श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “एक था गधा …“।)
अभी अभी # 699 ⇒ एक था गधा
श्री प्रदीप शर्मा
मेरे शहर से गधे वैसे ही ग़ायब हो गए हैं, जैसे गधे के सर से सींग ! वैसे गधे के सर पर कभी सींग थे ही नहीं, तो गायब होने का सवाल ही पैदा नहीं होता, लेकिन मेरे शहर में कभी गधे थे, और बहुतायत से थे। किसी को भले ही चिंता न हो, मुझे तो है।
सरकार हर विलुप्त प्राणी की चिंता करती है। टाइगर और सफेद शेर के लिए अभ्यारण्य और प्रोजेक्ट टाइगर पर कितना खर्च करती है, लेकिन गधों के प्रति उपेक्षा के पीछे ज़रूर कोई राजनैतिक कारण ही रहा होगा। गधों की उपेक्षा हम भी करें और सरकार भी, ये अच्छी बात नहीं है।।
एक वक्त था जब बिग बी गुजरात के गधों की चर्चा करते थे ! फिर चर्चा चली पाकिस्तान के गधों की। मुझे जब भी गधों की याद आती है, निमाड़ के खरगौन अथवा राजगढ़ ब्यावरा चला जाता हूँ। बरसात में छाते ही छाते की सेल की तरह वहाँ बहुतायत से गधे उपलब्ध हैं।
आखिर गधे ने हमारा क्या बिगाड़ा है। कुछ लोग गधे घोड़े में फ़र्क करना नहीं जानते। मैं जब छोटा था, तब गाय गधे में फ़र्क नहीं कर पाता था। माँ द्वारा दी गई गाय की रोटी, किसी गधे को नसीब हो जाती थी। गधे के भाग बड़े सजनी ! माँ डाँटती। गाय की रोटी गाय को ही देनी थी। गधे के लिए दूसरी ले जाते। मेरे पास कोई जवाब नहीं होता था। इंसान में इतनी तो बुद्धि होनी चाहिए कि वो गाय और गधे में फ़र्क पहचान ले। माना कि दोनों ही सीधे हैं। लेकिन गऊ तो हमारी माता है, और गधा, सिर्फ गधा।।
मेरी नज़र में गधा एक अनासक्त संत है। गाय इतनी चौकन्नी और सजग होती है कि, एक आवाज़ में पीछे मुड़कर देखने लगती है। हमारे लिए गाय एक व्यक्तिवादी संज्ञा है। गाय जानती है कि उसे गाय कहकर पुकारा जाता है। अपना नाम सुनते ही, तत्काल उसके कान खड़े हो जाते हैं। गधे को नहीं मालूम, कि उसे गधा कहते हैं। उस बेचारे को तो यह भी नहीं मालूम, कि उसे गधा क्यूँ कहते हैं। अक्सर सड़कों पर, बस्ती में बाज़ार में, घास के मैदान में, गधे आपकी तरफ पीठ किये खड़े रहते हैं। आप भले ही इनके मुँह के पास चले जाओ, ये मुँह तो छोड़िए, एक नज़र तक आपकी ओर उठाकर नहीं देखेंगे। एक गधे की उपेक्षा इंसान बर्दाश्त नहीं कर पाता और कह उठता है, साला गधा है।।
गधे की उपयोगिता कभी कुम्हार के लिए थी। मैंने गधों को ही नहीं, इंसानों को भी ईंटें ढोते देखा है। कभी कभी इंसान को भी गधा-हम्माली करनी पड़ती है। जब मेहनत बेगार लगने लगे, समझ जाइए, आप गधा हम्माली कर रहे हैं।
मेरे शहर से गधे तो पहले से ही गायब हो गए थे, अब गाय का भी पता नहीं। श्वान और शूकर के बीच ज़िन्दगी गुजारनी पड़ रही है। मेरे शहर में कभी गधा टेकरी होती थी, उसे भी मुगलसराय समझ लोगों ने नाम बदल दिया। अब उसका जो भी नाम रखा हो, पर दीनदयाल टेकरी तो नहीं ही रखा।।
नाम बदलने का ऐसा प्रचलन चल पड़ा है कि खंडवा रोड पर अच्छा भला आसाराम बापू चौराहा था, उसका भी नाम बदलकर आई-टी पार्क रख दिया। लगता है, लोगों का अच्छाई पर से भरोसा ही उठ गया है। वह तो भला हो कृष्ण चंदर का जिन्होंने गधे को सड़क से संसद तक पहुंचा दिया।
मुझमें कभी कभी हीनता की भावना भी घर कर जाती है कि एक गधे की आत्मकथा लिखी जा सकती है, लेकिन आज तक मैं अपनी आत्मकथा नहीं लिख पाया। मैं इतना बड़ा गधा भी नहीं कि कृष्ण चंदर जैसे महान अफ़साना-निगार से अपनी आत्मकथा लिखवाऊं, खुद ही कोशिश करूँगा। बस पहले अपने आप में गुणों को तो तलाश लूँ, अभी मौका है, थोड़ा खुद को तराश लूँ।।
© श्री प्रदीप शर्मा
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