डॉ कुंदन सिंह परिहार
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम विचारणीय व्यंग्य – ‘कि रानी बेटी राज करेगी ‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 289 ☆
☆ व्यंग्य ☆ कि रानी बेटी राज करेगी ☆
एक पुराना मशहूर फिल्मी गीत है— ‘खुशी-खुशी कर दो विदा, कि रानी बेटी राज करेगी।’ सोचने पर सवाल उठता है कि रानी बेटी के ‘राज’ करने का अर्थ क्या है? रानी बेटी कैसे राज करेगी और किस पर राज करेगी? जो समझ में आता है वह यह है कि रानी बेटी ऐसे घर में जाए जहां चार छः सेवक उसकी सेवा में रहें, काम-धाम कम से कम करना पड़े, हाथ-पांव कम से कम चलाना पड़े। गाव-तकिये पर टिकी हुकुम चलाती रहे। तिनका भी न तोड़ना पड़े। पुराने ज़माने में रानियां पालकी पर चलती थीं जिन्हें सेवक ढोते थे। यह नज़रिया दिखाता है कि श्रम के प्रति हमारा सोच क्या है।
हमारे दर्शन के अनुसार सबसे सुख की स्थिति वह है जिसमें काम कम से कम करना पड़े। भगवान ने हाथ-पांव भले ही चलने और काम करने के दिये हों, लेकिन उनका जितना कम उपयोग हो उतना अच्छा। फालतू पड़े रहने के कारण उन में ज़ंग लगे तो लगे। हाथों की हथेलियां और पैरों की गदेलियां गुदगुदी, साफ़ और मक्खन सी मुलायम बनी रहें। उनमें न घट्टे पड़ें, न कालिख लगे। लेकिन अगर सभी बेटियां रानी बनने लगें तो फिर काम कौन करेगा? ‘तू भी रानी, मैं भी रानी, कौन भरेगा पानी?’
हमारे देश में अपने हाथ से काम करना घटिया और बेइज़्ज़ती की बात समझी जाती है। दफ्तर में फ़ाइल ले जाने का काम चपरासी ही करेगा। चपरासी नहीं है तो फ़ाइल बाबू साहब की टेबिल पर पड़ी रहेगी, भले ही साहब का कमरा बगल में हो। कहते हैं नवाब वाजिद अली शाह अंग्रेज़ों से बचकर इसलिए नहीं भाग सके थे कि उनकी जूती सीधी करने वाला कोई नहीं था। नवाब साहब खुद ही अपनी जूती सीधी करने लगें तो नवाब कैसे?
अंग्रेज़ी शब्दकोश में एक शब्द ‘व्हिपिंग बॉय’ मिलता है। ये वे लड़के होते थे जिन्हें राजपुत्रों के साथ स्कूल भेजा जाता था ताकि राजपुत्रों से कोई गलती होने पर उसकी सज़ा इन लड़कों को दी जा सके। मास्टर साहब राजपुत्रों पर हाथ नहीं उठा सकते थे। ये लड़के राजपुत्रों के एवज में पिटने के लिए स्कूल भेजे जाते थे।
आपको बहुत से लोग अपने बाप- दादा की तारीफ में यह कहते मिल जाएंगे कि उन्होंने कभी अपने हाथ से लेकर पानी नहीं पिया। एक पति की गाथा सुनी थी जो अपने मकान की दूसरी मंज़िल पर आराम फरमाते थे और प्यास लगने पर सबसे निचली मंज़िल से पत्नी को बुलाते थे ताकि पत्नी उनकी बगल में रखे घड़े से पानी निकाल कर उन्हें दे।
गांव में जब पुराने ज़माने में ‘पंगत’ यानी समूह-भोज होता था तो सामान्य लोग अपने-अपने लोटा गिलास लेकर जाते थे, लेकिन हैसियत वाले लोगों के पीछे उनका सेवक लोटा- गिलास लेकर चलता था। एक रईस का किस्सा याद आता है जो शौचालय से लौटने के बाद (उन दिनों फ्लश सिस्टम नहीं था) सेवक को मुआयना करने के लिए भेजते थे और सेवक की रपट के आधार पर ही उनकी उस दिन की भोजन-व्यवस्था होती थी। यदि सेवक रपट देता कि उस दिन की उनकी उपलब्धि संतोषजनक नहीं है तो भोजन मुल्तवी भी हो सकता था।
हमारे देश को विश्व में सस्ते श्रम का स्वर्ग माना जाता है, इसलिए जिन बेटियों के पास खर्च करने के लिए पैसा है वे आराम से रानी बनकर रह सकती हैं। यहां महीने में आठ दस हज़ार के खर्च पर चार छः सेवक आसानी से रखे जा सकते हैं।
मुद्दा यह है कि यदि सभी बेटे- बेटियां अपनी हथेलियों को साफ़ और मुलायम बनाये रखने की सोचने लगें तो फिर रोज़मर्रा का कामकाज कैसे चलेगा? अभी हमारे देश का काम इसलिए चल रहा है क्योंकि कुछ बेटे-बेटियां राजकुमार और राजकुमारी बनने की दौड़ में नहीं हैं। इसलिए बेहतर होगा कि बेटियों को ‘राज’ करने के बजाय ‘काज’ करने की सीख दी जाए।
फिल्म ‘पाक़ीज़ा’ में पाकीज़ा का प्रेमी ट्रेन में उसके पांव देखकर पुर्ज़ा छोड़ जाता है —‘आपके पांव देखे। बहुत हसीन हैं। इन्हें ज़मीन पर मत उतारिएगा। मैले हो जाएंगे।’ लेकिन पांव ज़मीन पर न उतरें और मैले न हों तो ज़िन्दगी की गाड़ी आगे कैसे बढ़ेगी?
© डॉ कुंदन सिंह परिहार
जबलपुर, मध्य प्रदेश
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈