डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आज प्रस्तुत है अग्रज डॉ सुरेश  कुशवाहा जी  की  एक समसामयिक कविता  “होली की हुड़दंग मेरे देश मे…..। )

☆ कविता – होली की हुड़दंग मेरे देश मे….. ☆ 

बड़ी जोर से मची हुई है, होली की हुड़दंग

मेरे देश में ।

वैमनस्य, अलगाव, मज़हबी, राजनीति के रंग

मेरे देश में।।

 

कोरोना के कहर से ज्यादा

राजनीति जहरीली

कुर्सी के कीड़े ने कर दी

सबकी पतलुन ढीली,

कभी इधर औ कभी उधर से

फुट रहे गुब्बारे

गुमसुम जनता मन ही मन में

हो रही काली-पीली

आवक-जावक खेल सियासी

खा कर भ्रम की भंङ्ग

मेरे देश में।।

 

विविध रंग परिधानों में

देखो प्रगति की बातें

आश्वासनी पुलावों की है

जनता को सौगातें,

भाषण औ’आश्वासन सुन कर

दूर करो गम अपने

इधर विरोधी अलग अलग,

संसद में राग सुनाते,

लोकतंत्र या शोकतंत्र के, कैसे-कैसे ढंग

मेरे देश में

भूख गरीबी वैमनस्य के भ्रष्टाचारी रंग

मेरे देश में।

 

रक्तचाप बढ़ गए,

धरोहर मौन मीनारों के

सिमट गई पावन गंगा,

अपने ही किनारों से,

झांक रहे शिवलिंग,

बिल्व फल फूल नहीं मिलते

झुलस रहा आकाश

फरेबी झूठे नारों से,

बैठ कुर्सियों पर अगुआ, लड़ रहे परस्पर जंग

मेरे देश में

भूख गरीबी, वैमनस्य के भ्रष्टाचारी रंग

मेरे देश में।

 

ये भी वही औ’ वे भी वही

किस पर विश्वास करें

होली पर कैसे, किससे

क्योंकर, परिहास करें,

कहने को जनसेवक

लेकिन मालिक बन बैठे हैं

इन सफेदपोशों पर

कैसे हम विश्वास करें,

मुंह खोलें या बंद रखें, पर पेट रहेगा तंग

मेरे देश में

भूख गरीबी वैमनस्य के भ्रष्टाचारी रंग

मेरे देश में।।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 989326601


Please share your Post !

Shares
0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest

1 Comment
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments
संजीव

तन्मय हो तन्मय रचें, मीठे-मीठे गीत
शब्द-शब्द में निनादित, नेह नर्मदा प्रीत