डॉ कुंदन सिंह परिहार
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम विचारणीय व्यंग्य – ‘गांधी बाबा का रास्ता‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 291 ☆
☆ व्यंग्य ☆ गांधी बाबा का रास्ता ☆ डॉ. कुन्दन सिंह परिहार ☆
गांधी मैदान में गहमागहमी है। छात्रों का झुंड चार पांच दिन से धरने पर बैठा है, लेकिन कोई सुनवाई नहीं हो रही है। छात्र हंगामा नहीं करते, बस बैठे बैठे नारे लगाते रहते हैं या रामधुन गाते हैं। हाथों में अपनी मांगों के प्लेकार्ड लिये हैं।
छात्रों की शिकायतें अनेक हैं। बार-बार नौकरी की परीक्षा के पेपर लीक होते हैं, पद खाली होने पर भी अनेक वर्षों तक वे विज्ञापित नहीं होते। भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद का बोलबाला है। ज़्यादा हंगामा करने पर शासन की लाठी चलने लगती है। हाथ-पांव टूटने और जेल जाने की नौबत आ जाती है। इसीलिए छात्र शान् जोतिपूर्वक धरना दे रहे हैं।
तीस चालीस पुलिसवाले उन पर नज़र रखें शेड में बैठे हैं। वे परेशान हैं। कब तक इन पर नज़र रखें? किसी तरह समस्या का निपटारा हो और धरना टूटे। शेड के नीचे बैठे बैठे झपकियां लेते हैं। छात्रों पर गुस्सा आता है। पता नहीं कब तक यहां फंसे रहेंगे।
दो तीन परेशान पुलिसवाले छात्रों के पास आकर खड़े हो गये हैं। एक कहता है, ‘यह कौन सा तरीका है? कुछ उपद्रव करो तो सुनवाई हो। वो एक शायर ने लिखा है, एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो। ऐसे बैठे रहने से क्या फायदा?’
छात्र जवाब देता है, ‘हम गांधी के शान्तिपूर्ण विरोध और अहिंसा के रास्ते पर चल रहे हैं।’
पुलिसवाला कहता है, ‘गांधी जी यही सब ऊटपटांग बातें सिखा गये हैं। ऐसे बैठे रहने से कोई नहीं सुनने वाला। खुद भगवान राम कह गये हैं कि बिना भय पैदा किये प्रीत नहीं होती। कुछ हल्ला- गुल्ला करो तो बड़ों के कान तक बात पहुंचे।’
छात्र कहता है, ‘हम सब समझते हैं। तुम चाहते हो कि हम उपद्रव करें और तुम्हें लाठी भांज कर हमें खदेड़ने का मौका मिले। हम तुम्हारे जाल में नहीं फंसने वाले।’
पुलिसवाले मुंह बनाये वहां से विदा हो गये।
दो-तीन दिन और ऐसे ही निकल गये। पुलिसवालों का धैर्य चुकने लगा। अचानक एक रात एक समूह कहीं से प्रकट हुआ और पुलिस की तरफ पत्थरबाज़ी शुरू हो गयी। पुलिस तत्काल हरकत में आयी और वॉकी-टॉकी पर फटाफट संदेशों का आदान-प्रदान होने लगा। पत्थर फेंकने वालों का समूह रहस्यमय ढंग से ग़यब हो गया।
ऊपर से आदेश मिलते ही पुलिस वाले लाठियां लेकर छात्रों की तरफ दौड़े और जल्दी ही वहां अफरातफरी मच गयी। छात्रों को दूर तक खदेड़ दिया गया और मैदान खाली हो गया।
छात्रों से बात करने वाले पुलिसवाले अब आपस में वार्तालाप कर रहे थे— ‘हमने समझाया था, लेकिन समझ में नहीं आया। अब गांधी बाबा के रास्ते पर चलना है तो गांधी बाबा की तरह भोगो।’
© डॉ कुंदन सिंह परिहार
जबलपुर, मध्य प्रदेश
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈
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धन्यवाद, बिष्ट जी।