श्री आशिष मुळे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात # 11 ☆

☆ कविता ☆ “हिम्मत…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

आज ऐसी उदास बैठी क्यों हो?

बहारों के मौसम में धाल पत्ते क्यों रहीं हों

ए मेरी जां क्या आज हारी हिम्मत हो

या गिरे हुए पत्तों से हिम्मत जुटा रहीं हो ।

 

मै भी हारता हूँ  हिम्मत कभी कभी

फिर सोचता हूँ क्या है कीमत उसकी

मगर अफसोस वह खरीद नहीं सकते

गिरे हुए पत्ते फिर चिपका नहीं सकते ।

 

फिर मैं समझा हिम्मत कभी आती नहीं हैं

ना ही कभी वो जुटाई जाती है

जब जब जीने की ख़्वाहिश पेड़ की बढ़ती है

हिम्मत उसकी पत्तों की तरह फिर से उगती है ।

 

बुझते हुए अंगारों से जैसे उठती अग्नि है

हिम्मत उसी तरह बुझते हुए दिल से उभरती है

उस आग को कभी बुझने नहीं देना

इच्छा की आहुति अंगारों में न देना ।

 

जब जब तुम्हारी पतझड़ होगी

तब मेरी ये कविता पढ़ लेना

मेरा प्यार मैंने उसमे फूंक दिया है

जिससे प्रज्वलित बुझते अग्नि को कर देना ।

© श्री आशिष मुळे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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