सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।  अभी हाल ही में नोशन प्रेस द्वारा आपकी पुस्तक नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास)  प्रकाशित हुई है। इसके पूर्व आपकी तीन पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी एवं पंचमढ़ी की कहानी को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है।  आजकल वे  हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग  की फिल्मों एवं कलाकारों पर शोधपूर्ण पुस्तक लिख रहे हैं जो निश्चित ही भविष्य में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज साबित होगा। हमारे आग्रह पर उन्होंने  साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मोंके स्वर्णिम युग के कलाकार  के माध्यम से उन कलाकारों की जानकारी हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा  करना स्वीकार किया है  जो आज भी सिनेमा के रुपहले परदे पर हमारा मनोरंजन कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है  हिंदी फ़िल्मों के स्वर्णयुग का खलनायक: के.एन.सिंह पर आलेख ।)

 ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्म के स्वर्णिम युग के कलाकार # 2 ☆ 

☆ हिंदी फ़िल्मों के स्वर्णयुग का खलनायक: के.एन.सिंह ☆ 

बरसात की रात (1960), वो कौन थी (1964), मेरा साया (1966), मेरे हुज़ूर (1968), दुश्मन, हाथी मेरे साथी(1971), लोफ़र, कच्चे धागे (1973) बढ़ती का नाम दाढ़ी (1974) जैसी भारतीय सिनेमा की यादगार फ़िल्मों की एक लंबी सूची है, जिनमें एक बात सामान्य है और वह है इन फ़िल्मों में के एन सिंह का अभिनय।

धीरे-धीरे के एन का मन इस नई फिल्मी दुनिया से खिन्न होने लगा। अमिताभ बच्चन स्टारर कालिया (1983) तक पहुंचते पहुंचते केएन का मन अभिनय से उचाट हो गया। तभी उनके साथ एक हादसा यह हुआ कि वे जिन आँखों  से अभिनय में रहस्य घोलते थे, उन आंखों की रोशनी जाती रही। और जीवन के संध्याकाल में केएन कैमरा, लाइट, एक्शन और कट की दुनिया से पूरी तरह कट गए। 1987 में उनकी पत्नी का निधन हो गया।

के.एन की कोई संतान नहीं हुई इसलिए उन्होंने अपने भतीजे पुष्कर को बेटे की तरह पाला। पत्नी के निधन के बाद केएन की आवाज़ में तो पहले जैसी ही खनक बरकरार रही, लेकिन अंदर से टूट से गए। 1999 में वे फिसल कर गिर गए जिससे उनके पैर की हड्डी टूट गयी तब से वे 31 जनवरी 2000 में मृत्यु होने तक पलंग पर ही पड़े रहे। उनकी रिलीज़ होने वाली अंतिम फ़िल्म अजूबा (1991) थी।

कुदरत ने उन्हें गरजदार आवाज दी थी, भाव भंगिमाओं को खास आकार देने की शैली उन्होंने खुद विकसित की और इन दो चीजों के मेल ने भारतीय फ़िल्म जगत को बेमिसाल खलनायक दिया। सुअर के बच्चों, कमीने या इसी तरह की गालियां दिए बिना और चीखे चिल्लाए बग़ैर केएन सिंह भय और घृणा की भावना दर्शकों के मन में पैदा कर देने का हुनर रखते थे। न कभी अभिनय का शौक़ रहा न फ़िल्मों में काम करने की तमन्ना लेकिन बिन मांगे मोती मिले, मांगे मिले ना भीख की कहावत ने के एन सिंह के जीवन में महत्वपूर्ण रोल अदा किया।

के. एन. सिंह की पत्नी प्रवीण पाल भी सफल चरित्र अभिनेत्री थीं। उनकी अपनी कोई संतान नहीं थी। उनके छोटे भाई विक्रम सिंह थे, जो मशहूर अंग्रेज़ी पत्रिका फ़िल्मफ़ेयर के कई साल तक संपादक रहे। उनके पुत्र पुष्कर को के.एन. सिंह दंपति ने अपना पुत्र माना था।

 

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल मध्य प्रदेश

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डॉ भावना शुक्ल

सुंदर अभिव्यक्ति