श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
(हमप्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के आभारी हैं जो साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं।
आज प्रस्तुत है आपके द्वारा श्री शारदा दयाल श्रीवास्तव जी द्वारा लिखित “ज्ञान गंगा में गधों का आचमन” पर चर्चा।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 180 ☆
☆ “ज्ञान गंगा में गधों का आचमन” – व्यंग्यकार… श्री शारदा दयाल श्रीवास्तव ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
पुस्तक चर्चा
कृति – ज्ञान गंगा में गधों का आचमन
लेखक – श्री शारदा दयाल श्रीवास्तव
प्रकाशक – ज्ञानगंगा प्रकाशन भोपाल
पाठक व्यंग्यकार के साथ उसकी लेखन नौका पर सवार होकर रचना में अभिव्यक्त विसंगतियों के प्रवाह के सर्वथा विपरीत दिशा में पाठकीय सफर करता है। यह लेखक के रचना कौशल पर निर्भर होता है कि वह अपने पाठक के व्यंग्य विहार को कितना सुगम, कितना आनंदप्रद और कितना उद्देश्यपूर्ण बना कर पाठक के मन में अपनी लेखनी की और विषय की कैसी छबि अंकित कर पाता है। व्यंग्य रचना का मंतव्य समाज की कमियों को इंगित करना होता है। इस प्रक्रिया में लेखक स्वयं भी अपने मन के उद्वेलन को व्यंग्य रचना लिखकर शांत करता है। जैसे किसी डॉक्टर को जब मरीज अपना सारा हाल बता लेता है, तो इलाज से पहले ही उसे अपनी बेचैनी से किंचित मुक्ति मिल जाती है। उसी तरह लेखक की दृष्टि में आये विषय के समुचित प्रवर्तन मात्र से व्यंग्यकार को भी रचना सुख मिलता है। व्यंग्यकार समझता है कि ढ़ीठ समाज उसकी रचना पढ़कर भी बहुत जल्दी अपनी गति बदलता नहीं है पर साहित्य के सुनारों की यह हल्की हल्की ठक ठक भी परिवर्तनकारी होती है। व्यवस्था धीरे धीरे ही बदलतीं हैं। साफ्टवेयर के माध्यम से विभिन्न क्षेत्रो में जो पारदर्शिता आज आई है, उसकी भूमिका में भ्रष्टाचार के विरुद्ध लिखी गई व्यंग्य रचनायें भी हैं। शारीरिक विकृति या कमियों पर हास्य और व्यंग्य अब असंवेदनशीलता मानी जाने लगी है। जातीय या लिंगगत कटाक्ष असभ्यता के द्योतक समझे जा रहे हैं, इन अपरोक्ष सामाजिक परिवर्तनों का किंचित श्रेय बरसों से इन विसंगतियों के खिलाफ लिखे गये साहित्य को भी है। रचनाकारों की यात्रा अनंत है, क्योंकि समाज विसंगतियों से लबालब बना रहता है। सच्चे व्यंग्यकार को हर सुबह अखबार पलटते ही नजरों के सामने विषय तैरते नजर आते हैं।
लेखक शारदा दयाल श्रीवास्तव ने अपने पहले व्यंग्य संग्रह ‘ज्ञान गंगा में गधों का आचमन’ की पाण्डुलिपि पढ़ने और उस पर कुछ लिखने का अवसर मुझे दिया। पाण्डुलिपि 41 सम सामयिक व्यंग्य लेखों का संग्रह है। मैने आद्योपांत सभी रचनायें पढ़ीं। जहां कुछ लेखों में ब्याज स्तुति है, वहीं कई लेखों का कलेवर अभिधा में वर्णनात्मक भी है। वाक्य विन्यास और भाषा ग्राह्य है। वाक्यों में व्यंग्य का संपुट है। विषयों का चयन रचनाकार के परिवेश के अनुरूप और समसामयिक है। अभिव्यक्ति का सामर्थ्य लेखक की कलम में है। लेख छोटे और सारगर्भित हैं। रचनाकार का अध्ययन उनकी अभिव्यक्ति में परिलक्षित होता है। प्रासंगिक संदर्भों में उन्होंने लोकोक्तियों, कहावतों, फिल्मी गीतों के मुखड़ो और साहित्यिक रचनाओ से उद्धवरण भी लिये हैं। सामाजिक बदलाव तथा राजनीति के प्रति जागरुक श्रीवास्तव जी ने उनको नजर आती विसंगतियों पर लिख कर अपना आक्रोश पाठको के सम्मुख रखा है। रचनाओ के शीर्षक छोटे और प्रभावी हैं। किसी रचना का शीर्षक वह दरवाजा होता है जिससे पाठक व्यंग्य में प्रवेश करता है। शीर्षक पाठकों को रचनाओ तक सहजता से आकर्षित करता है। शीर्षक सरल, संक्षिप्त और जिज्ञासावर्धक होना चाहिये। वस्तुतः जिस प्रकार जब हम किसी से मिलते हैं तो उसका चेहरा या शीर्ष देखकर उसके संपूर्ण व्यक्तित्व के विषय में अपने पूर्व अनुभवों के अनुसार एक अनुमान लगा लेते हैं। धारणा निर्माण की यह अव्यक्त मौन प्रक्रिया अप्रत्यक्ष स्वयमेव होती है। ठीक इसी प्रकार शीर्षक को पढ़कर व्यंग्य के अंतर्निहित मूल भाव के विषय में पाठक एक अनुमान लगा लेता है। सामान्य सिद्धांत है कि शीर्षक छोटा होना चाहिए लेकिन लेख की समग्र अर्थाभिव्यक्ति की दृष्टि से अधूरा नहीं होना चाहिए। मुहावरों, लोकोक्तियों लोकप्रिय फिल्मी गीतों या शेरो शायरी के मुखड़ो को भी शीर्षक के रूप में प्रयोग किया जाता है। इस किताब के प्रायः लेखों के शीर्षक निर्धारण में मुझे यह गुणवत्ता दृष्टिगत हुई।
किताब के पहले ही व्यंग्य ‘मेरा देश मेरा भेष’ में ब्याज स्तुति का प्रयोग कर विदेशों के प्रति अनुराग पर कटाक्ष करने में रचनाकार सफल रहे हैं। सड़को के स्पीड ब्रेकर को लेकर वे लिखते हैं ‘जनता के, जनता के लिये, जनता द्वारा निर्मित कूबड़ की तरह उभरे स्पीड ब्रेकर हैं’। मुझे नहीं पता कि श्रीवास्तव जी ने व्यक्तिगत रूप से अमेरिका यात्रा की है या अपने अध्ययन के आधार पर वे लिखते हैं ‘यदि अमेरिका पूछे कि मेरे पास सैन्यबल है, हथियार हैं, रोजगार हैं, इकोनॉमी है, टेक्नोलॉजी है,,,,, क्या है तुम्हारे पास ???’
दो टूक जवाब है- ‘मेरे पास भारत माँ है।’
भविष्य की कल्पना करने में श्रीवास्तव जी पारंगत प्रतीत होते हैं ‘सम्भव है कल को चंद्रयान के लैंडिंग स्पाट शिवशक्ति पाइंट पर भव्य शिव महालोक का निर्माण हो, फिर हमारे नेता मतदाताओ को वहां की मुफ्त यात्रा की रेवड़ी बांटते दिखें’।
पेंशनधारियों के लिये जीवन प्रमाणपत्र एक अनिवार्य सरकारी वार्षिक प्रक्रिया है, इस विसंगति पर कई व्यंग्यकारों ने अपनी अपनी क्षमता के अनुसार व्यंग्य किये हैं। ‘जिंदगी से लिपटा जीवन प्रमाण’ में श्रीवास्तव जी ने भी इस मुद्दे को उठाया है ‘पेंशनर हार कर अफसर से पूछता है, तुम्हीं बताओ कि मुझे लिविंग मेटेरियल कैसे मानोगे? अफसर जबाब देता है कि साथ में लाईफ सर्टिफिकेट लेकर चल रहे हो तो जिंदा हो तुम’ वे लेख में जावेद अख्तर के फिल्मी गीत ‘दिलों में अपनी बेताबियाँ लेकर चल रहे हो तो जिंदा हो तुम, नजर में ख्वाबों की बिजलियाँ लेकर चल रहे हो तो जिंदा हो तुम’ का भी प्रासंगिक उपयोग कर विषय बढ़ाते हैं।
खिचड़ी पर उन्होंने एक धारदार व्यंग्य लिखा है। ‘हिंदी में अँग्रेजी मिला दो तो भाषा की खिचड़ी बन जायेगी, … चुनाव में बहुमत न मिले तो मिली जुली सरकार की खिचड़ी’।
संग्रह का सबसे छोटा लेख आलस्य महोत्सव है। उन्होंने आलस्य को समृद्धि की कुंजी बताया है।
ताश के पत्तों पर साहित्य में बहुत कुछ लिखा गया है, ताश के पत्ते तो खुशनसीब हैं यारों बिखरने के बाद कोई उठाने वाला तो है। श्रीवास्तव जी लिखते हैं ‘ताश की गड्डी पूरा मुल्क है, बादशाह, बेगम, गुलाम, विधानपालिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका। इक्का जनप्रतिनिधि है। चारों बादशाहों के चार दल हैं। कटाक्ष देखिये ‘जोकर निर्दलीय है जो किसी की भी सरकार बना सकता है। ‘जोकर पानी की तरह है जिस बर्तन में डालो उसका आकार ग्रहण कर ले।’
विवाह हमारे समाज में हमेशा से एक बड़ा आयोजन रहा है। ब्याह चालीसा, नृत्य विवाहिका, दही हांडी और सरकारी गोविंदा, आदि रचनाओ में लेखक ने अपने तरीके से व्यंग्य के पंच चलाये हैं। माल, माया और मुहब्बतें, दो पैग जिंदगी के प्रभावी रचनायें है। स्वप्न का सहारा लेकर …. निठल्ले की परलोक यात्रा का बढ़िया प्रयोगवादी कल्पना व्यंग्य वर्णन है। लंदन ठुमकदा, बेशर्म रंग आदि लोगों की जुबान पर चढ़े हुये फिल्मी गीतों का अवलंबन लेकर रचे गये व्यंग्य हैं।
कुछ लेखों की पंच लाइने पढ़ें ‘मनुष्य में मस्तिष्क का विकास होते ही उसकी रीढ़ कमजोर होने लगी’, सब मिथ्या है यह जगत भी, जन्म पत्री भी और मुहूर्त भी,’ विदेश यात्रा के प्रति मध्यवर्ग के अतिरिक्त अनुराग पर व्यंग्य करते हुये कटाक्ष करते हुये वे लिखते हैं ‘चैक इन लगेज में लगी स्लिप तो जैसे अटैची का सुहाग है।’
जब कोई प्रभावी नेता कुछ कहता है तो उसे बहुत सोच समझ कर बोलना चाहिये, क्योंकि समाज पर उसके दीर्घगामी परिणाम होते हैं। जैसे ‘आपदा में अवसर’ की टैग लाइन से समाज में संवेदना का हास हुआ दिखता है। इसी तरह लेखकीय दायित्व भी है कि रचनाओ में बड़ी जिम्मेदारी से कुछ लिखा जाये, क्योंकि साहित्य दीर्घ जीवी होता है। श्रीवास्तव जी के लेखों में यह जिम्मेदारी दिखती है। आपदा में अवसर का अवलंब लेकर उन्होंने ‘उत्सव मेंअवसर ‘रचना लिखी है। पंच लाइन देखिये राष्ट्रीय दिवसों की उत्सव धर्मिता पर वे लिखते हैं ‘फेसबुक पर डी पी तिरंगी कर लें… भारत माता को इससे ज्यादा क्या चाहिये?’ समाज में व्याप्त शो बिजनेस पर अच्छा कटाक्ष है।
शीर्षक लेख ‘ज्ञान गंगा में गधों का आचमन ‘में उन्होंने ‘नौ नकद न तेरह उधार’ के समानांतर मुहावरा ‘लेना एक न देना दो ‘का प्रयोग कर उनकी प्रखर बुद्धि का परिचय दिया है।
कुल जमा मेरा अभिमत है कि व्यंग्य जगत को शारदा दयाल श्रीवास्तव के इस प्रथम व्यंग्य संग्रह का स्वागत करना चाहिये। अध्ययन तथा समय के साथ निश्चित ही उनका अनुभव संसार और विशाल होगा। अभिव्यक्ति क्षमता में लक्षणा तथा व्यंग्य की शैलियो के नये प्रयोग एवं विषय चयन में व्यापक कैनवास से उनकी लेखनी में और पैनापन आयेगा। वे संभावनाओ से भरपूर व्यंग्यकार हैं। मेरी समस्त शुभ कामनायें उनके रचना कर्म के साथ हैं।
चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार
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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈