॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #6 (81-86) ॥ ☆

 

नवयुवक अज में स्व अनुराग की बात शालीनतावश तो वह कह न पाई

उर्मिल सुकेशी के रोमांचमय गात से पर किसी से भी कुछ छुप न पाई ॥ 81॥

 

तब उस घड़ी हँस सुनंदा ने परिहास में कहा – ‘‘क्यों सखि चलें और आगे ? ”

सुन इंदु ने तितिक्षापूर्ण लखकर कहा – ‘‘कहीं जाता कोई लक्ष्य पाके ?”॥ 82॥

 

फिर सुंदरी ने सुनंदा के हाथो में वरमाल कुकुम लगी यों सधा दी

कि अनुराग की मूर्ति अज के गले में यथोचित उसी के सहारे पिन्हा दी ॥ 83॥

 

उस मांगलिक माल के वक्ष लगते ही सुयोग्य वर अज ने कुछ ऐसा पाया

जैसे स्वयं इंदुमति ने ही भुजपाश दे उसको अपने गले है लगाया ॥ 84॥

 

मिली धनरहित चंद्र को चंद्रिका आत्म अनुरूप सागर को गंगा ने पाया

राजाओं के लिये असह्रय यही गीत, सहर्ष मिल सबने एक स्वर से गाया ॥ 85॥

 

प्रमुदित वर पक्ष एक ओर था प्रसन्नचित – राजागण थे उदास, हीन थे प्रभा से ।

प्रातः सरोवर में ज्यों खिलते कमल कहीं,मुरझाते कुमुद कुसुम शेष रवि – विभा से ॥ 86॥

 

छटवाँ सर्ग समाप्त

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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