हँसी चिरैया
होंठों बीच चहकती है
आँगन अब भी
नहीं पराए लगते हैं ।
खिंची दिवारें
नहीं बँटे रिश्ते नाते
मन की चौखट
लाँघ हुआ करतीं बातें
तारों वाली
ओढ़ रज़ाई नभ नीचे
खाट-खटोला
और चाँदनी की रातें
चूल्हे सुलगे
प्यार दुलार मचलते हैं ।
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© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव
सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)
मो.07869193927,
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈