श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “कान का मैल।)

?अभी अभी # 714 ⇒ कान का मैल ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

मैल का सफाई से कोई मेल नहीं ! हम रोज़ नहाते हैं, अपनी कंचन जैसी काया को स्वच्छ, सुंदर व पवित्र बनाए रखने की कोशिश करते हैं, फिर भी यह मैल न जाने कहां से तन – बदन में प्रवेश कर जाता है। चलिए मान लिया, मिट्टी का शरीर है, दिन भर धूल मिट्टी लगती रहती है, मैला होना कोई आश्चर्य का विषय नहीं। लेकिन सात तालों में बंद हमारा मन तो कितना अंदर है, वहां तक मैल कैसे पहुंच जाता है, अज़ीब पहेली है।

हम यहां पहेलियां बुझाने नहीं आए और न ही मन के मैल के विषय में ज्ञान बांटने आए हैं। आज हम सिर्फ और सिर्फ कान के मैल की बात करेंगे। सिर्फ एक मात्रा में मेला, मैला हो जाता है और जहां मेल जोल होना चाहिए वहां मैला आंचल। ईश्वर ने हमें दो दो कान, और दो दो आंखें दी है, सुनने और देखने के लिए। आंखों से कम दिखाई देने पर चश्मा तो आंखों पर लगता है, लेकिन दोनों कानों का बोझ बढ़ जाता है।

शरीर में जहां जहां भी मैल है, उसके अलग अलग नाम हैं। आंख में मैल नहीं कीच होता है, और कान में हींग की शक्ल का मैल होता है। यूं तो हमारी आंखों के नीचे नाक भी रहती है। कभी आंसू बहते हैं, तो कभी नाक बहती है। सयाने कह गए हैं, आंख में अंजन और दांत में मंजन नित्य करना चाहिए। लोग तो होटलों में खाना खाना जाते हैं, तो बिल के साथ, सौंफ और टूथ पिक, यानी दांत खुरचने का यंत्र भी उपलब्ध होता है। जहां यह उपलब्ध नहीं होता, मुंह में माचिस की काड़ी ही किया करते हैं। यह अच्छी बात नहीं है।।

नाक कान और गले के एक ही विशेषज्ञ होते हैं। अतः नाक और कान में उंगली करने के लिए भी सयानों ने रोक लगा रखी है। ‌यूं तो कानों का काम केवल सुनने का है, और कान का मैल निकालने के लिए भी बाजार में cotton ear buds उपलब्ध हैं, इसके बावजूद जब कानों में असहनीय दर्द होता है, तो डॉक्टरों की लग जाती है।

कान में फंगस भी हो सकता है, और मवाद भी ! एक रात कान में भयंकर आवाज़ से मेरी नींद खुली। लगा, बांए कान में नगाड़े बज रहे हैं। कान में थोड़ा पानी डाला, लेकिन कुछ नहीं हुआ। लगा कान के अंदर कोई कीट फड़फड़ा रहा है, जिसके कारण पूरे कान में आवाज़ गूंज रही थी।

ऐसे समय में, मां ही संकट मोचक बन काम आती है। उन्होंने मेरा सर अपनी गोद में लिया, रूई से थोड़ा गर्म गर्म सरसों का तेल मेरे कानों में डाला। कुछ ही देर में कान का शोर थम गया। मां ने रूई के फोहे से एक मरी हुई चींटी कान से बाहर निकाल दी।।

कान तो खैर दीवारों के भी होते हैं, और जिस तरह कमरों के खिड़की दरवाजों में पर्दे लगे होते हैं, कान का भी एक पर्दा होता है, जो बड़ा महीन होने के बावजूद, ठंड, गर्मी, पानी और धूल से हमारे कानों की रक्षा करता है। डी जे के दीवाने और शोर भरा संगीत सुनने के शौकीन, अपना कान का पर्दा गंवा बैठते हैं।

उम्र के हिसाब से कम सुनने के अलावा मधुमेह जैसी बीमारियों के कारण लोग अपने सुनने की शक्ति भी खो बैठते हैं। जो लोग कम सुनते हैं, वे कानों में मशीन लगा लेते हैं। वैसे सुनने वाली बात तो लोग बिना कान के भी सुन लेते हैं, और जिन्हें अनसुनी ही करना है, उनके लिए कान का होना, न होना कोई महत्व नहीं रखता।।

कुछ बातें इतनी मीठी होती है जो कानों में अमृत घोल देती हैं। जिन्हें खरी खोटी, सुनने अथवा सुनाने की आदत है, उसका इलाज किसी ई एन टी के पास नहीं। ईश्वर ने कान अच्छा सुनने के लिए दिए हैं, अच्छा सुनें, अच्छा सुनाएं। कान का मैल साफ़ करें, कानाफूसी से कान साफ नहीं होता। एक काम की बात कान में कह दूं ! जगजीत सिंह को सुनकर देखें, कान के साथ मन का मैल भी साफ हो जाएगा।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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