श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता रुखसत हो गयी जिंदगी। ) 

 

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 38 ☆

☆ रुखसत हो गयी जिंदगी 

 

रुखसत हो गयी जिंदगी बहार के इंतज़ार में,

मैं खुद ही खुद का मेहमान हो गया जिंदगी में ||

 

कैसे खिदमत करूं खुद की कुछ समझ नहीं आता,

जवाब देते नहीं बना,कैसे आना हुआ जब पूछ लिया जिंदगी ने ||

 

जवानी से तो बचपन अच्छा था हंसी-खुशी से बीता था,

हर कोई मुझसे खुश था खुशियों से झोलियाँ भरी थी जिंदगी में ||

 

होश संभाला तब असल जिंदगी से मुलाकात हुई,

हंसी-खुशी गायब थी रौनक सौ-कोस दूर थी असल जिंदगी में ||

 

जिन लोगों के चेहरे मुझे देख खिल उठते थे,

खुद के गुनाहों का कुसूरवार भी मुझे ही ठहराने लगे जिंदगी में ||

 

दुनिया में हर तरफ झूठ कपट का है बोलबाला,

बनावटी हंसी-मुस्कान और दिखावे का अपनापन भरा है जिंदगी में ||

 

© प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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